अजय बोकिल
अमूमन किसी भी राज्य में स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनाव नतीजों पर देश का ध्यान तब जाता है, जब परिणाम सत्तारूढ़ दल के खिलाफ आएं। इस संदर्भ में पंजाब में हुए हालिया स्थानीय निकायों के चुनाव नतीजों को कई कोणों से देखा जा रहा है और इसमें निहित संदेश को राष्ट्रीय कैनवास पर पढ़ने की कोशिश हो रही है। इन चुनावों में राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस ने जबर्दस्त जीत हासिल की है तो राज्य में मुख्य विपक्षी दल आम आदमी पार्टी और भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया। जबकि कुछ समय पहले तक एनडीए का हिस्सा रहा शिरोमणि अकाली दल जैसे तैसे अपना वजूद बचा सका।
एक और चौंकाने वाली बात चुनाव में बड़ी संख्या में निर्दलियों का जीतना भी है। लगता है इन निर्दलियों ने सबसे ज्यादा नुकसान विपक्षी पार्टियों को ही पहुंचाया है। राजनीतिक विश्लेषक इन चुनाव नतीजों को अकाली दल व भाजपा से किसानों की गहरी नाराजी का नतीजा मान रहे हैं। कहा जा रहा है कि मोदी सरकार तीनों विवादित कृषि कानूनों को लेकर किसानों की नाराजी दूर नहीं कर पाई तो उसे इसका खमियाजा अन्य राज्यों में भी भुगतना पड़ेगा।
यकीनन स्थानीय निकाय चुनावों के ये नतीजे राज्य में कांग्रेस की बांछें खिलाने वाले हैं। उसने प्रदेश के सभी आठों नगर निगमों पर अपनी जीत का परचम फहरा दिया है। कांग्रेस की दृष्टि से इन चुनाव परिणामों का महत्व यह है कि पार्टी में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का रुतबा और बढ़ेगा तथा पार्टी प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता में वापसी के सपने देखने लगी है। इसमें शक नहीं कि अनुभवी राजनेता कैप्टन अमरिंदर ने किसान आंदोलन के सियासी हानि-लाभ का गणित पहले ही ताड़कर उसे खुला समर्थन दे दिया था, जिसका राजनीतिक प्रसाद उन्हें स्थानीय निकाय चुनाव में भारी कामयाबी के रूप में मिला है। शायद यही कारण है कि इन नतीजों से गदगद कांग्रेस ने लगे हाथ ‘कैप्टन 2022’ अभियान शुरू कर दिया है।
कांग्रेस की जीत में किसानों की नाराजी एक प्रमुख कारण है, लेकिन चुनावी गणित के हिसाब से प्रतिद्वंद्वी अकाली दल और भाजपा का अलग-अलग चुनाव लड़ना भी बड़ा कारण है। जब भी दोनों अलग-अलग चुनाव लड़े हैं, दोनों नुकसान में रहे हैं। इससे भी ज्यादा आश्चर्य की बात इन चुनावों में ‘आम आदमी पार्टी’ का सफाया है, क्योंकि ‘आप’ 2017 के विधानसभा चुनाव में धूमकेतु की तरह 22 सीटें जीतकर मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में उभरी थी, लेकिन उसी तेजी से वह राज्य में अपनी राजनीतिक जमीन खोती जा रही है। हालांकि आप भी किसान आंदोलन का समर्थन कर रही है।
पंजाब में कांग्रेस का इस तरह मजबूत होना पूरी पार्टी का मनोबल बढ़ाने वाला है, खासकर तब कि जब उसने राष्ट्रीय स्तर पर जारी अंतर्कलह के कारण मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य में मुश्किल से हाथ आई सत्ता सवा साल में ही गंवा दी थी। पार्टी में शीर्ष स्तर पर अभी भी तलवारें भांजी जा रही हैं और संगठन का असल नेता कौन है, यह अभी भी साफ नहीं है। ऐसे में पंजाब में कांग्रेस की यह कामयाबी इस बात को रेखांकित करने वाली है कि यदि क्षेत्रीय क्षत्रपों को पार्टी समुचित महत्व दे, उनकी बात सुने तो किसान आंदोलन जैसे आंदोलनों पर सवारी कर कांग्रेस फिर अपनी राजनीतिक जमीन काफी हद तक वापस पा सकती है।
यहां सवाल पूछा जा सकता है कि अगर इन नतीजो से कांग्रेस के हौसले बुलंद होना स्वाभाविक है तो हारने वाले दलों के लिए क्या संदेश है? यूं कहने को यह स्थानीय निकायों के चुनाव हैं, जिनमें स्थानीय मुद्दे ज्यादा हावी रहते हैं, लेकिन पंजाब के ये चुनाव किसान आंदोलन तथा संकट में घिरी अर्थव्यवस्था के साए में हुए हैं। चुनाव में बड़ा झटका उस शिरोमणि अकाली दल को लगा है, जो राज्य में सत्ता की तगड़ी दावेदार रही है। विवादित कृषि कानूनों पर उसकी विरोधी भूमिका भी दिखावा ज्यादा रही।
