पुस्‍तक समीक्षा

राग तेलंग

आदिवासी, वनवासी, आदिम जाति जैसे शब्द जनजाति के पर्यायवाची हैं, इन्हें देशज समाज भी कहा गया है। समय गुज़रने के साथ विश्व के अनेक भागों में रहने वाले उन आदिवासी समुदायों को ‘जनजाति’ कहा जाने लगा जो सांस्कृतिक दृष्टिकोण से तत्कालीन यूरोपीय समाजों की तुलना में अत्यंत पिछड़े हुए थे। यह अलहदा बात है कि इस परिभाषा को मैं संतोषप्रद नहीं मानता।

बीसवीं शताब्दी के मध्य में मानव विज्ञान की प्रामाणिक पुस्तक ‘नोट्स एंड क्वेरीज ऑन एंथ्रोपोलॉजी’ (यूरोप में प्रकाशित) के अनुसार जनजाति एक ऐसा मानव समुदाय है जो राजनीतिक या सामाजिकता के आधार पर स्वायत्त होता है और किसी एक भू-भाग में निवास करता है या दावा करता है। यहां राजनीतिक आधार सर्वस्वीकृति जरूर नहीं है और विशिष्ट भाषा और संस्कृति का पोषक होना ही कई विचारकों ने जनजातियों की विशेषता मानी है।

निश्चित ही मानव विज्ञान या नृतत्वशास्त्र या एन्थ्रोपोलॉजी दुनिया में एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में स्वीकृत है परंतु यह अफसोस की बात है कि इस लोकप्रिय विषय पर हिंदी में प्रामाणिक पुस्तकों की कमी है। उसका एक ही कारण समझ में आता है शोध और आंकड़ों का अभाव। हिंदी भाषा में जनजातियों पर श्री साकेत दुबे जी की पुस्तक एक अलग महत्व की है। मध्य भारत की प्रमुख जनजातियों जैसे कि मुंडा, उरांव, संथाल, हो, बिरहोर, सौरिया पहाड़िया, थारू, गोंड, भील, जौनसारी जैसी जनजातियों पर अध्ययन तो किया गया है, परंतु मध्य प्रदेश के पातालकोट (छिंदवाड़ा) की भारिया जनजाति पर संभवत: यह एक विरल पुस्तक है।

मानव के विकास क्रम का अध्ययन किये बिना उसके जनजाति स्वरूप और सभ्यता को समझना अधूरा है। दैनिक व्यवहार में भले ही हम उन्हें गंवार-पिछड़ा या पुरातन मान कर चलते हैं, मगर उनके जीवन को देखें तो प्रकृति से उनकी सीधी संबद्धता, जीवन मूल्य और परंपरा उन्हें एक ‘टोटल ऑर्गेनिक ह्यूमेन’ बनाते हैं, जिसकी चाह आधुनिक मनुष्य को भी है, वह भी बिना अपनी आधुनिकता को त्यागे। तथाकथित आधुनिक समाज की बुराइयों से दूर रहकर भी वे अपने आप को संरक्षित किए हुए हैं, बचाए हुए हैं, भले ही वे निरक्षर कहलाएं पर जीवन के प्रवाह में प्राणवान मूल्यों का ज्ञान जो उन्हें है उसके आगे सब कुछ फीका है, यहां तक कि विकास भी, आधुनिकता भी।

मनुष्य महाबली कैसे बना? यह जानना मानव की एक लंबी यात्रा को समझना है। यह समझना है मानव के इतिहास को व बदलते भूगोल को और म्यूटेशन, एडॉप्‍टेशन और इवॉल्यूशन की प्रक्रिया के विज्ञान को, साथ ही साथ अपने-आप को भी जानना है। मनुष्य के लिए बिना अपनी बहिर्यात्रा को जाने अंतर्यात्रा करना संभव नहीं। अध्ययन और अध्यापन की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है, जो विषय के शोध के विस्तृत फलक को संपूर्ण रूप में समेटे हुए है।

लेखक चूंकि राजनीतिक पत्रकारिता से संबद्ध रहे हैं तो लाज़िमी है कि वे जनजातियों के अवरुद्ध होते चले जाते विकास पर राजनीतिक दृष्टि डालते हैं और जायज सवाल उठाते हुए लेखकीय धर्म का निर्वाह करते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि नर्मदा घाटी सभ्यता जैसे प्रतीक्षित विषय पर वे कभी लिखेंगे और हम सबके सामने मध्यप्रदेश (और छत्तीसगढ़) की एक नई तस्वीर सामने आएगी।

विकास संवाद संस्थान, भोपाल, मध्यप्रदेश की मीडिया लेखन-2014 फैलोशिप के तहत प्रकाशित इस पुस्तक के सामने आने से भारिया जनजाति पर एक मानवीय मूल्यांकित प्रकाश दीप्त हुआ है, इस हेतु विकास संवाद संस्थान और लेखक के शोध कार्य में सहायक बने साथियों का अभिनंदन। साथ ही इस पुस्तक के रचनाकार लेखक-पत्रकार, संपादक श्री साकेत दुबे को अनेकानेक बधाइयां।

पुस्‍तक
वनवासी:समृद्ध संस्कृति के बावजूद जनजातियां आदिम क्यों!
लेखक: साकेत दुबे
प्रकाशन वर्ष:2022
प्रकाशक: आहना टाइम्स, होशंगाबाद, म.प्र . 461001
मूल्य:₹400

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