पिछले साल नवंबर माह में टीकमगढ़ जिले में पुलिस ने कुछ प्रदर्शनकारी किसानों को थाने में लाकर उन्हें अधनंगा करके पीटा था। ये किसान, नेता प्रतिपक्ष की रैली में शामिल हुए थे और अपनी मांगों को लेकर कलेक्टर को ज्ञापन देना चाहते थे। कलेक्टर मिलने नहीं आए और मामला बिगड़ गया। जिसका नतीजा पथराव और लाठीचार्ज में निकला।
किसानों को थाने में लाकर उनके कपड़े उतरवाकर की गई पिटाई के इस मामले ने काफी तूल पकड़ा था और सरकार ने इसकी जांच के आदेश भी दिए थे। उस जांच का क्या हुआ यह तो मुझे मालूम नहीं चल सका, लेकिन उस समय मैंने इसी कॉलम में एक मुद्दा उठाया था कि मध्यप्रदेश में यदि आप विपक्षी पार्टी कांग्रेस के सदस्य हैं तो कृपया खेती किसानी से दूर रहें और यदि खेती किसानी कर रहे हैं तो कांग्रेसी बनने की हिमाकत न करें।
वह टिप्पणी मैंने राजनीतिक संदर्भों में की थी, क्योंकि प्रदर्शन करने वाले किसानों के बारे में कहा गया था कि वे सब कांग्रेसी थे और माहौल को बिगाड़ना चाहते थे। अपनी मांग उठाने वाले ऐसे ही कुछ किसानों को मंदसौर कांड में भी कांग्रेसी बताते हुए आरोप जड़ा गया था कि किसानों की आड़ में कांग्रेस के कार्यकर्ता गुंडागर्दी कर सरकार को बदनाम कर रहे हैं।
किसानों को कांग्रेसी बताने वाली वह घटना मुझे सोमवार को एक खबर देखकर याद आई। उस खबर से मेरी यह धारणा पुष्ट हुई कि मध्यप्रदेश में किसानी केवल भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता अथवा पार्टी से किसी न किसी रूप में जुड़े लोग या फिर मंत्रियों के नाते रिश्तेदार ही कर रहे हैं। लगातार हो रही किसानों की आत्महत्याओं के बीच ये ही लोग ऐसे हैं जो सही मायने में प्रगतिशील किसान हैं और खेती किसानी को लेकर नए नए प्रयोग भी कर रहे हैं। बाकी लोग या तो कांग्रेस के गुंडे हैं या असामाजिक तत्व।
ऐसा मैंने इसलिए कहा क्योंकि जिस खबर का मैं जिक्र कर रहा हूं वह कहती है कि सरकार की विशेष योजना के तहत विदेश जाकर आधुनिक और प्रगतिशील खेती के तौर तरीके सीखने के लिए जिन लोगों के नाम तय हुए उनमें या तो भाजपा के पदाधिकारी या मंत्रियों के नाते रिश्तेदार हैं या फिर इन्हीं से जुड़े लोग। सरकार को प्रदेश में ऐसे गैर भाजपाई लोग या तो दिखे ही नहीं या फिर उन्हें देखा ही नहीं गया जो भाजपा से जुड़े न होने के बावजूद खेती किसानी करने और खेती के नए नए तौर तरीके अपनाने का दुस्साहस कर रहे हैं।
दरअसल मध्यप्रदेश में उन्नत खेती को बढ़ावा देने के लिए जो नीति बनाई गई है उसके तहत विदेश जाकर खेती किसानी के नए नए तौर तरीके सीखने वाले किसानों को सरकार ऐसी यात्राओं के लिए सबसिडी देती है। सामान्य श्रेणी के किसानों के लिए यह सबसिडी 50 फीसद, अनुसूचित जाति व जनजाति के किसानों के लिए 75 फीसद और छोटे किसानों के लिए 90 फीसद है।
अब इसे सरकार का दबाव कहिये या फिर सत्तारूढ़ दल के लिए अफसरों की अतिरिक्त उदारता कि ऐसी विदेश यात्राओं के लिए सबसिडी पाने वालों में सत्ता दल से जुड़े लोगों की ही भरमार है। बजाय उन किसानों के जो ऐसे दौरों का हिस्सा बनकर खुद भी लाभान्वित हो सकते थे और प्रदेश को भी उसका फायदा मिल सकता था। लेकिन ऐसे लोगों को मौका नहीं मिल सका।