अकाली दल पहले तो एनडीए में रहते हुए कृषि कानून पास होने तक मोदी सरकार का हिस्सा रहा, लेकिन जब उसे इन कानूनों के कारण पंजाब में होने वाले राजनीतिक नुकसान का अंदाजा हुआ तो वह मोदी सरकार और एनडीए से भी अलग हो गया। पर तब तक देर हो चुकी थी। किसान हितों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता संदेह के घेरे में आ गई। अकाली दल के एनडीए छो़ड़ने में हुई इस ‘देरी’ का फायदा कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कृषि कानूनों के विरोध को हवा देकर तथा राज्य में इन कानूनों को लागू न करने का प्रस्ताव पारित कर उठा लिया।
उधर खुद अकाली दल में भारी असंतोष है, क्योंकि यह भी मोटे तौर पर एक परिवार की पार्टी बन कर रह गई है। नतीजतन अकाली दल अपने गढ़ बठिंडा में ही हार गया। इससे सुखबीर सिंह बादल के नेतृत्व पर भी प्रश्न चिह्न लग गया है। रहा सवाल भाजपा का तो पंजाब में उसका वजूद अकाली दल की बैसाखी के सहारे ही है। जब बैसाखी ही अलग हो गई तो उसके लिए एक कदम घिसटना भी मुश्किल हो गया। ‘आम आदमी पार्टी’ राज्य में एक सशक्त विकल्प बनकर उभरी थी, लेकिन उसकी हालत भी समाजवादियों जैसी हो गई है। हर व्यक्ति पार्टी में तब्दील हो गया और पार्टी तार-तार हो गई।
यहां दो सवाल अहम हैं। पहला, क्या ये नतीजे मोदी सरकार के लिए इस बात की चेतावनी हैं कि किसानों की नाराजी उसे आगामी चुनावों में भी महंगी पड़ सकती है। वह इस आंदोलन को हल्के में न ले और न ही उसे हर तरीके से दबाने की कोशिश करे। दूसरा, क्या कांग्रेस फिर केन्द्र में सत्ता में लौटने का ख्वाब देख सकती है? इसका एक जवाब तो यह है कि पंजाब के स्थानीय निकाय चुनाव नतीजों को राष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार और भाजपा के प्रति किसानों की गहरी नाराजी के रूप में देखना जरा जल्दबाजी होगी।
ध्यान रहे कि पंजाब सत्ता की चाबी अमूमन उन चालीस फीसदी हिंदू वोटरों के हाथ में रहती है, जिनका झुकाव तय करता है कि सत्ता कांग्रेस या अकालियों के हाथ रहेगी। जाने-माने पत्रकार शेखर गुप्ता का कहना है कि इन चुनावों में हिंदू वोटरों ने भाजपा-अकालियों की बजाए कांग्रेस को वोट देना ज्यादा बेहतर समझा। इसका एक कारण राज्य में खालिस्तान समर्थक अलगाववादी ताकतों का सिर उठाना भी है। ऐसे में उन्होंने कांग्रेस पर फिर भरोसा जताया है। यानी सिखों के तो वोट बंटे लेकिन हिंदुओं ने कांग्रेस पर हाथ रखा।
यह समझना कठिन नहीं है कि अगर अकाली और भाजपा मिलकर लड़े होते तो कांग्रेस इस तरह स्वीप नहीं कर पाती। जब तक राज्य में विपक्षी वोटों का विभाजन अकाली, भाजपा और आम आदमी पार्टी में होता रहेगा, कैप्टन अमरिंदर निश्चिंत होकर राज कर सकते हैं। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि इन चुनाव नतीजों को किसान आंदोलन से उपजी नाराजी के संदर्भ में बिल्कुल न देखा जाए। इस आंदोलन में पंजाब की हिस्सेदारी शुरू से ही महत्वपूर्ण है। लेकिन आंदोलन की व्यापकता और उसके राजनीतिक फलितार्थ का राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में आकलन करने के लिए हमें अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजों को भी देखना होगा।
अगर किसान आंदोलन वहां भी चुनावों को गहरे प्रभावित करता है तो माना जाएगा कि यह आंदोलन अब मोदी सरकार के लिए खतरे की घंटी बन चुका है। लेकिन यदि तीन राज्यों को छोड़कर अन्य राज्यों में इस आंदोलन का खास राजनीतिक असर नहीं दिखा और चुनाव परिणाम भाजपा के पक्ष में गए तो निष्कर्ष यही होगा कि अभी भी किसान आंदोलन मुख्यत: पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों तक ही केन्द्रित है तथा इन्हीं राज्यों में राजनीतिक उथल-पुथल का सबब बनेगा। हालांकि इसमें सबसे बड़ा नुकसान यही है कि किसान आंदोलन की मूल आत्मा हाशिए पर धकेली जाकर उसका आकलन सत्ता के तराजू के उठते-गिरते पलडों के आधार पर होने लगेगा। पंजाब के इन चुनावों नतीजों से उसकी शुरुआत हो चुकी है।