गिरीश उपाध्याय
जिस समय मैं यह कॉलम लिख रहा हूं उस समय टीवी पर दो खबरें प्रमुखता से चल रही हैं। पहली खबर अमेरिका से है जहां ट्रंप समर्थकों ने अमेरिकी कांग्रेस में घुसकर हिंसा की है और मीडिया की सूचना के अनुसार अभी तक हिंसा में चार लोग मारे जा चुके हैं। दूसरी खबर भारत की राजधानी दिल्ली से है जहां एक तरफ करीब डेढ़ महीने से आंदोलन कर रहे किसान ट्रैक्टर रैली निकाल रहे हैं तो दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताते हुए पूछा है कि इस आंदोलन में कोरोना प्रोटोकॉल का पालन हो रहा है या नहीं।
पहले बात अमेरिका की… वहां जब से राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हार और डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जो बाइडेन की जीत हुई है, तभी से अशांति का माहौल पैदा करने की कोशिशें जारी हैं। चुनाव में साफ तौर पर हार जाने के बावजूद राष्ट्रपति ट्रंप अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं और अपने समर्थकों को उकसाने में लगे हैं। उनकी इन हरकतों ने दुनिया का महान लोकतंत्र कहे जाने वाले अमेरिका के मुंह पर कालिख पोत दी है। सवाल उठने लगे हैं कि क्या यही अमेरिका की लोकतांत्रिक परंपरा है? वहां जो कुछ भी हो रहा है उसने पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों के लिए चिंता पैदा की है और उनमें भारत भी शामिल है।
एक समय ट्रंप को अपना बहुत अच्छा दोस्त बताने वाले और अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप के साथ हाउडी मोदी कार्यक्रम में ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ का नारा देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अमेरिका की घटना पर चिंता व्यक्त करते हुए इसे लोकतांत्रिक परंपराओं पर आघात बताया है। मोदी ने ट्वीट में कहा कि- ‘’वाशिंगटन डीसी में दंगों और हिंसा के समाचार देखने के बाद मैं विचलित हूं। सत्ता का व्यवस्थित और शांतिपूर्ण हस्तांतरण होना ही चाहिए। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गैरकानूनी विरोध प्रदर्शन के माध्यम से प्रभावित नहीं होने दिया जा सकता।‘’
प्रधानमंत्री के इस बयान को भारत से भी जोड़कर देखा जा सकता है। केंद्र सरकार द्वारा लाए गए किसान कानूनों के खिलाफ दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में पिछले 43 दिनों से चल रहे विरोध प्रदर्शन का हल अब निकलना ही चाहिये। जिसे हम लोकतंत्र कहते या मानते हैं उसकी सबसे बड़ी ताकत ही संवाद है। यदि संवाद को ही बाधित करने या अपने हिसाब से चलाने की कोशिशें होंगी तो उससे कुल मिलाकर हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं और व्यवस्थाएं ही प्रभावित होंगी। अमेरिका में जो कुछ हो रहा है वह भी संवाद को बाधित करने या अपने हिसाब से चलाने का ही नतीजा है।
कामना की जानी चाहिए कि जो दिन अमेरिका ने देखा है वह भारत को कभी न देखना पड़े। लेकिन इसके साथ ही हमें वे उपाय भी करने होंगे जो ऐसी नौबत को आने से टाल सकते हैं। इनमें सबसे बड़ा उपाय संवाद ही है। किसानों का आंदोलन चलते हुए इतने दिन हो गए हैं, इस दौरान अलग-अलग कारणों से दर्जनों किसानों की मौत हुई है। सरकार ने बार-बार किसान संगठनों को बातचीत की टेबल पर लाने की कोशिश की है, लेकिन बात नहीं बन पा रही। इसका प्रमुख कारण किसान संगठनों की ओर से तीनों कानून वापस लिए जाने की अपनी मांग पर टस से मस न होना है। ऐसे कठोर रवैये से कोई भी संवाद आगे नहीं बढ़ सकता।
सरकार और किसान संगठनों के बीच पिछली बार जो बात हुई थी उससे ऐसा लगा था कि मामले का जल्दी ही समाधान हो जाएगा लेकिन बात घूम फिरकर वही ढाक के तीन पात पर आती दिख रही है। आंदोलन कोई भी हो लेकिन उसकी अपनी एक उम्र होती है। इस तरह कोई भी आंदोलन न तो अनंत काल तक चलाया जा सकता है और न ही उसे चलाया जाना चाहिए। ऐसा करने की कोई भी कोशिश आंदोलन के उद्देश्य को कमजोर करने के साथ साथ उसे लक्ष्य से भटकाने का भी कारण बनती है।
इस बीच सुप्रीम कोर्ट का यह सवाल करना भी महत्वपूर्ण है कि किसान आंदोलन में कोरोना प्रोटोकॉल का पालन हो रहा है या नहीं। हालांकि देश के प्रधान न्यायाधीश ने उदारता बरतते हुए वस्तुस्थिति को एक सवाल के रूप में प्रस्तुत किया है, लेकिन यह बात किसी से छिपी नहीं है (सुप्रीम कोर्ट से भी नहीं) कि इतने बड़े जमावड़े में किसी भी तरह के प्रोटोकॉल का पालन संभव ही नहीं है। यह स्थिति कोरोना जैसी महामारी के दौर में बहुत घातक सिद्ध हो सकती है। इसका शिकार भी वे किसान ही होंगे जो आंदोलन के चलते बिना किसी कोरोना प्रोटोकॉल के पालन के वहां जमे हुए हैं।
लोकतंत्र हमें आंदोलन, धरना, प्रदर्शन आदि का अधिकार अवश्य देता है लेकिन उसके साथ ही यह सवाल भी जुड़ा है कि ये सारी बातें किस कीमत पर और कब तक? और जब सरकार संवाद का रास्ता खुला रखे हुए है तो सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर यह अडि़यल रुख क्यों? किसानों के साथ पूरे देश की सहानुभूति है, देश कभी नहीं चाहता कि उसका अन्नदाता विपरीत परिस्थितियों में जिये। लेकिन इसके साथ ही मद्रास हाईकोर्ट की उस टिप्पणी को भी ध्यान में रखना जरूरी है जिसमें कोरोना प्रोटोकॉल के पालन के ही संदर्भ में उसने कहा है कि ‘’धार्मिक अधिकार कभी भी जीवन के अधिकार से ऊपर नहीं हो सकता।‘’ लोकतंत्र में होने वाले आंदोलनों के संदर्भ में भी यही बात कही जा सकती है कि आंदोलन का कोई भी अधिकार जीने के अधिकार से बड़ा नहीं हो सकता।(मध्यमत)