मंगलवार को मैंने इसी कॉलम में ‘चाणक्य नीति’ की बात की थी। संदर्भ महाराष्ट्र का था। आज भी संदर्भ महाराष्ट्र का ही है और बात भी ‘चाणक्य नीति’ से ही शुरू हो रही है। एक बार फिर कहा जा रहा है कि एनसीपी नेता और मराठा क्षत्रप शरद पवार, भाजपा अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह से बड़े ‘चाणक्य‘ साबित हुए। पवार की ‘चाणक्य नीति’ ने शाह की ‘चाणक्य नीति’ को पटखनी दे दी।
पर सवाल यह है कि महाराष्ट्र जैसा राजनीतिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य भाजपा के हाथ से कैसे निकल गया। या कि भाजपा ने महाराष्ट्र को अपने हाथ से जाने कैसे दिया? आप कह सकते हैं कि भाजपा ने तो हरसंभव जोड़तोड़ की लेकिन फिर भी बाजी उसके हाथ नहीं आई। लेकिन मुझे लगता है कि देश में इन दिनों राजनीतिक प्रबंध-कौशल और रणनीति के मामले में अव्वल मानी जाने वाली इस पार्टी ने महाराष्ट्र में गंभीर रणनीतिक चूक की और उसका नतीजा यह हुआ कि देश की आर्थिक गतिविधियों को संचालित करने वाला राज्य उसके हाथ से निकल गया।
शुरू से बात करें तो साथ रहने के बावजूद शिवसेना का भाजपा को समय समय पर आखें दिखाना या उसे चमकाना कोई नई बात नहीं थी। गठबंधन में भाजपा के साथ होने के बाद भी, शिवसेना ने महाराष्ट्र में खुद को जिंदा रखने के लिए जब भी मौका मिला आंखें तरेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पहले भी कई बार ऐसे मौके आए थे जब लगा था कि इन पार्टिेयों के रास्ते अलग अलग हो जाएंगे। लेकिन हिन्दूवादी विचारधारा को मानने वाली दोनों पार्टिंयों ने मतभेदों को टूट तक कभी नहीं जाने दिया।
यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि शिवसेना भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी है। करीब 30 साल पुरानी। और भाजपा के साथ रहने का फैसला शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे का था। राममंदिर आंदोलन से लेकर हिंदू और हिंदुत्व से जुड़े मसलों पर शिवसेना हमेशा भाजपा के साथ ही खड़ी नजर आई। बल्कि अयोध्या में ढांचा गिराए जाने के बाद, उसे गिराने का जिम्मा लेने का जो साहस भाजपा कभी नहीं दिखा सकी, वह साहस शिवसेना ने दिखाया था।
फिर क्या हुआ कि इस बार दोनों दलों के बीच तनाव इतना बढ़ा कि वह टूट के स्तर तक जा पहुंचा। या यूं कहें कि उसे टूट के स्तर तक पहुंचने दिया गया। ऐसा लगता है कि इसमें शिवसेना की अड़ीबाजी के साथ साथ भाजपा के अहंकार और अडि़यल रुख का भी बहुत बड़ा हाथ है। यह तो 24 अक्टूबर को चुनाव परिणाम आने के बाद ही साफ हो गया था कि राज्य में कोई भी दल अकेले अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। चुनाव पूर्व गठबंधन के लिहाज से भाजपा-शिवसेना गठबंधन के पास अवसर था कि वह फिर से अपने सरकार बना ले।
लेकिन जैसाकि खुद पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भी मंगलवार को अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, शिवसेना को जब लगा कि कोई भी दल अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है तो उनके सुर बदल गए और उन्होंने दबाव की राजनीति शुरू कर दी। अब यदि इसी को आधार मान लें तो भाजपा ने उस दबाव को समझदारी से सुलझाने के बजाय टकराव का रास्ता अपनाया और यहीं से बात बिगड़नी शुरू हो गई।
