एक पखवाड़ा मौत के साथ- 14
अब हमारे पास सवाल ही सवाल थे और जवाब किसी के पास नहीं था। जब मैं घर पहुंचा तो ममता के पति राम ने रिपोर्ट दिखाते हुए नश्तर की तरह सवाल किया- ‘’ये रिपोर्ट तो कहती है कि उसको रेबीज था ही नहीं, यदि रेबीज नहीं था तो फिर क्या था? वो लोग इलाज किसका करते रहे। क्यों उसको आइसोलेशन में डालकर रखा…’’
राम की सूनी आंखों में सवाल खत्म होने का नाम नहीं ले रहे थे। यही हाल परिवार के बाकी सदस्यों का भी था। ‘’उन्होंने तो पहले दिन से ही उसे रेबीज का मरीज घोषित कर पटक दिया था। रेबीज का मरीज हालत बिगड़ने पर आक्रामक हो जाता है, इस बात का डर दिखते हुए उसे इस कदर बेहोशी की दवाएं दीं कि वह होश में आ ही नहीं सकी।‘’
यदि रेबीज नही था तो उसे हमसे दूर क्यों रखा गया? हम उसे छूने से भी डर रहे थे, उसके अंतिम संस्कार की क्रियाएं भी हमने आधी अधूरी और डरते सहमते की… डॉक्टर तो बार बार कह रहे थे कि वे NIMHNS बेंगलुरू द्वारा तय किए गए प्रोटोकॉल का ही पालन कर रहे हैं। अब तो बेंगलुरू वाले ही कह रहे हैं कि रेबीज नहीं पाया गया…’’
‘’क्या हमारे साथ धोखा हुआ? क्या हमने उसे जीते जी मार दिया? यदि उसे रेबीज का पेशेंट मानकर नीम बेहोशी में नहीं डाला होता तो शायद वह बच सकती थी। उन्होंने तो इतनी सारी दवाएं देकर रोग से लड़ने की उसकी ताकत ही खत्म कर दी थी। आखिरी समय न हम उससे कुछ कह पाए और न वह हमसे कुछ बोल सकी…’’
परिवार वालों के सवाल ही नहीं थम रहे थे। उनका गुस्सा और क्षोभ बिलकुल वाजिब था। जब खुद डॉक्टरों ने इतनी सारी जांचें यह कहते हुए करवाई थीं कि इन्हीं से कन्फर्म हो सकेगा कि ममता को रेबीज है या नहीं तो अब कौन है जो बताए कि सही कौन और गलत कौन? बेंगलुरू वालों ने तो सबसे पहले लार की रिपोर्ट में भी रेबीज निगेटिव बताया था।
लार की रिपोर्ट आने के बाद डॉक्टरों ने कहा था कि इससे कोई निष्कर्ष मत निकालिए, रेबीज का असली पता तो सीएसएफ की रिपोर्ट में चलेगा। सीएसएफ की पहली रिपोर्ट में थोड़ी बहुत एंटीबॉडी मिलने पर रेबीज कन्फर्म बतर दिया गया था। लेकिन उसके साथ ही यह भी जोड़ दिया गया था कि पक्का पता तो ऐसी तीन जांचों के बाद ही चलता है, यदि बाद की जांचों में एंटीबॉडी की संख्या बढ़ती है तभी माना जाएगा कि रेबीज पक्का है।
लेकिन अब बाद की दोनों रिपोर्ट को तो खुद NIMHNS वाले ही निगेटिव बता रहे थे। यानी उनके हिसाब से ममता को रेबीज की आशंका नहीं थी। तो फिर ममता को हुआ क्या था? हमने उसे न्यूरोलॉजिस्ट को भी दिखाया था और उन्होंने भी पहले बल्बर पॉल्सी या गुलैन बेरी सिंड्रोम की आशंका जताई थी। बाद में वे भी रेबीज की लाइन पर चलने लगे थे। चूंकि ममता को पानी निगलने में दिक्कत थी इसलिए हमने ईएनटी वाले को भी दिखाने को कहा था, जिसने कोई स्पष्ट अभिमत नहीं दिया था।
