सरकारी तंत्र पर अकसर यह आरोप लगता है कि वहां लोग काम नहीं करते। सरकारी दफ्तरों में फाइलें हों या अदालतों में चल रहे मामले, बरसों बरस लटके रहते हैं और उस मशहूर फिल्मी डायलॉग की तर्ज पर सिर्फ तारीख पर तारीख लगती रहती है, लोग काम पूरा होने का इंतजार ही करते रहते हैं।
श्रीलाल शुक्ल ने अपने उपन्यास ‘राग दरबारी’ में सरकारी दफ्तरों के ऐसे ही हालात को ‘लंगड’ नाम के एक पात्र के जरिए बखूबी बयां किया है। उसे तहसील से एक नकल निकलवाने के लिए जाने कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं और नकल फिर भी नहीं मिलती। बाबू की जिद होती है कि वह रिश्वत लेकर ही काम करेगा और लंगड़ की जिद होती है कि बिना रिश्वत के काम करवाऊंगा।
उपन्यास के अंत तक यह पता नहीं चल पाता कि इनमें से आखिर जीत किसकी होती है क्योंकि श्रीलाल शुक्ल ने इस ‘सत्त की लड़ाई’ का परिणाम नहीं बताया। उसमें केवल इतना भर दर्ज है कि लंगड़ अंत तक नकल पाने के लिए जद्दोजहद करता रहा। उसने ठान लिया था कि रिश्वत के दो रुपए नहीं देगा तो नहीं देगा और बाबू ने ठान लिया था कि दो रुपए नहीं मिले तो लंगड़ को नकल नहीं, हर कदम पर अड़ंगा मिलेगा।
आजाद भारत में, राग दरबारी लिखे जाने के 50 साल बाद, सरकारी कामकाज और सरकारी कारिंदों की एक दिलचस्प परिभाषा और वर्गीकरण सामने आया है। केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने फरमाया है कि काम न करने वाले ‘ईमानदार’ अधिकारियों से तो काम करने वाले ‘बेईमान’ अधिकारी अच्छे हैं।
उमा भारती शनिवार को राजधानी में आयोजित राज्य स्तरीय स्वच्छता सम्मेलन में भाग लेने आई थीं। उसी सम्मेलन में अपने भाषण के दौरान उन्होंने नौकरशाही पर निशाना साधा। उमा ने कहा- ‘’आईएएस-आईपीएस अधिकारियों को काम नहीं करना होता तो कह देते हैं कि होगा ही नहीं। कुछ अधिकारी तो कहते हैं कि मैं ईमानदार हूं ये काम नहीं कर सकता, वो काम नहीं कर सकता। अरे इन अधिकारियों से अच्छे तो बेईमान अधिकारी हैं जो कम से कम काम तो करते हैं।‘’
यह सनसनीखेज बयान दे चुकने के बाद उन्होंने यह भी जोड़ा कि हमारे साथ काम करने के बाद ‘बेईमान अधिकारी’ भी ‘ईमानदार’ हो जाते हैं। हालांकि इस बात का उन्होंने ज्यादा खुलासा नहीं किया कि ‘हमारे’ से उनका आशय क्या है। क्या वे ऐसा कहकर स्वयं की ओर इशारा कर रही हैं या फिर समूची भाजपा और उसकी सरकार की ओर…
वैसे यदि यह आशय वर्तमान भाजपा सरकार से है तो हर कोई जानना चाहेगा कि आखिर इस सरकार के पास वो कौनसा ‘पारस’ पत्थर है जिसके स्पर्श मात्र से बेईमान अफसर, ईमानदार हो जाते हैं। और सचमुच में ऐसा कोई पत्थर यदि है तो भाजपा उसके व्यापक इस्तेमाल से परहेज क्यों कर रही है, यदि वह चौतरफा उसका भरपूर इस्तेमाल करे तो देश के सारे नौकरशाह ईमानदार हो जाएंगे।
अभी तो हालात कुछ और ही कहते हैं। आज भी सरकारी दफ्तरों में काम और उसके होने के बीच, ज्यादातर मामलों में वही ‘लंगड़-बाबू’ संबंध दिखता है, जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया। जब तक कागज पर ‘वजन’ नहीं रखा जाता, वह दफ्तर में इधर से उधर उड़ता ही रहता है। उसे फाइल पर टिकाए रखने के लिए ‘वजन’रखना जरूरी होता है।
उमा भारती के बयान से जो बहस जन्म लेती है, वो ये कि हमें काम न करने वाले और सिर्फ फाइलों को इधर से उधर टहलाने वाले अफसर चाहिएं या फिर समय पर काम करने और परिणाम देने वाले अफसर। इसमें पेंच सिर्फ इतना है कि अफसर ‘ईमानदार’ होगा तो काम नहीं होगा और काम कराना है तो ‘बेईमानी’का नमक तो आटे में डालना ही पड़ेगा।
इस खबर को देखने के दौरान ही अखबारों के पन्ने पलटते हुए मेरी नजर दफ्तरों में कामकाज की स्थिति से जुडी एक और खबर पर पड़ी। वह खबर कहती है कि भारतीय लोग काम करने के मामले में तो तेज हैं लेकिन वे काम को अधूरा छोड़ देते हैं। एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वे के मुताबिक यूएई के लोग काम करने में सबसे सुस्त हैं, जबकि चेक गणराज्य के लोग काम पूरा करने के मामले में सबसे ऊपर हैं।
यह सर्वे कहता है कि काम करने की गति के लिहाज से भारतीयों को कार्य पूर्ण करने में औसत 15.4 दिन का समय लगता है। जबकि पेरू के लोग सबसे कम 10.2 दिन और यूएई के लोग सबसे अधिक 23.8 दिन का समय लेते हैं। इस मामले में चीन 13.4 दिन के औसत के साथ दूसरे नंबर पर है। खास बात यह है कि इस सूची में अमेरिका, ब्राजील, जापान और जर्मनी भारत से पीछे हैं।
इसी तरह कार्य को पूर्ण कर लेने के लिहाज से देखें तो चेक गणराज्य के लोग 85 फीसदी काम पूरा कर लेते हैं। जबकि भारत सूची में 60 फीसदी के आंकड़े के साथ नीचे से दूसरे नंबर पर है। उसके बाद 59.3 फीसदी वाले रूस का नंबर है। चीन अकेला ऐसा देश है जहां लोगों के काम करने की गति और काम पूर्ण करने का प्रतिशत दोनों बहुत अच्छे हैं।
यानी वैश्विक रूप से हुआ सर्वे भी भारतीयों के बारे में कहता है कि हम काम करने की गति और काम पूर्ण करने के प्रतिशत दोनों ही मामलों में औसत दर्जे पर आते हैं। लेकिन इस सर्वे को मैं यदि उमा भारती के बयान से जोड़कर देखूं तो मुझे लगता है बात को कुछ अलग ढंग से कहने की जरूरत पड़ेगी।
मुझे यह तो नहीं पता कि विश्व में काम की गति और काम को पूरा करने की क्षमता का सर्वे करने वालों ने भारत की ‘ईमानदार’ और ‘बेईमान’ व्यवस्था को ध्यान में रखा या नहीं। पर मुझे पूरा विश्वास है कि हमारी नौकरशाही के घोड़ों को थोड़ा हरा और ताजा चारा खिलाकर यह सर्वे कराया जाए तो निश्चित रूप से हमें काम की गति और काम की पूर्णता, दोनों ही मामलों में कोई नहीं पछाड़ सकता।
शायद आप भी मेरी इस बात से सहमत होंगे…