स्त्रियां शादी के बाद ‘सामाजिक पता’ बदलना क्यों नहीं चाहतीं?

अजय बोकिल

इन दिनों जहां भारत में ‘लव जिहाद’ को रोकने कानून लाने की बात चल रही है, वहीं जापान में ऐसा कानून बनाने पर बहस छिड़ी है, जिसके तहत वहां पत्नी को अब पति का उपनाम (सरनेम) लगाना अनिवार्य नहीं होगा। इसके पीछे तर्क यह है कि एक सरनेम रखने की वजह से पत्नी को ही  ज्यादातर मामलों में समझौता करना पड़ता है। जापान में पति-पत्नी का सरनेम एक ही रखने की कानूनी बाध्यता है। लेकिन देश के नए प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगो इस परंपरा को बदलने जा रहे हैं।

हालांकि जापान में ज्यादातर लोग अभी भी पत्नी द्वारा पति के सरनेम को अपनाने के पक्ष में हैं। अगर जापान में नया कानून बना तो उसका असर दूसरे देशों पर भी होगा। बात दूर तलक जाएगी। विवाह पश्चात महिलाओं का उपनाम अपरिवर्तित रखने के आग्रह के साथ-साथ पितृसत्तात्मक समाज के औचित्य पर भी सवाल उठेंगे। मामला और बढ़ा तो समूचे मानव समाज में परिवार संस्था की पुनर्संरचना की मांग भी उठ सकती है।

बहरहाल विचार का मुद्दा यही है कि महिलाओं को विवाह पश्चात अपना सरनेम बदलना क्यों जरूरी है? इसके क्या फायदे और नुकसान हैं? क्या यह कानूनी बाध्यता है या फिर केवल परंपरा का पालन और पारिवारिक एकात्मता का आग्रह है? और फिर पति के लिए ऐसा करना जरूरी क्यों नहीं है? साथ में यह भी कि यदि इस सदियों पुरानी परंपरा को बदला गया तो परिवार संस्था का अनुशासन किस रूप में कायम रहेगा, रहेगा भी या नहीं?

बेशक, उपनाम बदलना सामाजिक परंपरा और कुछ कानूनी दरकार तो है, लेकिन इसका कोई धार्मिक आग्रह नहीं है। उदाहरण के लिए हमें अपने देवताओं की पत्नियों के नाम तो मालूम हैं, लेकिन देवों से विवाह पश्चात उनके उपनाम भी बदले गए, इसकी जानकारी कहीं नहीं हैं। हिंदू धर्म में पति-पत्नी का सात जन्मों का सम्बन्ध तो है, लेकिन वो बदले उपनाम के साथ है, यह कहीं स्पष्ट नहीं होता। हिंदू पति विवाह में पत्नी को मंगलसूत्र तो पहनाता है, लेकिन उसका उपनाम बदलने का कोई वचन नहीं देता। हमारे यहां विवाह पश्चात पत्नी का गोत्र बदलता है, लेकिन उपनाम के बदलने के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। बाकी धर्मों में, जहां विवाह एक अनुबंध है,वहां भी उपनाम बदलना अनिवार्य शायद ही है।

तो फिर यह सिलसिला कब और क्यों शुरू हुआ? यानी महिलाओं के सरनेम बदलने के साथ यह भी दिलचस्प है कि सरनेम की शुरुआत कब हुई। यूं इसकी परंपरा बहुत पुरानी है। पुरातत्ववेत्ताओं ने बताया है कि ज्ञात इतिहास में दुनिया का सबसे पुराना सरनेम KATZ है। यह ईसापूर्व 1300 वर्ष पुराना है। इस उपनाम का व्यक्ति एक पुजारी था, जो यहूदियों के आराध्य मूसा के भाई आरोन का वंशज था। लेकिन उपनाम बदलने की विधिवत शुरुआत 1066 में इंग्लैंड पर नार्मन लोगों की विजय के साथ मानी जाती है। उन्होंने स्थानीय लोगों के नामों के साथ उनकी पहचान के लिए उनकी व्यवसायगत पहचान को भी जोड़ना शुरू कर दिया।

