इलाज किसका? बीमार का या अस्‍पताल की जेब का…

एक पखवाड़ा मौत के साथ-4

‘सिद्धांता रेडक्रास’ में ममता को दाखिल किए जाने से पहले मेडिकल तौर पर कहानी पूरी पक चुकी थी। वहां आईसीयू में मौजूद डॉ. ज्‍योति और उनकी एक सहयोगी डॉक्‍टर ने भी उसी लाइन को आगे बढ़ाया जो बंसल अस्‍पताल और हमीदिया में खींची जा चुकी थीं। यानी पेशेंट को ‘रेबीज’ है और दुनिया में इसका कोई इलाज नहीं है।

हमने सारी उम्‍मीदों को चकनाचूर कर देने वाली इस सूचना को मंजूर करते हुए, कि ऐसे मरीज अधिक से अधिक दस से बारह दिन ही जिंदा रह पाते हैं, ममता को वहां रखने की स्‍वीकृति दी। आप सोचिए उस परिवार के बारे में जो घोषित कर दी गई मौत की तारीख के बावजूद टिमटिमाती हुई उम्‍मीद पर नजरें टिकाए किसी चमत्‍कार की उम्‍मीद में बैठा हो।

त्रासदी देखिए कि हम उन्‍हीं डॉक्‍टरों और उसी मेडिकल तंत्र पर भरोसा करने को मजबूर थे जो पहले ही कह चुका था कि यह मरीज दस से बारह दिन ही जी पाएगा। खैर… हमसे कहा गया कि हम कागजी खानापूरी कर दें। जाहिर है इस खानापूरी में एक बड़ी राशि एडवांस के रूप में जमा करने का निर्देश भी शामिल था।

हमें बताया गया कि चूंकि ऐसे पेशेंट ‘एग्रेसिव’ हो जाते हैं इसलिए वे ममता को बेहोश करके रखेंगे और चूंकि वह ऐसी अवस्‍था में ही रहेगी इसलिए उसे वेंटिलेटर भी लगाना पड़ेगा। इसके अलावा भी हमें बहुत सी बातें और चेतावनियां पहले ही दे दी गईं और एक कागज आगे बढ़ाते हुए हमसे कहा गया कि आप सभी इस पर साइन कर दें। किसी ने कहा कुछ नहीं लेकिन सभी इस बात को महसूस कर रहे थे कि अपने परिजन के डेथ वारंट पर हमीं से हस्‍ताक्षर करवाए जा रहे हैं।

एक कांच के कमरे में ममता को रख दिए जाने के बाद हमसे कहा गया कि आप में से जिसको उससे मिलना हो मिल लीजिए। मैंने कुछ कहा तो नहीं लेकिन मन ही मन सोचा, क्‍या डॉक्‍टर ममता से हमारी ‘आखिरी मुलाकात’ करवा रहे हैं? मैं उस कांच के कमरे के पास पहुंचा, ममता पलंग पर टिककर बैठी थी। चेहरे पर हलकी मुसकुराहट थी। मुझे देखते ही बोली- ‘’नमस्‍ते भैया…’’ मैंने भी ‘नमस्‍ते जी’ कहकर मुसकुराने की कोशिश की।

अचानक जैसे उसे कुछ याद आया और उसने कहा- ‘’हैप्‍पी होली भैया…’’ मैंने कहा- ‘होली?’ तो खुद को ही सुधारते हुए वह बोली- ‘’सॉरी, हैप्‍पी रंगपंचमी…’’ मैंने पूछा- ‘’कैसी हो?’’ जवाब आया- ‘’ठीक हूं भैया… घर चलना है…’’ मैंने कहा- ‘’हां, चलेंगे ना.. जल्‍दी ही चलेंगे, तुम ठीक हो जाओ फिर चलेंगे…’’ वह बोली- ‘’मैं ठीक तो हूं, मुझे क्‍या हुआ है…’’ अब मैं उसे क्‍या बताता कि वह कितनी ‘ठीक’ है और उसे ‘क्‍या’ हुआ है, बस उसे लेट जाने की सलाह देकर लौट आया।

