अजय बोकिल
भले यह राजनीतिक विरोध ही हो, लेकिन मप्र में भी किसानों और मंडीकर्मियों में असंतोष बढ़ता गया तो सरकार के लिए मुश्किल हो सकती है। कुछ लोग इसे प्रायोजित भी मान रहे हैं, लेकिन मामले की गंभीरता इसी बात से समझी जानी चाहिए कि मोदी सरकार द्वारा लाए गए ‘मॉडल मंडी एक्ट’ का विरोध आरएसएस से जु़ड़ा भारतीय किसान संघ भी कर रहा है। गुरुवार को हरियाणा में किसान ‘कृषि सुधारों’ के विरोध में सड़कों पर उतरे। इसके पहले तीन राज्यों में किसान विरोध प्रदर्शन कर चुके हैं।
यह आग और फैल सकती है। क्योंकि या तो किसानों को इस एक्ट की सही जानकारी नहीं है या फिर इसके सही लाभार्थी व्यापारी और वह कृषि कॉरपोरेट है, जो आज हमारे देश में खेती की किस्मत तय रहे हैं। इस अध्यादेश की जानकारी देते हुए केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि अब किसान अपने घर से उपज सीधे कंपनियों, प्रोसेसर, कृषक उत्पादक कंपनियों (एफपीओ) और सहकारी समितियों को भी बेच सकते हैं और एक बेहतर मूल्य प्राप्त कर सकते हैं। अब किसानों के पास विकल्प होगा कि वह किसे और किस दर पर अपनी उपज बेचे।
इस अर्थ में यह किसान को मनमाफिक भाव में अपनी उपज बेचने की आजादी है। लेकिन इस एक्ट के विरोधियों को आशंका है कि सरकार इन अध्यादेशों के जरिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की स्थापित व्यवस्था को ख़त्म कर रही है। ऐसे में उन्हें कॉरपोरेट के रहम पर जीना पड़ेगा। इसी मुद्दे को लेकर बीते जुलाई महीने में राजस्थान, हरियाणा और पंजाब के किसान भी प्रदर्शन कर चुके हैं। जबकि मोदी सरकार इन अध्यादेशों को ‘ऐतिहासिक कृषि सुधार’ बता रही है। उसका कहना है कि वे कृषि उपजों की बिक्री के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था बना रहे हैं।
पहले हम मोदी सरकार द्वारा पिछले दिनों जारी तीन अध्यादेशों को समझें। ये तीन अध्यादेश सरकार ने इस साल जून में पारित किए थे। ये किसानों को उपज का बेहतर मूल्य दिलाने और मार्केटिंग व्यवस्था में परिवर्तन से सम्बन्धित थे। इसे ‘एक राष्ट्र, एक कृषि बाजार’ का नाम दिया गया था। इसके तहत पहला संशोधन आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में था। इसके तहत देश में खाद्य पदार्थों की जमाखोरी पर प्रतिबंध हटा दिया गया। अर्थात अब व्यापारी असीमित मात्रा में अनाज, दालें, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू की जमाखोरी कर सकते हैं।
दूसरा है कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्द्धन और सुविधा) अध्यादेश, 2020 । इसका उद्देश्य कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी मंडियों) के बाहर भी कृषि उत्पाद बेचने और खरीदने की व्यवस्था तैयार करना है। तीसरा कानून है मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा अध्यादेश 2020 । यह कानून देश में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को कानूनी वैधता प्रदान करता है। ताकि बड़े बिजनेस हाउस और कंपनियां कॉन्ट्रैक्ट पर जमीन लेकर खेती कर सकें। इन प्रावधानों पर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय है। कुछ इसके समर्थन में हैं तो कुछ विरोध में है।