1215 में मैग्नाकार्टा चार्टर में इंग्लैंड में पति और पत्नी को एक इकाई मानकर दोनों का उपनाम एक ही रखने की परंपरा शुरू हुई। भारत में भी उपनाम रखने की परंपरा अंग्रेजों के जमाने में पुख्‍ता हुई, जब लोग बड़े पैमाने पर एक प्रांत से दूसरे प्रांतों में जाने लगे। तब पहचान के लिए नाम के साथ पिता का और जाति या गांव का नाम भी जोड़ा जाने लगा और फिर वही वंशानुगत हो गया। इसी से परिवार की प्रतिष्ठा, पहचान या व्यवसायगत विशिष्टता भी जुड़ गई।

दरअसल समाज में व्यक्तियों द्वारा सरनेम रखने के पीछे मनुष्य की बढ़ती आबादी और लोगों का स्थलांतरण बड़ा कारण है। जब जनसंख्या कम थी तब लोगों की पहचान उनके नाम या ज्यादा से ज्यादा पिता का नाम जोड़कर की जाती थी। लेकिन जब एक ही नाम के कई व्यक्ति होने लगे तो व्यक्तियों की अलग पहचान के लिए उपनाम जोड़ना भी जरूरी समझा गया। लेकिन महिलाओं को शादी के बाद उपनाम बदलना क्यों जरूरी हुआ?

जानकारों के मुताबिक इसके पीछे मुख्य कारण तो पूरे परिवार को एक मानने का आग्रह है। एक उपनाम से परिवार एक ईकाई की तरह प्रस्तुत होता है। यही उपनाम समाज में आपके परिवार की पहचान भी इंगित करता है। चूंकि पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री विवाह के बाद पति के घर जाती है, अत: वह पति और उसके ससुराल का उपनाम अपनाकर उसमें खुद को समाहित कर लेती है। इसमें कानूनी बाध्यता भले न हो, लेकिन पारिवारिक एकात्मता का आग्रह जरूर है।

हिंदू धर्म में तो कन्यादान एक संस्कार के रूप में है। इसके तहत पिता अपनी बेटी को उसके पति को ‘दान’ के रूप में सौंपता है। शायद इसीलिए नारीवादी विचारों और स्त्री की स्वतंत्र पहचान के शोर के बावजूद अधिकांश पत्नियां शादी के बाद अपने मायके का उपनाम त्यागकर पति का उपनाम स्वीकार कर लेती हैं। बावजूद इसके महिलाओं में यह चेतना भी जोर पकड़ रही है कि जब उन्हें उनके पिता से मिला सरनेम (यहां फिर वही पितृसत्तात्मकता का सवाल) शादी से पहले तक उनकी निजी, शैक्षणिक और व्यावसायिक पहचान रहता आया है, जिंदगी के कई आयाम उन्होंने इसी पहचान के बूते पर छुए हैं तो शादी के बाद वो इसे सिर्फ इसलिए क्यों त्याग दें कि उनके पति का उपनाम कुछ और है।

अर्थात यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला ज्यादा है। कई पत्नियों ने बीच का रास्ता यह निकाला है कि वो अपने पिता के सरनेम के साथ पति का सरनेम अतिरिक्त सरनेम के रूप में लगाती हैं। इससे उनकी विवाह पूर्व की और विवाह पश्चात दोनों पहचानें कायम रहती हैं। अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्टर्न ऑन्टैरियो के मेलैने मैकइकेरॉन का तर्क है कि महिलाएं अपना सरनेम इसलिए बदलती हैं ताकि वो अपने पति के प्रति वफादारी जाहिर कर सकें।

इस बात को वे विकासवादी परिकल्पना के जरिए समझाते हैं। जिसके तहत पति-पत्नी का एक सरनेम होने से उनकी भावी संतानों को पैतृक सम्पत्ति में हिस्सेदारी आसानी से मिल जाती है, जिससे उन्हें अपना जीवन सुखकर बनाने में मदद मिलती है। रिश्तों की वैधता और प्रामाणिकता भी कायम रहती है। एक उपनाम होने से परिवार के भीतर भी शेयरिंग को लेकर कई आसानियां हो जाती हैं। बच्चों व अभिभावकों में स्वत: एकसूत्रता स्थापित हो जाती है।