इस बातचीत का जिक्र करने का मकसद सिर्फ इतना है कि आप जान सकें कि जिसे डॉक्‍टरों के मुताबिक हफ्ते दस दिन में इस दुनिया से विदा हो जाना था, वह कितनी सामान्‍य स्थिति में थी। उसके हावभाव परिवार को यह यकीन करने ही नहीं दे रहे थे कि उसे कोई जानलेवा बीमारी ने जकड़ लिया है। उधर डॉक्‍टर अपना काम कर रहे थे। उन्‍होंने ममता को दाखिल करते ही उसकी तमाम जांचें करना शुरू कर दी। हालांकि उसी दिन पहले वाले कई अस्‍पताल वे तमाम जांचें कर चुके थे।

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि जब मरीज वही होता है, उसका खून भी वही होता है तो फिर डॉक्‍टर या अस्‍पताल बदलने पर हर बार उसके खून की वही जांच नए सिरे से क्‍यों की जाती है, क्‍या अस्‍पताल या डॉक्‍टर बदलने पर आदमी का खून बदल जाता है या उसके खून में पैदा हुए बीमारी के कीटाणु बदल जाते हैं? आप चंद घंटों पहले की गई जांच के आधार पर निष्‍कर्ष क्‍यों नहीं निकाल सकते? यकीनन यह डॉक्‍टरी नहीं, उसके नाम पर चलाया जाने वाला ऐसा कारोबार है जो अनाप शनाप तरीके से फलफूल रहा है।

अस्‍पताल के लिए अब यह केस ‘कांच’ की तरह साफ था। उन्‍हें पता था, या उन्‍होंने घोषित कर दिया था कि मरीज को ‘रेबीज’ है। उन्‍होंने यह भी बता दिया था कि दुनिया में कहीं भी इसका कोई इलाज नहीं है। और तो और वे इस लाइलाज रोग के शिकार मरीज की मौत की संभावित तारीख भी बता चुके थे… फिर भी वे इलाज कर रहे थे। पता नहीं किसका, मरीज का, हमारा या फिर खुद अपनी बीमार जेब का…

हमें बुलाकर साफ कह दिया गया कि ऐसे मरीज को ‘आइसोलेशन’ में रखना होता है इसलिए कृपया अब कोई भी मरीज के नजदीक न आए। पहले ही दिन से हालत यह हो गई कि हमारा मरीज ऊपरी मंजिल पर अलग थलग डला था और इधर हम नीचे उसके बारे में तरह तरह के कयास भर लगाते रहते। हमारे पास ऊपर से सिर्फ या तो आईसीयू के तामझाम का बिल आता या फिर दवाइयों की भारी भरकम पर्चियां।

हमें कुछ पता नहीं था कि ऊपर ममता को कितनी दवाइयां लग रही हैं, उन दवाइयों को दिए जाने का मकसद क्‍या है और उनका ममता के बीमार शरीर पर कोई असर हो भी रहा है या नहीं। यहां अलग से यह बताने की जरूरत नहीं है कि ऐसे तमाम अस्‍पतालों में भरती मरीजों को लिखी जाने वाली दवाइयां भी उसी अस्‍पताल के अपने मेडिकल स्‍टोर से ही खरीदनी होती हैं, या फिर वे सिर्फ और सिर्फ वहीं उपलब्‍ध होती हैं।

अस्‍पताल की ओर से हमें बताया गया कि रेबीज के पेशेंट के मामले में वे लोग बेंगलुरू स्थि‍त NIMHANS (नैशनल इंस्‍टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्‍थ एंड न्‍यूरोसाइंसेस) के प्रोटोकॉल का ही पालन करते हैं। इसके लिए स्‍थानीय तौर पर होने वाली दर्जनों जांचों के अलावा कुछ खास जांचें निमहंस से करवाने की बात भी कही गई। बताया गया कि उसी से पेशेंट को रेबीज होने का कन्‍फर्म पता चल सकता है। इसका सेंपल हवाई जहाज से बेंगलुरू जाता है। हमने हर टेस्‍ट की मंजूरी दे दी।

हम औसतन इस अस्‍पताल में 25 से 30 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च कर रहे थे। आप अंदाज लगा सकते हैं कि एक मध्‍यवर्गीय परिवार के लिए इतनी राशि जुटाना कितना कितना मुश्किल है।

कल पढ़ें- क्‍यों NIMHANS की रिपोर्ट से चेहरे चमक उठे?

 

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