गिरीश उपाध्याय
आखिरकार संसद का वर्तमान सत्र भी हंगामे की भेंट चढ़ गया। अब संसद में हंगामा होना या फिर हंगामे के कारण कार्यवाही न चल पाना कोई नहीं बात नहीं रही है। लेकिन बुधवार को राज्यसभा में जिस तरह से घटनाक्रम चला उसने जरूर संसद के इतिहास में एक नया काला पन्ना जोड़ा।
कहने को हम दो दिन बाद ही आजाद भारत के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। परंतु आजादी के इस अमृत महोत्सव वर्ष की पूर्व संध्या पर संसदीय लोकतंत्र के नाते हमारी संसद और विधानसभाओं में होने वाली घटनाएं बताती हैं कि इन 75 सालों में हम संसदीय व्यवहार को लेकर परिवपक्व और प्रौढ़ नहीं हुए हैं बल्कि बचकानेपन की तरफ ही जा रहे हैं। यह विडंबना है कि हमारी आजादी तो उम्रदराज हो रही है लेकिन हमारा संसदीय लोकतंत्र शैशव अवस्था की तरफ बढ़ रहा है। बालहठ की तरह ही संसद में अजीब अजीब किस्म की राजहठ या संसदीय हठ देखने को मिल रही है।
इस बार संसद प्रमुख रूप से दो मामलों को लेकर ठप हुई। इनमें से किसान आंदोलन और किसान बिल वापस लिए जाने संबंधी मामला पुराना हो चला है जबकि कथित पेगासस जासूसी कांड का मामला नया है। विपक्ष चाहता था कि सरकार इन दोनों मसलों पर संसद में बात करे। दोनों मामलों से जुड़े विभिन्न मसलों पर संसद में बहस हो और सरकार विपक्ष के सवालों के जवाब दे। उधर सरकार का कहना था कि वह चर्चा के लिए तैयार है लेकिन विपक्ष हंगामा और शोर मचाना बंद कर चर्चा के लिए आए तो।
यह बहुत अजीब बात है कि विपक्ष कुछ मामलों पर चर्चा चाहता हो और सरकार के मुताबिक वह भी उन विषयों पर चर्चा के लिए तैयार हो फिर भी संसद का सत्र चर्चा के बजाय हंगामे की भेंट चढ़ जाए। यह स्थिति सोचने को मजबूर करती है कि ऐसे में हमारी संसद का कामकाज कैसे चलेगा और ऐसा ही चलता रहा तो जनता व देश के भविष्य से जुड़े मसलों पर आखिर देश के जनप्रतिनिधियों के विचारों की भागीदारी कैसे सुनिश्चित होगी। महत्वपूर्ण बिल और कानून यदि इसी तरह हंगामे के बीच बिना चर्चा के चंद मिनिटों में पास किए जाते रहे तो संसद का औचित्य ही क्या बचेगा।
एक तो वैसे ही कोरोना के चलते संसद के सत्र बाधित हुए हैं उस पर यदि संसदीय बहस के बचेखुचे अवसर भी आरोप प्रत्यारोप और हंगामे की भेंट चढ़ जाएं तो इससे राजनीतिक हित भले ही सध जाएं पर देश या जनता के हित तो कतई नहीं सधते। आमतौर पर माना जाता है कि संसद को चलाने के लिए प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार यानी सत्ता पक्ष की होती है। इसलिए जब भी संसद की कार्यवाही नहीं चल पाती या बाधित होती है तो उंगली सरकार पर ही उठती है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि संसद को चलाने के लिए केवल सरकार या सत्ता पक्ष ही जिम्मेदार है। संसद में महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस हो, सांसद अपने सवाल पूछ सकें इसके लिए अनुकूल माहौल बनाने की जिम्मेदार विपक्ष की भी उतनी ही है जितनी सरकार की। ऐसा नहीं हो सकता कि सत्ता पक्ष को जिम्मेदार बताकर विपक्ष अपने व्यवहार से पल्ला झाड़ ले।
संसद के सदन न चल पाने को लेकर सबसे बड़ी समस्या राजनीतिक सौहार्द के लगातार खत्म होते जाने की है। खासतौर से संसद के भीतर। अकसर देखा गया है कि संसद के बाहर वे ही राजनेता हंसी ठट्ठा करते, एक दूसरे से गलबहियां करते या गर्मजोशी से मिलते जुलते नजर आते हैं जो संसद के भीतर ऐसा व्यवहार करते है मानो एक दूसरे को जानते ही नहीं हो या फिर एक दूसरे के दुश्मन हों। इस मायने में हमारा संसदीय आचरण हमारे सामाजिक आचरण के ठीक विपरीत दिखाई देता है।
मैंने संसद की रिपोर्टिंग तो नहीं की लेकिन करीब ढाई दशक तक अलग अलग विधानसभाओं की रिपोर्टिंग जरूर की है। अपने अनुभव से कह सकता हूं कि संसदीय सदनों में हंगामा करने वाला चाहे कोई भी पक्ष हो, उसका मकसद समस्या का समाधान निकालने के बजाय मामले को उलझाने का ज्यादा रहता है। और इसके लिए कोई एक पार्टी दोषी नहीं है। जो जब विपक्ष में होता है उसका आचरण ऐसा ही होता है।
संसदीय सदन ठीक से चलें, वहां की कार्यवाही में हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता दिखे इसके लिए बहुत कुछ प्रयास पीठासीन अधिकारियों को भी करने होते हैं। मैंने देखा है कि चाहे कांग्रेस के यज्ञदत्त शर्मा हो, श्रीनिवास तिवारी हों या राजेंद्र शुक्ल हों या फिर भाजपा के ब्रजमोहन मिश्र हों या ईश्वरदास रोहाणी… ऐसे मुश्किल मौकों पर उन्होंने बहुत संयम, समझदारी और चतुराई का परिचय देते हुए संवाद और चर्चा के रास्ते निकाले। विपक्ष ने कलाई पकड़ने की मांग की हो तो उन्होंने उसे कम से कम उंगली पकड़ने का मौका देकर बात को संभाल लिया।
एक बात और… विपक्ष यदि चाहता है कि उसकी ओर से उठाए जाने वाले मुद्दों पर चर्चा हो तो उसे अपने तौर तरीके भी बदलने होंगे। संसद के भीतर अपनी मांग पूरी करवाने के लिए रणनीति बदलनी होगी। अभी तो ऐसा लगता है कि हंगामे, नारेबाजी और शोरशराबे को ही एकमात्र विकल्प मान लिया गया है। मुश्किल मसलों पर सरकारें बहस से बचना चाहती हैं इसमें कोई दो राय नहीं, लेकिन उसके बावजूद सरकार को चर्चा के दरवाजे तक लाना ही तो राजनीतिक चतुराई का परिचायक है। यदि आपको लग रहा है कि सरकार किसी मुद्दे पर स्थगन को मंजूर नहीं करेगी तो आप उसी पर अड़े न रहकर किसी दूसरे नियम के तहत सदन में चर्चा करवा लें। इससे कम से कम उस विषय पर बात तो हो सकेगी। और बात होगी तो संबंधित मसले पर विपक्ष अपने सारे तर्कों और सवालों को ऑन रिकार्ड सदन की कार्यवाही में दर्ज तो करवा सकेगा। अभी तो कार्यवाही में केवल हंगामा और शोरगुल ही दर्ज होकर रह जाता है, जिसका न तो कोई अर्थ है और न ही इससे किसी का भला होने वाला है। न राजनीति का, न लोकतंत्र का और न देश का…(मध्यमत)
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