सुप्रीम कोर्ट का हाल ही में यह कहना पत्रकारिता में काम करने वालों के लिए बहुत बड़ी राहत है कि रिपोर्टिंग में गलती भी हो जाए तो भी नेताओं को पत्रकारों की ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ पर रोक नहीं लगानी चाहिए। देश की सर्वोच्च अदालत के इस ऑब्जर्वेशन ने मीडिया में काम करने वाले उन लोगों को बहुत बड़ा संबल दिया है जिन पर काम के दौरान सही गलत का फैसला करने में जरा सी भी चूक हो जाने पर सजा की तलवार लटकी रहती है।
देश के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस ए.एम. खानविलकर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड की खंडपीठ ने सोमवार को अपना यह मत बिहार की पूर्व विधायक रहमत फातिमा अमानुल्लाह की अर्जी खारिज करते हुए दिया। खंडपीठ ने कहा कि नेताओं को ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ देनी ही होगी।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस ऑब्जर्वेशन के संदर्भ में एक ताजा मामले को देखें तो हालात कुछ और ही बयां करते नजर आते हैं। यह मामला चंडीगढ़ के दैनिक ‘द ट्रिब्यून’ की एक रिपोर्ट से जुड़ा है, जो अखबार की संवाददाता रचना खेड़ा ने आधार कार्ड संबंधी जानकारियां लीक होने के संबंध में प्रकाशित की थी। रचना की रिपोर्ट कहती है कि चंद रुपयों के लिए करोड़ों आधार कार्ड की जानकारी को बेचा जा रहा है।
‘द ट्रिब्यून’ की खबर में दावा किया गया था कि उसकी रिपोर्टर ने एक व्हाट्सएप ग्रुप से मात्र 500 रुपए में आधार का डाटा हासिल करनेवाली सर्विस खरीदी और उन्हेंै करीब 100 करोड़ आधार कार्ड का एक्सेस मिल गया। इस दौरान लोगों के नाम, पते, पिन कोड, फोटो, फोननंबर और ईमेल आईडी की जानकारी हासिल हो गई।
अखबार के मुताबिक तहकीकात के दौरान संपर्क में आए एक एजेंट ने केवल 10 मिनट में ही एक गेटवे और उसका लॉग-इन पासवर्ड दे दिया। उसके बाद उन्हें सिर्फ आधार कार्ड का नंबर डालने भर से किसी भी व्यक्ति की निजी जानकारी आसानी से मिल गई। 300 रुपए और देने पर उन्हें उस आधार कार्ड की जानकारी प्रिंट करवाने का भी एक्सेस मिल गया।
इस मामले में उस समय बड़ा पेंच आया जब खबर को लेकर दिल्ली पुलिस ने यूनीक आईडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (यूआईडीएआई) की शिकायत पर एक एफआईआर दर्ज कर ली। खबरें छपीं कि यह एफआईआर अखबार और उसकी रिपोर्टर के खिलाफ दर्ज की गई है। इस पर पत्रकारों की प्रतिष्ठित संस्था एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने पुलिस के कदम की कड़ी आलोचना करते हुए इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला बताया और निष्पक्ष जांच कराने के साथ ही रिपोर्टर पर दर्ज केस वापस लेने की मांग की।
मामला उछला तो सोमवार को ही कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सफाई दी कि सरकार मीडिया की आजादी के पक्ष में है, जो एफआईआरदर्ज की गई है वह किसी व्यफक्ति के खिलाफ न होकर अज्ञात व्यक्ति के नाम पर है। हमने यूआईडीएआई से मामले की जांच करने और ट्रिब्यूनअखबार तथा उसकी रिपोर्टर से बात कर, खबर से जुड़े सभी तथ्य हासिल करने को कहा है।
