राकेश दुबे
भारत का सांख्यिकी संस्थान (नेशनल स्टेटिस्टिकल कमीशन) संकट में है। इसकी रिपोर्ट संसद तक नहीं पहुंच पा रही है। इस सांख्यिकी कार्यक्रम की स्थापना जवाहरलाल नेहरू ने की थी। इसकी प्रतिष्ठा भी एक ठोस और भरोसेमंद संस्थान के रूप में है। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नेशनल सैंपल सर्वे से सामने आया कि देश में बेरोजगारों की संख्या इतिहास में पहली बार दो गुने से ज्यादा हो गई है, और यह 2.2 प्रतिशत से बढ़कर 6 प्रतिशत पर पहुंच गई। इस रिपोर्ट को दबा दिया गया है, यहां तक कि संसद में भी इसे नहीं रखा गया। वैसे नोटबंदी के बाद सरकार की तरफ से कराया गया यह पहला रोजगार सर्वे था।
नेशनल स्टेटिस्टिकल कमीशन के दो सदस्यों ने कहा कि सरकार ने एनएससी की मंजूरी के बावजूद इस रिपोर्ट को दबा लिया। नीति आयोग ने सामने आकर सरकार की अपनी ही रिपोर्ट को गलत साबित करने की कोशिश की, लेकिन 2019 के चुनाव के नतीजे आने के बाद फिर इसी रिपोर्ट को बिना किसी बदलाव के जारी कर दिया गया।
सरकार द्वारा जुलाई 2017 और जून 2018 के बीच कराए गए सर्वे में कुछ और चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। और वह ये थे कि भारतीयों द्वारा 2012 के मुकाबले मासिक खर्च में काफी कमी आई थी। इसे महंगाई के साथ जोड़कर देखें तो मासिक खर्च 1501 रुपए से गिरकर 1446 रुपए पर आ गया था। जिस रिपोर्ट से यह तथ्य सामने आया उसी में कहा गया था कि बीते 50 साल में ऐसा कभी नहीं हुआ कि लोगों के उपभोग में ऐसी कमी आई हो, और इस कमी के चलते देश में गरीबी में 10 प्रतिशत का इजाफा हुआ।
इस रिपोर्ट में सबसे चिंताजनक आंकड़ा और रुख खाद्य उपभोग में कमी का था। इसके मुताबिक शहरों में भारतीयों द्वारा खाद्य उपभोग पर खर्च 2012 में हर माह के 943 रुपए के मुकाबले 2018 में भी यही था। यानी इसमें कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। लेकिन ग्रामीण इलाकों में यह आंकड़ा 2012 के 643 से घटकर 2018 में 580 रुपए पर पहुंच गया।
भारत में उपभोग पर आमतौर पर 3 प्रतिशत की बढ़ोतरी होती है। लेकिन 5 साल में इसमें करीब 20 प्रतिशत की कमी दर्ज हुई। यानी प्रगति के सालों में वर्षों की मेहनत पर पानी फिर गया। इस रिपोर्ट को एक कमेटी ने 19 जून 2019 को जारी करने की मंजूरी दे दी थी। लेकिन बेरोजगारी के आंकड़ों की तरह ही इसे भी न उस वक्त और न अभी तक जारी किया गया है। वैसे देश के एक पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग कर चुके हैं।
यही हाल नोटबंदी लागू करने का है, रिजर्व बैंक ने साफ तौर पर सरकार से कहा था कि यह बहुत गलत होगा और इसे लागू नहीं करना चाहिए। आरबीआई ने कहा था कि कालाधन तो अधिकतर सोने के रूप में जमा है न कि नकदी के रूप में, और मौजूदा करेंसी को अवैध घोषित करने से कालेधन पर कोई अंकुश नहीं लगेगा। उसने यह भी कहा था कि नोटबंदी का जीडीपी पर भी असर पड़ेगा क्योंकि सिर्फ 400 करोड़ रुपए की नकली करेंसी बाजार में होना कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि यह 18 लाख करोड़ की कुल नकदी का मात्र 0.02 प्रतिशत है।
लेकिन अपनी विपरीत राय के बावजूद आरबीआई को सरकार के इस फैसले पर मुहर लगानी पड़ी और फिर इसके बाद इसने उस बैठक के मिनट्स जारी करने से इनकार कर दिया जिसमें इस विषय पर चर्चा हुई थी। उस समय नोटबंदी की पूरी प्रक्रिया की जिस अधिकारी ने निगरानी की थी, वही आज रिजर्व बैंक के गवर्नर हैं। और इसी से वह तथ्य साबित हो जाता है। लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण संस्थानों की राय को, भले ही वे विपरीत हों, नहीं सुना जाना भविष्य के लिए हानिकारक हो सकता है।
(मध्यमत)
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