ग्वालियर मेले पर असमंजस क्यों?

राकेश अचल

महामारी के चलते हमारे जीवन मूल्य और शैली दोनों खतरे में हैं, लेकिन हम इन तमाम खतरों से जूझते हुए आगे बढ़ रहे हैं। इन खतरों के बीच ही देश में विधानसभाओं के चुनाव हो रहे हैं, किसान आंदोलन कर रहे हैं यहां तक कि हरिद्वार में कुम्भ मेला लग रहा है। लोग जहरीली शराब पीकर मर रहे हैं। यानि एक ग्वालियर व्यापार मेले के अलावा कुछ भी स्थगित नहीं है। ग्वालियर व्यापार मेले के आयोजन को लेकर संशय बरकरार है।

ग्वालियर का मेला 116 साल पुराना है। हमारे यहां किसी भी शतायु व्यक्ति, संस्था, परम्परा को लेकर एक अलग अवधारणा है। हम शतायु प्राप्त हर चीज को धरोहर मानते हैं और उसके प्रति हमारे मन में विशेष सम्मान होता है। ग्वालियर व्यापार मेला इसी तरह का एक आयोजन है। इस मेले के साथ अन्य आयोजनों की तरह एक इतिहास वाबस्ता है जो अब ग्वालियर की पहचान में बदल चुका है, लेकिन सरकार फैसला ही नहीं कर पा रही कि मेले का आयोजन हो या न हो? कोविड के चलते ग्वालियर व्यापार मेले के आयोजन को लेकर सरकार का असमंजस समझ से परे इसलिए है क्योंकि इससे पहले भीड़ भरे जितने सियासी आयोजन हो सकते थे, वे सब प्रदेश में हुए। सरकार ने साहस कर तानसेन समारोह भी आयोजित किया और कहीं से कोई समस्या पेश नहीं आई।

ग्वालियर की अनेक व्यापारिक संस्थाएं ग्वालियर व्यापार मेले के आयोजन की मांग कर चुकी हैं लेकिन सरकार खामोश है। स्थानीय जनप्रतिनिधि भी खुलकर ग्वालियर व्यापार मेले की पैरवी नहीं कर पा रहे हैं, यहां तक कि राज्य सभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया भी इस मामले में निष्क्रिय दिखाई देते हैं। ग्वालियर व्यापार मेले के प्रति सरकार की बेरुखी की वजह से मेला संचालक मंडल लम्बे समय से भंग पड़ा है। कांग्रेस की सरकार बनते ही जो लोग संचालक मंडल में शामिल किये गए थे उन्होंने प्रदेश में हुए सामूहिक दलबदल के बाद अपने पदों से त्यागपत्र दे दिए थे। अब मेले के पदेन सदस्य (जो शासकीय हैं) इस आयोजन को लेकर मौन साधे बैठे हैं।

ग्वालियर व्यापार मेले के पास अपनी अधोसंरचना है। बारह सौ से अधिक पक्की दुकाने, सड़कें, सीवेज सिस्टम, बाग़-बागीचे हैं। मैदान इतना बड़ा है कि उसमें भोपाल मेले जैसे दस मेले लगा दिए जाएँ। इसलिए इस मेले के आयोजन में सोशल डिस्टेंसिग कोई बड़ा पहलू नहीं है। मेले में सालाना 600 से लेकर 800 करोड़ रुपये का कारोबार डेढ़ महीने की अवधि में हो जाता है। सैकड़ों लोगों को इस दौरान अस्थाई रोजी-रोजगार भी मिलता है। स्थानीय बाजार व्यवस्था भी इस मेले की वजह से सरसब्ज होती है, लेकिन अब ये मेला कोविड के नाम पर उपेक्षा का शिकार है।

ग्वालियर के लोग इस मेले के आयोजन को कोविड के खिलाफ जंग के एक मॉडल के रूप में लेकर आगे बढ़ सकते हैं लेकिन पहल करे कौन? प्रशासन साथ देने के लिए राजी नहीं, जन प्रतिनिधि प्रभाहीन हो चुके हैं और सामाजिक संस्थाएं खतो-किताबत से आगे नहीं बढ़ रहीं। यदि सब मिलकर सामूहिक पहल करें तो सरकार को मेले के आयोजन के लिए राजी किया जा सकता है। ग्‍वालियर व्यापार मेले में एक मनोरंजन सेक्टर को छोड़ अन्य किसी भी सेक्टर में सोशल डिस्टेंसिंग की समस्या नहीं है। मनोरंजन सेक्टर में सोशल डिस्टेंसिग का नियमन किया जा सकता है। बल्कि ये मौक़ा है जब मेले में प्रवेश टिकिट लगाने का बहुत पुराना महत्वाकांक्षी प्रस्ताव भी अमल में लाया जा सकता है।