यूआईडीएआई ने भी यू टर्न लेते हुए कहा कि वह प्रेस की आजादी के लिए प्रतिबद्ध है। हम अखबार और खबर लिखने वाली पत्रकार से बात करेंगे, जिससे असली दोषियों तक पहुंचा जा सके। साथ ही अगर अखबार और उसके पत्रकार के पास कोई सुझाव हों तो उन्हें भी वे हमारे साथ साझा कर सकते हैं। इस पूरे मामले के दो पहलू हैं। पहला है खबर को लेकर अखबार और उसकी रिपोर्टर पर यूआईडीएआई द्वारा एफआईआर करवाना और दूसरा उसके उलट कानून मंत्री का यह कहना कि एफआईआर नामजद नहीं बल्कि अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ हुई है।
लोगों को गुमराह करने वाली इस स्थिति का खुलासा आल्टन्यूज डॉट कॉम की वह रिपोर्ट करती है जिसमें एफआईआर के हवाले से साफ साफ बताया गया है कि उसके पहले पन्ने पर भले ही अज्ञात व्यक्ति लिखा हो लेकिन रिपोर्ट के भीतर शिकायत में अखबार और उसकी रिपोर्टर के नाम का साफ उल्लेख किया गया है।
ट्रिब्यून में प्रकाशित रिपोर्ट के तथ्यों की पड़ताल और उसका फॉलोअप करते हुए मंगलवार को नवभारत टाइम्स डॉट कॉम ने खबर जारी की कि यूआईडीएआई ने घटना के बाद सभी अधिकृत अफसरों की आधार पोर्टल तक आसान पहुंच को रोक दिया है। ऐसे करीब 5000 अधिकारी थे जिन्हें किसी आधार धारक का नाम, पता, जन्म तिथि आदि की जानकारी देखने की इजाजत थी। इसके लिए उन्हें 12 अंकों वाला यूनीक आइडेंटिटी नंबर दर्ज भर करना होता था ताकि जानकारी में कोई बदलाव किया जा सके। पर अब ऐसी पहुंच नहीं हो सकेगी।
यदि नवभारत टाइम्स की खबर सही है तो यह एक तरह से इस बात की पुष्टि है कि यूआईडीएआई के सिस्टम में वे खामियां मौजूद थीं जिनके जरिये कोई भी आधार से जुड़ी जानकारियों तक सेंध लगा सकता था। यानी ट्रिब्यून की रिपोर्टर ने जो खबर फाइल की थी वह हवा-हवाई नहीं थी।
दुर्भाग्य और चिंता की बात यह है कि अपने सिस्टम में खामी को उजागर करने वाली या उस ओर संकेत करने वाली जनहित से जुड़ी एक सूचना पर यूआईडीएआई ने पड़ताल करके उस खामी को दूर करने के उपाय करने के बजाय उलटे उस सूचना देने वाले के खिलाफ ही एफआईआर करवाकर एक तरह से उसे धमकाने की कोशिश की।
अब इन हालात में जरा सुप्रीम कोर्ट के उस ऑब्जर्वेशन को देखिए जो उसने रिपोर्टरों द्वारा दी जाने वाली जानकारियों को ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ से जोड़कर व्यक्त किया है। निश्चित रूप से मीडिया को भी सुप्रीम कोर्ट के इस ऑब्जर्वेशन की मूल भावना को समझते हुए अपनी जिम्मेदारी और भी गंभीरता से निभानी होगी, लेकिन उससे पहले, राजनीतिक नेतृत्व और सरकारी मशीनरी को समझना होगा कि सूचनाओं को सामने लाने वाले तंत्र को कानून के डंडे के जोर पर कुचलना खुद उनके लिए घातक है।
सुप्रीम कोर्ट ने तो रिपोर्टिंग में गलती हो जाने पर भी नेताओं को नसीहत दी है कि वे पत्रकारों की अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक न लगाएं,पर हकीकत यह है कि गलती तो छोडि़ए यहां तो सच को उजागर करने पर भी मुंह बंद करने की धमकियां मिल रही हैं।