शत्रुघ्नसिंह तिवारी को जानना इसलिए जरूरी!

जयराम शुक्ल

आज जब मध्यप्रदेश की राजनीति में विंध्य क्षेत्र के प्रतिनिधित्व की उपेक्षा पर चौतरफा बात चल रही है, ऐसे में यहां के वो नेता बरबस ही याद आ रहे हैं जिन्होंने विनयशीलता नहीं अपितु दबंगई से दिल्ली-भोपाल की राजनीति में अपनी जगह बनाई। इनमें गोविंदनारायण सिंह, अर्जुन सिंह, श्रीनिवास तिवारी, चंद्रप्रताप तिवारी, यमुना शास्त्री, बैरिस्टर गुलशेर अहमद के नाम तो प्रायः सभी जानते हैं, लेकिन इस कड़ी में एक नाम बिसरा दिया जाता है वो है शत्रुघ्न सिंह तिवारी का। 18 जुलाई को उनकी पुण्यतिथि पड़ती है, नई पीढ़ी को उनके बारे में जानना चाहिए।

कहते हैं राजनीति और क्रिकेट की तासीर एकसी होती है। ग्लैमर के मामले में भी, कॅरियर के मामले में भी। क्रिकेट में कई ऐसे खिलाड़ी भी हुए जो छोटी मगर धुंआधार पारी खेलकर अमर हो गए। मध्यप्रदेश की राजनीति में शत्रुघ्न सिंह तिवारी ऐसे ही धुरंधर खिलाड़ी थे। साठ से सत्तर के दशक में वे राजनीति के आकाश में वे दुपहरिया के सूरज की भाँति पूरी प्रखरता के साथ छाए थे।

गोविंदनारायण सिंह और पंडित शंभूनाथ शुक्ल के बाद विन्ध्य के वे सबसे प्रभावी नेता थे। वैसे यह अर्जुन सिंह के प्रभाव विस्तार का शुरुआती दौर था, पर तिवारीजी आगे थे। विन्ध्य की विपक्ष की राजनीति में जोशी-यमुना-श्रीनिवास की तूती बोलती थी। जगदीश जोशी देश भर में समाजवादियों की नई पीढी के आइकन बनकर उभर रहे थे।

इन्हीं परिस्थितियों में शत्रुघ्न सिंह तिवारी सन् 62 के चुनाव में रीवा विधानसभा क्षेत्र से उतरे व समाजवादी दिग्गज जगदीश जोशी को पराजित कर देशभर में सुर्खियां बटोरी। इस चुनाव का महत्व इसलिए भी ज्यादा था क्योंकि विन्ध्य प्रदेश के मध्यप्रदेश में विलीनीकरण के बाद यह पहला चुनाव था और समाजवदियों का आंदोलन पूरे शबाब पर था।

रीवा डॉ. लोहिया का दूसरा डेरा बन चुका था। शत्रुघ्न सिंह तिवारी की जीत की धमक दिल्ली तक पहुंची और ये पं.नेहरू की नजरों में आए। तिवारी जी की शख्सियत का आकलन आप इसी से कर सकते हैं कि युवावय में पहली दफे विधायक बनने के बाद ही सन् 63 में भगवंत राव मंडलोई के नेतृत्व वाली सरकार में उन्‍हें उपमंत्री के तौर पर शामिल कर लिया गया।

इन्हें स्वायत्तशासी निकायों का उपमंत्री बनाया गया। भगवंतराव मंडलोई अल्पकाल ही मुख्यमंत्री रह सके। प्रदेश की कमान आई राजनीति के चाणक्य पं.द्वारिका प्रसाद मिश्र के हाथ में, पर प्रदेश की राजनीति में गहराई से पाँव जमा चुके तिवारीजी सरकार के लिए अपरिहार्य रहे। मिश्रजी ने राज्यमंत्री की तरक्की के साथ अपने मंत्रिमंडल में रखा। यह वह दौर था जब तिवारीजी का दायरा विन्ध्य की सीमारेखा को लांघते हुए प्रदेशव्यापी बन गया।

तानाशाह मिजाज़ के मूडी डीपी मिश्रजी ने राजमाता विजयाराजे सिंधिया को नाराज तो कर ही लिया था, मंत्रिमंडल के सदस्यों में श्यामाचरण शुक्ल के साथ उनकी अदावत भी जाहिर हो चुकी थी। तिवारीजी श्यामाचरण शुक्ल के रणनीतिकार बन गए। मिश्रजी ने कई मोर्चे खोल रखे थे। सरकार गिरना तय था।

