गांधी के अपने देश भारत में गांधीवाद हाशिए पर क्यों?

दीपक अग्निमित्र

30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या भले कर दी थी, लेकिन गांधी मरे नहीं थे, क्योंकि वे शरीर नहीं एक विचारपुंज थे। एक ऐसा विचार पुंज जिसमें समग्र लोक कल्याण के चिंतन और दर्शन का अमृत्व था। गांधीजी के देहावसान के साठवें वर्ष यानी 2 अक्टूबर (2007) को उनकी जयंती को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में घोषित किया था, तब एक बार फिर गांधी के अहिंसा और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की अवधारणा को दुनियाभर में प्रमाणिकता मिली। यह भारत और भारतनिष्ठ विचार की वैश्विक मान्यता का एक मूल्यवान क्षण था।

इससे पहले स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित और अमर भाषण दिया था, जो विश्वपटल पर भारत की समृद्ध और सर्वहितकारी अध्यात्म परंपरा की प्रतिष्ठा की अविस्मरणीय घटना थी। विश्व में भारतीयता की तीसरी स्थापना भारत के प्रधानंत्री नरेंद्र मोदी की पहल से 21 जून 2015 को विश्व मंच से हुई अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा मानी जा सकती है।

आइए लौटते हैं गांधी पर, भारतीय समाज के सामने सवाल यह है कि उदारीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर में गांधी के विचारों की हमें जरूरत है या गांधीवाद अब अप्रासंगिक हो चुका है? देश में अभी जो कुछ भी हो रहा है और चल रहा है, उससे ऐसा लगता है कि सब कुछ गांधी के विचारों के खिलाफ है। गांधीजी की स्वदेशी-स्वावलंबन, ग्रामीण अर्थव्यवस्था, सादा और सदाचारी जीवन की अवधारणा और नीतियों पर पूंजीवाद, आर्थिक उदारीकरण और उपभोक्तावाद हावी हो चुका है। स्वदेशी विकल्प होने के बावजूद लोगों में विदेशी उत्पादों (ब्रांडेड) का आकर्षण है।

अधिक आयात से देश के विदेश व्यापार में घाटा लगातार बढ़ रहा है। देश का ‘स्वावलंबन और स्वाभिमानी’ स्वभाव राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव जीतने के लिए दी जाने वाली ‘मुफ्तखोरी’ की बलि चढ़ता दिख रहा है। यह मुफ्तखोरी धीरे-धीरे देश की उत्पादकता को नपुंसक बना रही है। वहीं मीडिया द्वारा परोसी जा रही विषय-वस्तु से गांव-चौपाल गायब हो रहे हैं। गांव का आदमी भी शुद्ध और स्वाभिमानी जीवन छोड़ शहरों की प्रदूषित सड़कों पर हॉकर बनने में शान समझ रहा है।

अहिंसा और सहिष्णुता पर हिंसा और असहिष्णुता भारी है, कानून के शासन पर भीड़तंत्र हावी है। अनियंत्रित और उन्मादी समूह वैचारिक विरोधियों की नृशंस हत्याएं कर रहे हैं। आक्रोशित भीड़ एक छोटे से अपराध के लिए आदमी को मौत के घाट उतार रही है। गाय की कीमत पर आदमी की जान ली जा रही है। वहीं वैचारिक स्वतंत्रता की आड़ में स्वच्‍छंदता दिखाई जा रही है। शिक्षा के मंदिरों में भारत को खंड-खंड करने के शंखनाद हैं। कुल मिलाकर गांधीवाद हाशिए पर है, वह भी प्रतीकों में।

