अजय बोकिल
यूं तो दोनों मामले बिल्कुल अलग-अलग प्रकृति के हैं, लेकिन दोनों में एक कॉमन फैक्टर है, वो है बचाव की जद्दोजहद। एक में जान तो दूसरे में सत्ता बचाने की जी तोड़ कोशिश और इसके लिए हरसंभव हथकंडा, औजार और पैंतरा अपनाने की जिद। एक में इंसानियत सूली पर तो दूसरे में नैतिकता को वनवास। देश के बहुचर्चित निर्भया बलात्कार और नृशंस हत्याकांड के दोषी फांसी पर चढ़ने से बचने के लिए नित नए पैंतरे अपना रहे हैं। देश के सुप्रीम कोर्ट के फैसले और राष्ट्रपति द्वारा भी दया याचिका खारिज किए जाने के बाद अब वो अपनी फांसी रुकवाने अंतरराष्ट्रीय न्यायालय पहुंच गए हैं। और तो और एक दोषी ने फांसी के तख्त पर चढ़ने से ठीक तीन दिन पहले अपनी पत्नी से इस बिना पर तलाक की अर्जी लगवा दी कि वह ‘विधवा’ नहीं कहलाना चाहती।
देश में नैसर्गिक न्याय और मानवाधिकार के नाम पर जो तमाशा चल रहा है, उससे तो हमारी न्याय व्यवस्था का लचरपन ही उजागर हो रहा है। सवाल यह उठ रहा है कि अपराध सौ फीसदी सिद्ध हो जाने के बाद भी अपराधी को पैंतरेबाजी करने की मोहलत देते जाना हमारी न्याय के प्रति प्रतिबद्धता की निशानी है या फिर उसमें निहित खामियों की? जो कुछ हो रहा है अथवा कराया जा रहा है, वह इस देश के सामान्य नागरिक का न्याय व्यवस्था पर भरोसा कायम रखने वाला है या उसे खत्म करने वाला है? ध्यान रहे कि निर्भया केस के दोषियों को 20 मार्च को फांसी होने वाली है। गंभीर सवाल ये कि आखिर कोई कानून और संवैधानिक व्यवस्था को चकमा देने के लिए कितनी पतली गलियों से गुजर सकता है? अगर सिस्टम इतनी गलियों से भरपूर है तो उस सिस्टम होने का मतलब ही क्या है? क्यों न सब अपनी मर्जी और सुविधा के मालिक हो जाएं?
निर्भया कांड में जो हो रहा है और अपराधी जिस तरीके से मिनट दर मिनट फांसी को दूर ठेल रहे हैं, उससे लगता है कि उनमें इतनी ही समझ, चतुराई और बुद्धि थी तो वो एक बेबस युवती के साथ सामूहिक बलात्कार कर उसकी नृशंस हत्या ही क्यों करते? जिन्हें निर्भया की जान लेने में जरा भी संकोच या शर्म महसूस नहीं हुई, वही लोग अब अपनी जान बचाने के लिए हरसंभव दामन की ओट में छिपने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? यह जानते हुए कि खुद को निर्दोष साबित करने की उनकी हर कानूनी चाल नाकाम हो चुकी है। और यह तो बिल्कुल अप्रत्याशित है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फांसी की सजा सुनाने के खिलाफ चारों दोषी अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में पहुंच जाएं, इस गुहार के साथ कि उन्हें अवैधानिक तरीके से फांसी की सजा दी गई है। निर्भया हत्या केस में उन्हें ‘मोहरा’ बनाया जा रहा है। अत: उनके मृत्युदंड पर रोक लगाई जाए।
इसी तरह निर्भया की हत्या के एक और दोषी अक्षय कुमार सिंह की पत्नी पुनीता के वकील ने बिहार के औरंगाबाद की फैमिली कोर्ट में तलाक की अर्जी लगाई है। याचिका में पुनीता ने कहा है कि मेरे पति को 20 मार्च को फांसी होने वाली है। मैं विधवा की तरह जीना नहीं चाहती। मेरा पति निर्दोष है। मैं चाहती हूं कि फांसी से पहले कानूनी तौर पर हमारा तलाक हो जाए। इसका आधार यह है कि हिंदू मैरेज एक्ट के मुताबिक पति दुष्कर्म का दोषी पाए जाने पर पत्नी उससे तलाक ले सकती है। इस बीच एक नया पैंतरा निर्भया कांड के दोषी मुकेश कुमार ने दिल्ली हाईकोर्ट में पटियाला हाउस कोर्ट के आदेश को चुनौती देकर चला है। मुकेश ने अपनी फांसी की सजा रद्द करने की मांग इस आधार पर की है कि घटना के दिन वह दिल्ली में था ही नहीं।