ग्वालियर व्यापार मेले में यदि दिल्ली के व्यापार मेले की तर्ज पर व्यैक्तिक और पारिवारिक प्रवेश टिकिट लगा दिए जाएँ तो न केवल प्रवेश नियंत्रित किया जा सकता है अपितु मेले की आय का एक नया स्रोत भी तैयार किया जा सकता है। प्रतिदिन के हिसाब से मेलार्थियों की संख्या तय कर प्रवेश देने से सोशल डिस्टेंसिंग की समस्या से निबटना कोई टेढ़ी खीर नहीं है। हरिद्वार में उत्तर प्रदेश शासन कुम्भ मेले का आयोजन आखिर कर रहा है या नहीं?

प्रति वर्ष ग्वालियर व्यापार मेला 25 दिसंबर तक आरम्भ हो जाता था। इससे पहले यहां एक सप्ताह का पशु मेला भी लगता था। इस साल मेले के आयोजन को लेकर चल रहे अनिर्णय की वजह से डेढ़ महीने का समय निकल चुका है, लेकिन अभी भी यदि मेले के आयोजन का फैसला कर लिया जाए तो फरवरी के प्रथम सप्ताह से मेले का आयोजन किया जा सकता है और इसे मार्च के प्रथम सप्ताह तक चलाया जा सकता है। ग्वालियर व्यापार मेले के पास स्थायी शिल्प बाजार और बहुउद्देशीय सभागार भी है। ये दोनों सुविधाएं और कहीं नहीं हैं।

मेले के आयोजन का एक दूसरा पहलू ये भी है कि कोविड की वजह से पिछले नौ-दस महीने से घरों में कैद अवसादग्रस्त लोग जीवन में कुछ नई ताजगी अनुभव कर सकते हैं। वैसे भी मेले मेल-मिलाप का ही केंद्र हुआ करते थे। अवसाद के इस समय में ग्वालियर मेला एक औषधि का काम भी कर सकता है, कारोबार तो एक बहाना है। मेले के बारे में सरकार की उदासीनता के कारण ऑटो मोबाइल सेक्टर के व्यापारी हतोत्साहित हो चुके हैं। सरकार पहले ग्वालियर मेले के दौरान पथकर और वाणिज्य कर में छूट भी देती थी लेकिन इस साल सब कुछ अधर में है। ग्वालियर को अपनी इस सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए एकजुटता का प्रदर्शन करना चाहिए, अन्यथा उनके पास ग्वालियर व्यापार मेले का जो एक स्वर्णिम इतिहास है उसमें दाग लग जाएगा।

सन्दर्भ के लिए आपको बता दें कि ग्वालियर के तत्कालीन शासक स्व. माधवराव सिंधिया ने ग्वालियर मेले की शुरुआत की थी। सागरताल में मेले ने 1905 में साकार रूप लिया, तब शायद सिंधिया ने कल्पना भी नहीं की होगी कि पशु मेले के रूप में शुरू हुआ यह मेला करोड़ों का कारोबार करने लगेगा। 23 अगस्त 1984 को ये मेला व्यापार मेला बना और दो साल बाद ही शासन ने इसके लिए स्वतंत्र प्राधिकरण का गठन कर दिया था जो स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के नाम से वाबस्ता है।

कोई 104 एकड़ में फैले इस मेला परिसर में 2 लाख वर्गफीट क्षेत्र में बाग़ बागीचे और दो लाख वर्ग फीट की हरित पट्टी के अलावा कोई 1500 पक्की दुकानें, 250 पक्के चबूतरे और कोई 24 चौराहे की छतरियां हैं। कुश्ती के अखाड़े, स्थायी जन सुविधा केंद्र और अपना प्रशासनिक भवन भी है।

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