भारतीय सिनेमा ने जरूर कोशिश की, देश के जनमानस की चेतना में गांधी को पुनर्जीवित करने की। लेकिन दर्शक दर्शक ही बना रहा, मात्र मनोरंजन के भाव से परिवर्तनकारी फिल्म भी बे-असर रहीं। केतन मेहता की ‘सरदार’ (1993), श्याम बेनेगल की ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’ (1996), कमल हासन की ‘हे राम’ (2000), जाह्नू बरुआ की ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ (2005), अनिल कपूर की ‘गांधी, माय फादर’ (2007) और राजकुमार हीरानी की ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ (2010) फिल्में गांधी के विचारों के तानेबाने के साथ सिल्वर स्क्रीन पर आयीं, जो कि एक असरदार भारतीय जनमाध्यम है।

आम दर्शक को सबसे ज्यादा प्रभावित किया ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ ने। इस फिल्म की सफलता ने गांधीजी के ‘शांति और अहिंसा’ के विचार को आचरण में उतारने के लिए नया व्यवहारिक हथियार दिया ‘गांधीगिरी’। यह दरअसल देश में गांधीवाद का नया नाम था। एक-दो साल लोगों ने भी खूब गांधीगिरी की। व्यवस्था के प्रति अपने असंतोष, विरोध और अधिकार की मांग को गुलाब के फूल के माध्यम से प्रदर्शित किया। उम्मीद थी कि ‘गांधीगिरी’ नए भारत में विरोध का एक अहिंसात्मक,  सकारात्मक और ताकतवर हथियार बनेगा और जनता की आवाज को सत्याग्रह जैसा महत्व मिलेगा। लेकिन गुलाब के मुरझाने के अंतिम सत्य की तरह ही यह ‘गांधीगिरी’ भी अब मुरझा चुकी है, मॉब लिंचिग की घटनाएं इसे साबित करती हैं।

विश्व समाज ने भले ही भारत के मोहनदास करमचंद गांधी के विचारों को मान्यता दी हो, लेकिन गांधी के अपने देश भारत में गांधीवाद खुद हाशिए पर है। इसका घटनात्मक कारण वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीति हो सकता है, लेकिन इसे असली कारण मानना भूल होगी। देश की राजनीति में नैतिकता और दृष्टिपरकता का अवमूल्यन इसके पीछे का मूल कारण है। देश इस समय भौतिकतावादी विकास, उदार सोच और वैचारिक अतिवाद के झांसे में इठलाता दिखाई देता है और यही हाल विश्व समाज का भी है, क्योंकि इन्हीं प्रतिमानों का तो भारत में अनुसरण है।

विश्व में अनियंत्रित रुप से बढ़ती विशुद्ध व्यापार प्रवृत्ति और घातक हथियारों की उत्पादकता मानव जीवन के अस्तित्व पर ही सकट है। वहीं सारी दुनिया में एकाधिपत्यवादी हिंसक विचारधारा दुनिया की विविधतापूर्ण और बहुरंगी जीवन संस्कृतियों को चुनौती दे रही है। बढ़ती मानवीय असंवेदनशीलता अंतत: मानव समाज के अस्तित्व के लिए ही चुनौती खड़ी कर रही है, यह सभी की समझ में है। व्यावहारिक और सैद्धांतिक रूप से इस समस्या के उन्मूलन का एक ही मंत्र हो सकता है वह है शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और प्रकृति अनुकूल जीवन, जिसका व्यवहारिक दर्शन गांधीवाद में है।

आज के डिजीटल युग में गाय के अर्थशास्त्र और गांधी के दर्शन को भले पुरातनपंथी और अप्रासंगिक मान लिया जाए, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर इसे खारिज नहीं किया जा सकता। ऐसे में जब विश्व समाज महात्मा गांधी के विचारों को पढ़ समझ रहा है तो गांधी के देश भारत की जिम्मेदारी कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। कुछ कमियों, गलतियों और असफलताओं के रहते भी गांधीजी आज न केवल प्रासंगिक हैं अपितु आवश्यक भी हैं, न केवल भारत के लिए अपितु दुनिया के लिए। गांधी को मात्र स्वच्छता के प्रतीक के रूप में सीमित कर देना भी समझदारी नहीं है। आइए, समय है कि अब अमर गांधी के पुतले को राजनीतिक दलों से छीनकर पुनर्जीवित करें।

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