बताते हैं तब एक मौका यह भी आया जब संविद मुख्यमंत्री के लिए श्यामाचरण जी पर दाँव खेलने की कोशिश की गई। शुक्लजी तब कैबिनेट में सिंचाई मंत्री थे। पार्टी में ही रहकर मिश्रजी से निपटने की रणनीति के पीछे शत्रुघ्न सिंह तिवारी ही थे। सरकार गिरी, गोविंदनारायण सिंह संविद के मुख्यमंत्री बने पर इधर शत्रुघ्न सिंह तिवारी और श्यामाचरणजी की प्रगाढ़ता ऐसे बढ़ी कि राजनीति के गलियारों में दोनों एक जिस्म दो जान के रूप में चर्चित हुए।

संविद के पतन के बाद श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने और शत्रुघ्न सिंह तिवारी उनकी कैबिनेट के सदस्य। तारीख थी 26 मार्च 1969। तिवारीजी को वन, खनिज, लोकस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग मिला। वे शुक्ल जी के लिए कितने महत्वपूर्ण थे उस दौर की तस्वीरों से इसका आकलन कर सकते हैं। पूरी कैबिनेट पीछे शुक्ल, तिवारी कुर्सी पर। सन् 62 से 72 के बीच तीन मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया। तेजस्वी व्यक्तित्व खुद अपनी लीक बनाता है। तिवारीजी के निर्णयों की छाप सालों साल गूंजती रही। वनों के राष्ट्रीयकरण का आइडिया तिवारीजी का ही था जिसे इंदिराजी ने बाद में पूरे देश में लागू किया।

पत्रकार के रूप में मुझे याद है कि 1985 के आसपास छत्तीसगढ़ की देवभोग की हीरा खदान को विदेशी एजेंसी के हवाले करने की कोशिश सुर्खियां बनीं तो सबको शत्रुघ्न सिंह तिवारी याद आए। इंडिया टुडे ऩे तिवारीजी जी के विधानसभा में किए गए संकल्प का ब्‍योरा छापा जो कुछ इस तरह था- हम अपने अमूल्‍य प्राकृतिक संसाधन किसी विदेशी के हवाले नहीं कर सकते। आज हम अल्पज्ञ ही सही, हमारी आने वाली पीढ़ी जब ज्ञानवान होगी तब वह यही काम करने में समर्थ होगी जिसके लिये आज हम विदेश की ओर देख रहे हैं।

बाद में भले ही डिबीयर्स, रियो टिंटो के लिए दरवाजे खोल दिए गए हों पर तब शत्रुघ्न सिंह तिवारी के संकल्प ने देवभोग को विदेशी कंपनी के हाथों में जाने से बचा लिया था। तिवारीजी ने 67 में ही रीवा को महानगर के रूप में देखना शुरू कर दिया था और वे यहां के लिए भूमिगत नाली परियोजना स्वीकृत करवा कर लाए थे।

शिक्षा के क्षेत्र में रीवा में विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज उन्हीं के कार्यकाल में स्वीकृत हुये। राजनीति साँप सीढी का खेल है। जिस नेता की धाक का डंका अल्प समय में ही समूचे प्रदेश में बजा हो सन् 72 में उसकी ही टिकट कट गई। तेज रफ्तार के कुछ खतरे तो होते ही हैं। फिर भी वे संगठन में अपना प्रभाव बनाए रखने में सफल रहे। जब श्यामाचरण जी पुनः मुख्यमंत्री बने तो वे कुछ भी न रहते हुए बड़ी हैसियत के नेता रहे। 77 के चुनाव में कुछ तो जनता की आँधी ने जोर मारा और जो बचा पार्टी के प्रतिद्वंद्वियों ने धक्का दिया। शत्रुघ्न सिंह तिवारी चुनाव हार गए। पर उनकी दबंगई नहीं हारी।

नियति के सामने किस का बस चला है। 18 जुलाई 1978 के दिन आया ह्रदयघात उनके जीवन का आखिरी पल साबित हुआ। आज कांग्रेस के अष्टधातुओं को अपने कार्यकर्ताओं की फिकर नहीं लेकिन श्री तिवारी के शोक-संतप्त परिवार को ढाढस बँधाने स्वयं इंदिरा गांधी जी उनके गाँव केमार पहुँची थीं और वहां परिजनों के बीच तीन-चार घंटे बिताए थे। महज 52 साल की आयु और दो बार की विधायकी में भी तिवारी जी ने राजनीति की ऐसी धुंआधार पारी खेली कि उस रेकार्ड को खुदगर्ज कांग्रेसी भले भुला दें पर इतिहास कैसे भुला सकता है?

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