राकेश दुबे
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घोषित एक रैंकिंग के अनुसार भारत अब 148 विश्वविद्यालयों के साथ एशिया में ‘सबसे अधिक प्रतिनिधित्व वाली उच्च शिक्षा प्रणाली’ बन गया है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 37 अधिक है, परंतु एशिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में पहले 10 में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय शामिल नहीं है। इसके बाद 133वें स्थान के साथ चीन और 96वें स्थान के साथ जापान का स्थान है। म्यांमार, कंबोडिया और नेपाल भी पहली बार इस रैंकिंग में शामिल हुए हैं। क्वाक्वेरेली साइमंड्स (क्यूएस) द्वारा 2024 विश्वविश्वविद्यालय रैंकिंग एशिया को जारी कर दिया गया है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) बॉम्बे ने क्यूएस वर्ल्‍ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग-एशिया में भारत में अपना शीर्ष स्थान बरकरार रखा है और रैंकिंग विश्वविद्यालयों की संख्या में भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है।
क्यूएस एशिया यूनिवर्सिटी की रैंकिंग में एशिया के कुल 856 विश्वविद्यालयों को शामिल किया गया है। लेकिन सिर्फ 250 विश्वविद्यालयों की रैंकिंग को ही विभिन्न मानकों की कसौटी पर परखा गया है, बाकियों को एक झुंड की शक्ल में रखा गया है। क्यूएस की वेबसाइट पर पड़ताल की गई तो कई तथ्य देखने को मिले। एशिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में पहले 10 में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय शामिल नहीं है। पहले स्थान पर चीन की पेंकिंग यूनिवर्सिटी, 2. रैंकिंग पर हांगकांग यूनिवर्सिटी, 3. नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर, 4. नान्यांग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी सिंगापुर, 5.त्सिंघुआ विश्वविद्यालय बीजिंग, 6. ज्हेझियंग यूनिवर्सिटी हांगझाऊ, 7.फुदान यूनिवर्सिटी शंघाई, 8. योंसेई यूनिवर्सिटी सेओल (दक्षिण कोरिया), 9. कोरिया यूनिवर्सिटी सेओल व 10. चायनीज यूनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग हैं।
इसमें 4 विश्वविद्यालय चीन में हैं, जबकि हांगकांग, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया के 2-2 और सिंगापुर के एक विश्वविद्यालय को शामिल किया गया है। भारत का एक भी शैक्षिणिक संस्थान इस रैंकिंग में पहले 39 स्थान पर नहीं है। 40वें स्थान पर आईआईटी मुंबई को रखा गया है। असल में क्यूएस रैंकिंग ने दक्षिण एशिया की अलग से रैंकिंग जारी की है जिसमें आईआईटी मुंबई को पहला मुकाम हासिल है। आईआईटी मुंबई की वर्ल्‍ड रैंकिंग 149 है।
भारत का मध्य वर्ग अपने बच्चों को ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया में किसी भी तरह प्रवेश दिलाने की जुगत में लगा दिखाई देता है । देश के विश्वविद्यालय अनेक मुश्किलों से दो-चार हैं। अपर्याप्त संसाधन और सुविधाओं के अतिरिक्त छात्रों को सलाह देने के लिए सीमित संख्या में गुणवत्तापूर्ण संकाय ही उपलब्ध हैं। अधिकांश शोधार्थी फेलोशिप के बिना शोधरत्त हैं या उन्हें समय पर फेलोशिप प्राप्त नहीं हो रही है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनके शोधकार्य को प्रभावित करता है।
इसके अलावा यूजीसी की लघु और वृहद अनुसंधान परियोजना योजनाओं के तहत प्रदत्त अनुदान वित्त वर्ष 2016-17 में 42.7 करोड़ रुपए से घटकर वित्त वर्ष 2020-21 में मात्र 38 लाख रुपए रह गया है। भारत में 1040 से अधिक विश्वविद्यालय हैं, लेकिन 2.7 फीसदी में ही पीएचडी कार्यक्रमों का संचालन किया जाता है क्योंकि वे वित्तपोषण की कमी और खराब अवसंरचना से ग्रस्त हैं। काफी जगह शैक्षणिक मानकों और प्रक्रियाओं को बहाल नहीं किया जा रहा है।