समर्थकों का मानना है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन एक सही कदम है। क्योंकि मूल रूप से ये एक्ट 1950 के दशक में लाया गया था, जब देश में भारी खाद्य संकट था। अब तो हम खाद्यान्न निर्यात भी कर रहे हैं, ऐसे में इमर्जेंसी को छोड़कर खाद्य पदार्थों की जमाखोरी पर कानूनन रोक का कोई औचित्य नहीं है। जबकि विरोधियों का मानना है कि इस बदलाव से केवल व्यापारियों और जमाखोरों को ही ज्यादा फायदा होगा। जमाखोरी पर नियंत्रण हटने से खाद्य वस्तुएं सस्ती नहीं होंगी।
सबसे ज्यादा विरोध कृषि उत्पाद बाजार समितियों (एपीएमसी) को खत्म करने का हो रहा है। इसके पीछे तर्क यह है कि इन समितियों के वजूद में होने से किसानों को उनकी उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के बराबर भाव मिल जाता था, जो नई व्यवस्था में नहीं मिलेगा। जिन राज्यों में एपीएमसी एक्ट लागू है, वहां इन मंडियो के बाहर किसान अपनी उपज बेच नहीं सकता। एपीएमसी के तहत देश में करीब साढ़े 6 हजार मंडियां बताई जाती है।
नए कानून के तहत इन मंडियों के बाहर उपज खरीद बिक्री पर कोई राज्य टैक्स नहीं लगेगा। जबकि एपीएमसी मंडियों में पूर्ववत टैक्स लगता रहेगा। ऐसे में पूरी संभावना है कि व्यापारी मंडियों से माल खरीदने की बजाए कहीं और से खरीदेंगे, लेकिन इससे कृषि मंडियों की आर्थिक कमर टूट जाएगी। व्यापारी मंडी टैक्स देंगे ही नहीं या फिर वहां फिर वहां माल खरीदेंगे, जहां टैक्स नहीं लगता। जैसे ही मंडियां खत्म हुई कि किसान व्यापारियों को बहुत सस्ते में या उनकी शर्तों पर उपज बेचने पर मजबूर होंगे।
इस बारे में कृषि मामलों के जानकार व लेखक योगेन्द्र यादव का कहना है कि किसानों का शोषण तो दोनों स्थितियों में होता है, लेकिन कृषि उपज मंडियों में प्रतिस्पर्द्धा के चलते कई बार किसानों को उपज का बेहतर भाव मिल जाता है। लेकिन यह बाजार अगर पूरी तरह व्यापारियों पर छोड़ दिया तो किसानों का शोषण और ज्यादा होगा। वैसे बिहार जैसे राज्य में एपीएमसी व्यवस्था 2006 में ही खत्म कर दी गई थी।
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इन प्रावधानों का वास्तविक लाभ उन्हें ही मिलेगा, जो बड़े किसान हैं, पढ़े-लिखे हैं, डिजीटल तकनीक से वाकिफ हैं और बाजार के खेल को अच्छी तरह समझते हैं। जबकि हकीकत यह है कि आज देश में ज्यादातर किसान सीमांत और मध्यम हैं तथा अधिकांश बहुत कम पढ़े लिखे हैं। जिनके पास परिवहन के संसाधन भी हैं। छोटे और मध्यम किसानों की इतनी क्षमता ही नहीं होती कि वो बेहतर मूल्य की आस में अपनी फसल को रोक सकें। उन्हें तो तुरंत पैसा चाहिए, अगली बुवाई के लिए और दूसरे कामों के लिए।
ज्यादातर मामलों में यही होता है कि व्यापारी किसानों से बहुत कम भाव पर माल खरीद लेते हैं और बाद में ऊंचे दाम में बेचते हैं। प्रांत से बाहर फसल बेचने में सबसे बड़ी परेशानी बेची गई उपज के जल्द भुगतान की भी है। अगर व्यापारी या खरीदी संस्था ने पैसा अटका दिया तो किसान किसके चक्कर लगाएगा। वैसे देश में किसानों की संख्या वास्तव में कितनी है, इसका भी कोई ठोस आंकड़ा नहीं है। नाबार्ड की एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक देश में 10.07 करोड़ परिवार खेती पर आश्रित हैं। नए मॉडल मंडी एक्ट के समर्थक प्रो. अशोक गुलाटी का मानना है कि एपीएमसी के बाहर कृषि उत्पाद बेचने की व्यवस्था से अब खरीददारों में प्रतिस्पर्धा उत्पन्न होगी, मंडी फीस में भी कमी आएगी।
