इन प्रतिभाओं को हम समाज के लिए क्‍यों नहीं गढ़ते?

शनिवार को अपनी बात मैंने यह कहते हुए खत्‍म की थी कि-‘’आगे अच्‍छे संस्‍थान में प्रवेश मिल सके, इसलिए बच्‍चे हाड़तोड़ मेहनत करते हैं और उसके चलते उनका जीवन एक मशीन की तरह हो जाता है। वे स्‍कूल, ट्यूशन और घर तक ही सिमट जाते हैं और घड़ी के गुलाम बनकर रह जाते हैं। तो क्‍या हम बच्‍चों के लिए ऐसा जीवन चाहते हैं जो उन्‍हें जिंदगी के ऐसे समय में समाज से काटकर रखे, जिस समय उन्‍हें समाज से सबसे ज्‍यादा सीखने की जरूरत होती है…’’
दरअसल आज हमारी शिक्षा और परीक्षा दोनों की पद्धतियां बच्‍चों को ज्‍यादा से ज्‍यादा सामाजिक बनाने के बजाय ज्‍यादा से ज्‍यादा वैयक्तिक बना रही हैं। हमने पढ़ाई-लिखाई और नंबर गेम का ऐसा जाल बच्‍चों के आसपास बुन दिया है कि वे इससे बाहर ही नहीं निकल पाते। बच्‍चे रेशम कीड़े के कोकून की तरह हो गए हैं, वे अपने आसपास नंबरों का तानाबाना बुनते रहते हैं और उन्‍हें पता ही नहीं चलता कि ये नंबरों का जाल ही एक दिन उनकी जान का दुश्‍मन बन जाएगा।
इस श्रंखला की दूसरी कड़ी में मैंने केंद्रीय विद्यालय के अपने परिचित जिन प्राचार्य का जिक्र किया था, उन्‍होंने बातचीत के दौरान खुद यह स्‍वीकार किया कि अधिकांश प्रतिभाशाली बच्‍चे अच्‍छी नौकरी और अच्‍छे पैकेज के भंवर में फंसकर जाने कहां खो जाते हैं। उनका यह भी कहना था कि आईआईटी जैसे संस्‍थानों में जाने वाले छात्र भी बजाय समाज के हित में कोई रिसर्च करने के, ऐसे मोटे पैकेज के फेर में पड़े रहते हैं। यही कारण है कि हमारे यहां नई खोज और शोध करने वाले वैज्ञानिकों की लगातार कमी होती जा रही है।
और यदि हम ज्ञान की बात करें तो उसकी हालत क्‍या है? केवी प्राचार्य ने बड़े दुख के साथ यह स्‍वीकार किया कि आईआईटी में प्रवेश पा चुके बच्‍चों तक की हालत यह है कि वे एक पेज का टेक्‍स्‍ट मैटर ठीक से नहीं लिख पाते। और एक पेज की बात भी छोडि़ए, एक एप्‍लीकेशन तक उनसे ठीक से नहीं लिखी जाती। उसमें ढेरों गलतियां होती हैं। यानी हमारी परीक्षा प्रणाली नंबरों के हिसाब से तो बच्‍चों को उत्‍कृष्‍टतम बना रही है, लेकिन ज्ञान के हिसाब से नहीं।
जब 12 वीं का रिजल्‍ट आया तो सहसा मेरे मन में एक और सवाल उठा। वैसे यह सवाल लंबे समय से मन में उमड़ता घुमड़ता रहा है। सवाल यह है कि इन प्रतिभाशाली बच्‍चों का आगे चलकर क्‍या हुआ? वे क्‍या बने, आज कहां हैं और समाज के प्रति अपना कोई योगदान कर रहे हैं या नहीं? मैंने यूं ही केवी प्राचार्य जी से पूछ लिया, क्‍या ऐसी कोई व्‍यवस्‍था है जिसके तहत ऐसे छात्रों का कोई रिकार्ड रखा जाता हो? उन्‍होंने कहा नहीं ऐसी कोई व्‍यवस्‍था नहीं है और ऐसा कर पाना संभव भी नहीं है।