विश्वविद्यालयों की वित्तीय समस्या की हमें गंभीरता को समझना होगा। अनेक विश्वविद्यालयों के बुनियादी ढांचे में निवेश घटा है। केंद्रीय स्तर पर वित्त वर्ष 2022-23 में छात्र वित्तीय सहायता को घटाकर 2078 करोड़ रुपए कर दिया गया (वित्त वर्ष 2021-22 में 2482 करोड़ रुपए)। अनुसंधान और नवाचार हेतु आवंटन में 8 फीसदी की कमी आई जो वर्तमान में 218 करोड़ रुपए रह गया है। उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी जो संस्थानों को सभी अवसंरचना ऋणों के लिए धन मुहैया कराती है, के बजट को वित्त वर्ष 2020-21 में 2000 करोड़ रुपए से घटाकर वित्त वर्ष 2021-22 में एक करोड़ रुपए कर दिया गया।
कुछ सीमित विकल्पों के साथ विश्वविद्यालयों को ऋण लेने के लिए विवश किया गया है। इसमें सुधार जरूरी है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को वित्त वर्ष 2021-22 में 4693 करोड़ रुपए की तुलना में वित्त वर्ष 2022-23 में 4900 करोड़ रुपए आवंटित किए गए, लेकिन नकदी प्रवाह में कमी के कारण डीम्ड/केंद्रीय विश्वविद्यालयों के वेतन भुगतान में देरी हुई। संकाय सदस्यों को वेतन प्राप्त होने में महीनों तक देरी का सामना करना पड़ता है। अधिकांश विश्वविद्यालय घाटे में चल रहे हैं। मद्रास विश्वविद्यालय को 100 करोड़ रुपए से अधिक का संचित घाटा झेलना पड़ा, जिससे उसे राज्य सरकार से 88 करोड़ रुपए का अनुदान लेने हेतु विवश होना पड़ा। अन्य राज्यों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। उच्च शिक्षा में अधिकतर भर्तियां राज्य विश्वविद्यालयों और उनके संबद्ध कॉलेजों द्वारा की जाती हैं। लेकिन तुलनात्मक रूप से इन राज्य विश्वविद्यालयों को कम अनुदान मिलते हैं।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के बजट का 65 प्रतिशत हिस्सा केंद्रीय विश्वविद्यालयों और उनके कॉलेजों को मिलता है, जबकि राज्य विश्वविद्यालयों और उनके संबद्ध कॉलेजों को शेष 35 प्रतिशत ही प्राप्त होता है। वर्तमान में विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में प्रोफेसरों की जिम्मेदारी और प्रदर्शन को सुनिश्चित करने के लिए कोई तंत्र मौजूद नहीं है।
इसकी बजाय विदेशी विश्वविद्यालयों में कॉलेज फैकल्टी के प्रदर्शन का मूल्यांकन उनके सहकर्मियों और विद्यार्थियों द्वारा किया जाता है। इस संबंध में विद्यार्थियों और सहकर्मियों द्वारा दिए गए फीडबैक के आधार पर प्रोफेसरों के प्रदर्शन के ऑडिट की एक प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त समय-समय पर दूसरे इनपुट्स जैसे रिसर्च पेपर, शिक्षकों के पब्लिकेशंस को भी प्रदर्शन ऑडिट में जोड़ा जाना चाहिए।
विश्वविद्यालयों में शिक्षण के पेशे को अधिक लाभप्रद बनाने के लिए फैकल्टी को कंसल्टेंसी प्रोजेक्ट्स चलाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और स्टार्टअप्स के लिए वित्तीय सहयोग प्रदान करना चाहिए। विश्वविद्यालयों को ऋण और वित्तीय सहायता के लिए समर्पित वित्तपोषण धारा स्थापित करने के साथ-साथ वित्तपोषण में वृद्धि करने की तत्काल आवश्यकता है। स्टार्टअप रॉयल्टी और विज्ञापन जैसे अन्य राजस्व धाराओं का उपयोग करने के लिए भी विश्वविद्यालयों को छूट दी जानी चाहिए। इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने की सख्त जरूरत है।

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