इन पैंतरों से इतना तो मानना पड़ेगा कि भारत के वकील बेहद स्मार्ट और बाल की खाल निकालने में माहिर हैं। इंसाफ के पेशे से जुड़े लोगों को न्याय दिलाने से ज्यादा न्याय रुकवाने में महारत हासिल है। निर्भया के हत्यारों की फांसी रुकवाने के लिए अंतरराष्ट्रीय अदालत में जाना इसलिए भी हैरान करने वाला है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय कोर्ट केवल अलग अलग देशों के बीच विवादों को सुनती और फैसला देती है। वह भी सम्बन्धित देशों की सहमति होने पर। अपने फैसलों पर अमल करवाने का कोई तंत्र भी उसके पास नहीं है। आपराधिक मामलों में अंतिम फैसला देने का काम सम्बन्धित देश की न्याय प्रणाली का ही है। इसमें अंतरराष्ट्रीय कोर्ट दखल नहीं दे सकती। इसी तरह फांसी पर चढ़ने से तीन दिन पहले एक दोषी द्वारा अपनी पत्नी से तलाक की अर्जी लगवाना भी उसी पैंतरेबाजी की ताजा कड़ी है कि किसी बहाने से फांसी की सजा को उलझाया जाए।
कमोबेश इसी मानसिकता के साथ मप्र में कांग्रेस और भाजपा के बीच सत्ता की लड़ाई चल रही है। भाजपा जल्द से जल्द सरकार गिराना चाहती है तो सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार की ‘मौत’ को दिन और घंटों के हिसाब से आगे ढकेलना चाहती है। फर्क इतना है कि निर्भया मामले में घोषित अपराधियों को बचाने की कोशिश है तो इधर सत्ता के खेल में हर अनैतिकता को जायज ठहराने का प्रयास है।
देश का आम नागरिक इन तमाशों को गौर से और हैरानी से देख रहा है। उनके भीतर छिपे संदेशों, तकाजों और कुटिलताओं को पढ़ रहा है। सवाल यह है कि निर्भया के दोषियों को हर बार बचा ले जाने की जी तोड़ कोशिश करने के पीछे कौन लोग हैं? कैसे ये लोग अर्जी पर अर्जी लगाए जाते हैं? इसके लिए पैसा कहां से आ रहा है? कौन फंडिंग और हौसला अफजाई कर रहा है? एक आम इंसान तो निचली अदालत की चौखट पर ही चप्पलें घिसते-घिसते कंगाल हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट तक जाना तो बहुत दूर की बात है। लेकिन निर्भया केस के चारों दोषी फटीचर माली हालत के बाद भी नित नई याचिकाएं दायर करते रहते हैं? नया कानूनी फच्चर फंसाते रहते हैं? इनका खर्च कौन उठा रहा है? उनकी आड़ में कौन हैं? निर्भया को न्याय मिलने से रोकने में आखिर किसका निहित स्वार्थ है?
इधर मप्र में सत्ता हथियाने और बचाने के लिए जो खेल हो रहा है, उसमें नैतिकता की बलि भले चढ़ रही हो, लेकिन किसी की जान नहीं जाने वाली। परंतु निर्भया केस में दोषियों को हथेली लगाते जाने से दुनिया भर में क्या संदेश जा रहा है, यह संजीदगी से सोचने की गरज है। क्या यह सिर्फ प्रचार पाने का शगल है या फिर हम अपनी ही न्याय व्यवस्था को उघाड़ना चाहते हैं? वकालत का पेशा पीडि़त को न्याय दिलाने के लिए है, दोषी को सजा से बचाने के लिए नहीं है। लेकिन जो कुछ हो रहा है, वह न्याय के बुनियादी आग्रह को ही उलटने की सोची-समझी कोशिश लगती है। इससे समाज में सही संदेश नहीं जा रहा है। दोषी अक्षय की बीवी ने जो तलाक की अर्जी लगाई है, उसका असली मकसद पति को फांसी के तख्त से यथासंभव बचाना है। उसका दोषी पति फांसी से बचे न बचे, लेकिन इन मामलों में व्यवस्था पर भरोसे का सुहाग उजड़ रहा है, उसका क्या?