हो सकता है जैसा उन्‍होंने कहा उस तरह की कोई व्‍यावहारिक कठिनाई हो। लेकिन यूं ही एक विचार मन में आता है कि जो छात्र अपनी प्रतिभा, योग्‍यता और परिश्रम से ऐसी उत्‍कृष्‍ट उपलब्धि हासिल करने में कामयाब होते हैं, क्‍या देश को उनका कोई ट्रैक रिकार्ड नहीं रखना चाहिए? यदि हम मानते हैं कि ये राष्‍ट्र की भावी प्रतिभाएं हैं तो क्‍या हमारे पास इसकी कोई सुविचारित योजना नहीं होनी चाहिए कि इन प्रतिभाओं का हम भविष्‍य में क्‍या करेंगे?
ऐसा क्‍यों नहीं हो सकता कि देश में एक विशिष्‍ट उत्‍कृष्‍टता संस्‍थान हो जिसमें सीबीएसई और राज्‍यों के शिक्षा बोर्डों से 12 वीं की परीक्षा में मेरिट में आने वाले छात्रों को भविष्‍य के लिए तैयार किया जाए। अभी तो ऐसा कोई संस्‍थान नहीं है जो देश भर में मेरिट सूची में आने वाले छात्रों को उनकी योग्‍यता और प्रतिभा के अनुरूप गढ़े ताकि वे अपने अपने पसंदीदा क्षेत्र में और अधिक निखर कर देश के लिए अमूल्‍य निधि बन सकें। मैं मानता हूं कि ऐसे संस्‍थान के बारे में जरूर विचार होना चाहिए।
समस्‍या प्रतिभा की नहीं है, समस्‍या है इन प्रतिभाओं को दिशा और अवसर देने की। दरअसल अभी ऐसी प्रतिभाओं को ट्रैक करने का कोई मैकेनिज्‍म ही हमारे पास नहीं है। यदि पाठकों की जानकारी में हो तो वे मुझे बताएं, लेकिन मैंने तो किसी भी राज्‍य में और न ही सीबीएसई स्‍तर पर ऐसा कोई संकलन देखा जिसमें पिछले पांच दस सालों के ऐसे छात्र छात्राओं का स्‍कूल छोड़ने के बाद का रिकार्ड हो जिन्‍होंने मेरिट लिस्‍ट में स्‍थान पाया। दुर्भाग्‍य से ऐसी प्रतिभाएं अपने अथक प्रयासों के बावजूद जुगनू की चमक बनकर रह जाती हैं। याद रखिए, बच्‍चों की इस उपलब्धि में परिवार का, समाज का भी बहुत बड़ा योगदान होता है, क्‍या उन्‍हें समाज के लिए कुछ करने को प्रेरित नहीं किया जाना चाहिए?
मैं आरक्षण जैसी किसी व्‍यवस्‍था का विरोधी नहीं हूं, लेकिन अकसर सोचता हूं कि आरक्षण की सुविधा का लाभ लेकर जो छात्र जीवन में कुछ बन पा रहे हैं, वे समाज के लिए क्‍या योगदान कर रहे हैं? व्‍यक्ति के रूप में भले ही वे सफल हो गए हों और अपने परिवार के साथ सुख चैन की जिंदगी बिता रहे हों, लेकिन सामाजिक तौर पर क्‍या उनकी कोई जिम्‍मेदारी नहीं बनती? औरों की बात छोड़ भी दें तो जिस वर्ग से वे आते हैं, उस वर्ग के बच्‍चों को आगे लाने या उस वर्ग के लोगों की जिंदगी को सुधारने के प्रति क्‍या उनका कोई दायित्‍व नहीं है?
हम यह क्‍यों भूल जाते हैं कि भले ही आरक्षण के नाम पर हो लेकिन जो भी सुविधा ऐसे छात्रों को मिली है वह समाज के योगदान से मिली है। जिस राजकोष से उनकी पढ़ाई लिखाई और उन्‍हें बेहतर बनाने का खर्चा उठाया गया है, उसमें देश के आम करदाता का ही पैसा है। यह कैसे हो सकता है कि वे जनता के पैसों से सबकुछ हासिल करें और बाद में उसी समाज या जनता को भूलकर खुद के ऐशोआराम की फिक्र में लग जाएं।
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कल पढ़ें कैसा है समाज और ‘प्रतिभाशाली’ बच्‍चों के रिश्‍ते का गणित

 

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