उनके मुताबिक हमारे किसान उत्पादन से ज्यादा मार्केटिंग की समस्या से जूझते हैं। एपीएमसी का कृषि उपजों की खरीद पर एकाधिकार हो गया था। इस नए कानून से किसानों को अपनी उपज बेचने के और मौके मिलेंगे तथा उन्हें बेहतर दाम भी मिलेगा।’ हालांकि देविंदर शर्मा जैसे कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि जिसे ‘रिफार्म’ कहा जा रहा है, वह यूरोप में सालों से लागू है। बावजूद इसके वहां किसानों की आय घट गई है। परिणामस्वरूप सरकार को कृषि पर सबसिडी और बढ़ानी पड़ती है। फायदा व्यापारियों को ही होता है। वो सस्ते में उपज खरीदकर उपभोक्ता को महंगे दाम में बेचते हैं।
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग (अनुबंध खेती) को बढ़ावा देने के लिए लाए गए तीसरे अध्यादेश को लेकर भी विवाद है। सरकार कहती है कि इससे किसानों की आमदनी बढ़ेगी और उसके उत्पाद की बिक्री सुनिश्चित होगी। लेकिन कांट्रेक्ट फार्मिंग में भी कई खामियां बताई जाती हैं। कंपनियों ने फसलें उगाने के लिए पूर्व में करारनामे कर लिए और अंतत: किसान ही घाटे में रहे। नई व्यवस्था से कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा मिलेगा लेकिन असली किसान जहां का तहां रहेगा। क्योंकि फसल खराब हो जाने तथा पैदावार के बेहद कम मूल्य पर बेचने का फटका तो किसान को ही लगना है।
बीते कुछ वर्षों से मौसम के अनिश्चित व्यवहार ने किसान की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। कभी अतिवृष्टि, कभी अवर्षा तो कभी कीट प्रकोप ने खेती को दूभर कर दिया है। और यदि फसल अच्छी हो गई तो बाजार भाव धड़ाम से नीचे आ जाते हैं। ऐसे में वह क्या करे, सिवाय आत्महत्या के? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। नए प्रावधान में विवाद की स्थिति में उसे ‘समझौता मंडल’ या फिर उससे ऊंचे अफसर के यहां जाना होगा। उसकी अपनी व्यावहारिक दिक्कते हैं।
सवाल कई हैं, जिनके समाधान की जरूरत है। किसानों के मन में कई आशंकाएं है। सरकार किसानों को फसल बेचने के लिए कानूनी बंधन हटाना चाहती है, लेकिन यह कदम किसान के लिए सकारात्मक ही साबित होगा, यह कहना मुश्किल है। और कृषि उपज मंडियां बंद होंगी तो कृषि उपज के भाव नियंत्रण का प्रमुख माध्यम परिदृश्य से हट जाएगा। ऐसी एजेंसियों के मैदान से हटने पर शुरू में तो किसान को लाभ हो सकता है, लेकिन बाद में वही बात उसके लिए फंदा बन जाती है। किसान की असल समस्या उसकी उपज का सही और तुरंत मिलने वाला दाम है।
वैसे भी खेती के पीछे कॉरपोरेट के इतने बड़े खेल चल रहे हैं कि उनका असली चेहरा शायद ही सामने आता है या आने दिया जाता है। ‘कृषि सुधारों’ के खिलाफ किसानों की यह लड़ाई केवल एक कानून का विरोध भर नहीं है, बल्कि उन तत्वों का भी है, जो बदले कानून की आड़ में किसान को अपने ढंग से ट्रीट करना चाहते हैं। कृषि कारपोरेट की नीयत पर कई सवाल हैं। वह हमें हर तरह से परावलंबी बनाना चाहता है और कई मामलों में वह सफल होता जा रहा है। किसानों की लड़ाई इस बात का भी सूचक है।