बदलते जमाने के साथ बहुत सी महिलाएं इस उपनाम परिवर्तन के कर्मकांड में भरोसा नहीं रखतीं। वे इसे अपनी मूल अस्मिता को मिटाने के रूप में देखती हैं। इस विचार के समर्थकों का मानना है कि विवाह पश्चात महिला के उपनामांतरण परिवर्तन की प्रथा समाप्त की जानी चाहिए, क्योंकि यह पुरुष यानी पति के पक्ष में झुकी हुई है। इसी सदंर्भ में पिछले दिनों ‘शादी डॉट कॉम’ की तरफ से किए गए एक सर्वे में अविवाहित महिलाओं में से 40.4 फीसदी ने कहा कि शादी के बाद वे अपना उपनाम नहीं बदलना चाहतीं।

जाहिर है कि सरनेम बदलना स्वैच्छिक है, लेकिन इसे न बदलने पर कई व्यावहारिक दिक्कतें भी हो सकती हैं। पहला सवाल तो ऐसे दंपती के बच्चों के सामने होगा कि वो कौन-सा सरनेम अपनाएं, अपने पिता का या माता के पिता का? अगर घर में सभी अपनी इच्छा से अलग-अलग सरनेम लिखने लगें तो परिवार में एक अलग किस्म की अराजकता और कानूनी पेचीदगियां पैदा हो सकती हैं, जिनमें वंशानुगतता, पै‍तृक सम्पत्ति में हिस्सेदारी, सामाजिक विरासत आदि शामिल हैं। और फिर घर में अलग-अलग उपनामों के कई लोग हुए तो वो एक परिवार कैसे कहलाएगा? उसे एक क्यों कर माना जाए? इसके अलावा एक सरनेम में अंतर्निहित गर्व बोध का क्या होगा?

इन सवालों के जवाब वाकई कठिन हैं। फिर भी जापानी प्रधानमंत्री सुगा के फैसले का समर्थन महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के खात्मे के लिए बनी संयुक्त राष्ट्र की समिति ने भी किया है। यह बात अलग है कि अधिकांश जापानी परंपरावादी हैं और खुद सुगा की पार्टी एलडीपी इस क्रांतिकारी विचार के ‍विरोध में है। जबकि विपक्षी दल इसके समर्थन में हैं।

इतना तो तय है कि समाज में उपनाम की अपनी महत्ता है। कुछ लोगों की राय में उपनाम वास्तव में एक ऐसा ‘टैग’ है, जो पूरे परिवार को एकसूत्र में बांधता है। यह इस बात की पावती है कि आपका नाम कुछ भी हो सकता है, लेकिन उपनाम स्थायी और अपरिवर्तनीय है। गुजरे जमाने में तो स्त्री की विवाहपूर्व पहचान मिटाने विवाह के बाद उसका नाम तक बदल दिया जाता था, लेकिन आजकल ऐसा अपवाद स्वरूप ही होता है। ज्यादातर महिलाएं विवाह के बाद नए सरनेम ब्रांड के साथ तो जीना चाहती हैं, लेकिन अपने पुराने सरनेम के ब्रांड की पहचान मिटाना भी नहीं चाहतीं।

दरअसल उपनामों का रिश्‍ता परिवार की परंपरा और विरासत से भी बहुत गहरा है। भारत में नेहरू, गांधी, बच्चन, कपूर आदि कुछ ऐसे उपनाम हैं, जिनका अपना आभामंडल है। कुछ जानकारों का मानना है कि सरनेम वास्तव में मनुष्य का ‘सामाजिक पता’ है, जिसके जरिए हमारे सामाजिक विश्व में आपकी ‘लोकेशन’ का पता चलता है। तो क्या महिलाएं अब विवाह के बाद अपने ‘सामाजिक पते’ को बदलना नहीं चाहतीं?

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