कुल मिलाकर हमारे सामने भारी कन्फ्यूजन की स्थिति थी। मैंने अपने परिचित डॉक्टरों को वह रिपोर्ट भेजी। उनमें से एक ने सिर्फ इतना कहा- ‘’हां, मैंने रिपोर्ट देखी…’’ दूसरे डॉक्टर का जवाब आया- ‘’मैं बस इतना ही कह सकता हूं कि मेडिकल साइंस को इन बीमारियों पर और अधिक रिसर्च करने की जरूरत है।‘’
कुछ डॉक्टरों का कहना था कि रिपोर्ट तो एक सहारा होती है जो हमें अपने ऑब्जर्वेशन में मदद करती है। ममता के बाकी सारे साइन तो रेबीज के ही थे। उसके साथ डॉग बाइट की हिस्ट्री भी थी। उसने कुत्ता काटने के बाद इंजेक्शन भी नहीं लगवाया था। हाइड्रोफोबिया के लक्षण उसमें दिखने लगे थे। ऐसे में उसे रेबीज होने से इन्कार नहीं किया जा सकता। जांच रिपोर्टों के साथ क्लीनिकल ऑब्जर्वेशन भी बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
अब पता नहीं डॉक्टर सही बोल रहे थे या गलत या फिर यह सब मरीजों के साथ हमेशा से हो रहे खिलवाड़ के गोरखधंधे का हिस्सा था…!! वैसे चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों ने ऐसे हर मामले में अपनी बचत के इंतजाम पहले ही कर रखे हैं। ‘क्लीनिकल ऑब्जर्वेशन’ पर उंगली उठे तो ‘जांच रिपोर्टों’ का सहारा ले लो और अनाप शनाप खर्चा करवाने वाली ‘रिपोर्टों’ पर आंच आने लगे तो ‘क्लीनिकल ऑब्जर्वेशन’ की ढाल सामने कर दो।
शायद यही कारण था कि NIMHNS बेंगलुरू ने भी रेबीज को नकारने वाली रिपोर्ट के साथ यह वाक्य नत्थी कर दिया था कि- Please note that these test results can not rule out a diagnosis of Rabies completely. Please correlate clinically. यानी चित और पट दोनों डॉक्टर की, अंटा तो पहले से ही उसकी जेब में डला है।
और चलिए, मैं तो इस स्थिति को एक बार मंजूर भी कर लूं। मैं यह भी मान सकता हूं कि इतने सारे डॉक्टर एकसाथ झूठ नहीं बोल रहे होंगे। ममता के साथ डॉग बाइट की हिस्ट्री भी थी और यह भी सच था कि उसने एंटीरेबीज इंजेक्शन भी नहीं लगवाया था। इसलिए डॉक्टरों के पास अपनी बात को ‘जस्टिफाई’ करने की पूरी गुंजाइश है कि उसकी मौत का कारण रेबीज ही है। लेकिन एक साधारण व्यक्ति को आप यह सब कैसे समझाएंगे? वह किस पर भरोसा करे, डॉक्टर पर या रिपोर्ट पर?
डॉक्टरों या मेडिकल साइंस के पास इस सवाल का क्या जवाब है कि जिस तरह वे मान रहे थे कि ममता को रेबीज है, उसी तरह यदि बेंगलुरू की रिपोर्ट को देखते हुए परिवार वाले यह मान लें कि उसे रेबीज था ही नहीं और डॉक्टरों ने रेबीज बताकर उसे मार डाला, तो क्या हो? जब तक यह रिपोर्ट नहीं आई थी वे मान रहे थे कि ममता की जान रेबीज ने ही ली है, लेकिन रिपोर्ट आने के बाद उनके मन को कौन समझाए? किसी अपने के असमय चले जाने का दर्द तो उन्हें है ही, उसके साथ ही अब उन्हें जीवन भर यह दर्द लेकर भी जीना होगा कि क्या सचमुच ममता को वह बीमारी थी जिसकी आशंका में हमने उसे मरने दिया…
इस दर्द, इस पीड़ा की भरपाई कौन करेगा…
कल पढ़ें- ममता की कहानी के सबक क्या हैं?