यह बात समझ से परे है कि, शिवसेना बागी हो गई है और वह अपनी मांग को लेकर किसी भी हद तक जाने को तैयार है, यह बात साफ साफ दिखाई देने के बावजूद, भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के किसी बड़े नेता ने आगे आकर सक्रियता से मामला सुलझाने की कोशिश नहीं की। सारा मामला देवेंद्र फडणवीस और स्थानीय नेताओं के भरोसे छोड़ दिया गया। जब संजय राउत रोज सामना में आग उगल रहे थे तब यह सभी को समझ में आ रहा था कि इस बार ‘टाइगर’ सिर्फ गुर्रा या आंख ही नहीं दिखा रहा है, वह काट भी सकता है। इसके बावजूद न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने और न ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने आगे बढ़कर उद्धव ठाकरे से सीधे बात करने या मामले को ठंडा करने की कोशिश की हो ऐसा कहीं लगा ही नहीं।
होता या नहीं होता यह पक्के तौर पर तो नहीं कहा जा सकता पर मुझे लगता है कि यदि मोदी और शाह इस मामले में सीधे हस्तक्षेप करते तो बात को बिगड़ने से बचाने की संभावना बन सकती थी। बीच में एक बात राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हस्तक्षेप की भी चली थी। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने एक कार्यक्रम में परोक्ष रूप से कहा भी था कि-‘’सब जानते हैं कि आपस में झगड़ा करने से दोनों की हानि होती है लेकिन आपस में झगड़ा करने की बात अभी तक बंद नहीं हुई है।‘’ प्रकृति और मनुष्य के संबंधों को लेकर कही गई इस बात को भाजपा-शिवसेना की टकराहट से जोड़कर देखा गया था लेकिन उसका असर दोनों दलों के रवैये पर नहीं दिखा।
कुल मिलाकर भाजपा ने अपने नाराज सहयोगी की मान मनौवल के बजाय जोड़तोड़ के अपने सामर्थ्य पर अधिक भरोसा किया और गठबंधन को टूट जाने दिया। भाजपा ने एक गलती और की। उसने उस व्यक्ति को भी हलके में लिया जिससे इस बार जोड़तोड़ में उसका पाला पड़ने वाला था। वह व्यक्ति थे शरद पवार। घटनाओं को ध्यान से देखें तो आप पाएंगे कि महाराष्ट्र में पवार ने भाजपा को उन्हीं हथियारों और तौर तरीकों से मात दी जिन तरीकों को अपनाकर भाजपा अब तक कई राज्यों में बहुमत न मिलने के बावजूद सरकार बना चुकी थी।
पवार शिवसेना के साथ मिलकर सरकार के गठन की रणनीति पर काम भी करते रहे और मीडिया के सामने यह बयान भी देते रहे कि हमें तो विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है, सरकार बनाने की बात तो भाजपा और शिवसेना से पूछिये। एक तरफ उनके नेता शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की मिलीजुली सरकार के लिए कॉमन मिनिमम प्रोग्राम पर बात कर रहे थे, तो दूसरी तरफ पवार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद बाहर आकर कह रहे थे कि महाराष्ट्र को लेकर उनकी सोनियाजी से कोई बात नहीं हुई। इसी बीच वे प्रधानमंत्री मोदी से भी मिल लिए और कयासों को और हवा दे दी।
खेल देखिये कि एक तरफ मोदी और शाह उद्धव से बात तक नहीं कर रहे थे और दूसरी तरफ शरद पवार बागी हो चुके अपने भतीजे अजीत पवार को मनाने और अपने खेमे में फिर लौटा लाने की कोई सूरत नहीं छोड़ रहे थे। होटल हयात की परेड में वे अजीत पर कार्रवाई की धमकी भी दे रहे थे और अगले दिन छगन भुजबल और प्रफुल्ल पटेल जैसे बड़े नेताओं को अजीत को मनाने के लिए भी भेज रहे थे।
दरअसल यह पूरा खेल ‘राजनीति के अनुभव’ और ‘अनुभव की राजनीति’ के बीच था। जिसमें अनुभव की राजनीति की जीत हुई और अहंकार की राजनीति की हार…