वैसे पहले भी जो लोग किसानों के नाम पर या किसान बनकर विदेश दौरों पर भेजे गए हैं, उन्होंने उन विदेश यात्राओं का ज्यादातर सैर सपाटे के लिए ही उपयोग किया। ऐसी यात्राओं से प्रदेश की खेती किसानी को कोई खास लाभ नहीं हो सका। मध्यप्रदेश लौटने के बाद इन कथित किसानों ने अपने खेतों में भले ही प्रयोग किए हों या कोई आधुनिक तकनीक अपनाई हो लेकिन सामान्य किसानों को उनके अनुभव का कोई व्यापक लाभ मिला हो ऐसा दिखाई तो नहीं देता।
मध्यप्रदेश सरकार का पिछले कई सालों से खेती किसानी पर बहुत जोर रहा है। राज्य सरकार ने इस लिहाज से किसानों के लिए कई अभिनव योजनाएं शुरू की हैं। हाल ही में किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य दिलाने के लिए देश में पहली बार भावांतर भुगतान योजना लागू की गई है। किसानों को उन्नत खेती के लिए विदेश भेजने का निर्णय भी इसी भावना के तहत उठाया गया था।
अपेक्षा यह थी कि राज्य के प्रगतिशील किसान संबंधित देश में जाकर वहां खेती, उद्यानिकी, डेयरी और पशुपालन आदि के आधुनिक तौर तरीके सीखेंगे और बाद में यहां आकर उन तौर तरीकों के इस्तेमाल से प्रदेश के कृषि, उद्यानिकी व पशुपालन जैसे क्षेत्रों को मजबूत एवं अधिक उत्पादक बनाने का प्रयास करेंगे। लेकिन ऐसी सारी विदेश यात्राएं ‘राजनीतिक पर्यटन’ बनकर रह गईं।
जब इस बारे में सरकार के प्रतिनिधियों और अफसरों से पूछा गया तो उनका जवाब था कि विदेश भेजे जाने वाले दल में सिर्फ खेती किसानी से जुड़े लोग ही शामिल किए जाते हैं। जो प्रक्रिया तय की गई है उसके तहत ऐसे दल में जाने वालों को आवेदन करना होता है और इस आवेदन की तीन स्तर पर समीक्षा होती है। पहले जिला कलेक्टर इसे देखता है, फिर कृषि संचालक और बाद में कृषि उत्पादन आयुक्त का दफ्तर।
सरकार का यह भी कहना है कि यह कोई मुफ्त में कराई जाने वाली यात्रा नहीं है बल्कि इसमें भागीदार को सबसिडी भर दी जाती है, उसे कुछ भाग अपने पास से वहन करना होता है, ऐसे में जितने आवेदन आते हैं उन्हीं में से नाम तय किए जाते हैं। लेकिन ऐसे दौरों में सत्तारूढ़ दल से जुड़े नेताओं और उन्हीं के परिजनों की भरमार होने पर अफसरों ने सिर्फ इतना ही कहा कि यह योजना किसानों के लिए हैं।
तो यहां फिर वही सवाल सामने आकर खड़ा हो जाता है कि या तो प्रदेश में और किसी भी पार्टी में खेती किसानी करने वाले लोग नहीं हैं या फिर प्रदेश को खेती का सिरमौर सिर्फ सत्तारूढ़ दल के लोग ही बना रहे हैं। ऐसे में फिर उस बेचारे असली किसान को कौन पूछे जो उन्नत खेती तो छोडि़ए, परंपरागत खेती भी ठीक से नहीं कर पा रहा…
क्या आपको नहीं लगता कि भले ही यह यात्रा मुफ्त में न कराई जा रही हो लेकिन सबसिडी के तौर पर प्रदेश के खजाने से जो राशि इसके लिए दी जा रही है उसकी जवाबदेही भी तय होनी चाहिए। क्या प्रदेश की जनता को पूरी पारदर्शिता के साथ यह नहीं बताया जाना चाहिए कि ऐसे दौरों का राज्य को और यहां के आम किसान को क्या और कितना लाभ मिला?