इलाज जब कारगर न हो तो अंधविश्‍वास हावी होने लगता है

एक पखवाड़ा मौत के साथ- 10

डॉक्‍टर और मरीज में बाकी बातों के अलावा भरोसे का भी रिश्‍ता होता है। या यूं कहें कि दोनों के बीच बीमारी के इलाज से भी बड़ा रिश्‍ता भरोसे का ही होता है। डॉक्‍टर कह दे कि बीमारी नहीं है तो गंभीर बीमारी का शिकार मरीज भी एकबार तो राहत महसूस कर ही लेता है। और भले चंगे इंसान को यदि डॉक्‍टर बीमार बता दे तो वह शारीरिक रूप से न सही लेकिन मानसिक रूप से खुद के बीमार होने का रोग पाल लेता है।

आज भी कई लोगों के पास अपना एक डॉक्‍टर तो ऐसा होता ही है जिसकी बात पर वे आंख मूंदकर भरोसा करते हैं। कुछ लोग इन्‍हें फैमिली डॉक्‍टर भी कहते हैं। ऐसा इसलिए कि वह परिवार के हर सदस्‍य का इलाज करता है। इलाज करते करते वह हरेक की तासीर जान जाता है और तासीर जान कर वैसा ही इलाज भी करता है। इसलिए डॉक्‍टर का आप पर हो या न हो लेकिन आपका डॉक्‍टर और उसके इलाज पर भरोसा होना जरूरी है।

दुर्भाग्‍य से हमारे साथ जो जो घट रहा था उसमें हम सबकुछ कर रहे थे, लेकिन उसके बावजूद न तो डॉक्‍टरों पर हमारा भरोसा कायम हो पा रहा था और न ही उनके इलाज पर। मैं यह नहीं कहता कि डॉक्‍टर जानबूझकर लापरवाही बरत रहे थे या गलत इलाज कर रहे थे, लेकिन हां,हम उनकी बातों पर यकीन नहीं कर पा रहे थे… हालांकि ऐसी परिस्थितियों में व्‍यक्ति बहुत ज्‍यादा शंकालु हो भी जाता है।

जिस तरह के हालात थे, उसमें मुझ पर यह दबाव था कि मैं कुछ करूं, ताकि कम से कम यह तो पता चल जाए कि वास्‍तव में ममता को हुआ क्‍या है, उसकी हालत कैसी है, उसे जो इलाज दिया जा रहा है वह ठीक है या नहीं और क्‍या उसे कहीं और ले जाने से बात बन सकती है… मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ऐसी नाजुक घड़ी में लिया जाने वाला कोई भी फैसला या सलाह दुधारी तलवार की तरह होती है माफिक आ जाए तो वाह, वरना आह…

मेरे साथ भी सेहत की ऊंचनीच चलती रहती है इसलिए मैंने अपने परिवार की सेहत की कमान इंदौर में एक पारिवारिक डॉक्‍टर के हाथ में छोड़ रखी हैं। वही भरोसे वाली बात… सो मैंने ममता के केस को लेकर अपने डॉक्‍टर से बात की। संयोग से उन्‍होंने कहा कि वे दो चार दिन में भोपाल आ रहे हैं, समय निकाल कर ममता को देख लेंगे। जब मैंने यह जानकारी परिवार के सदस्‍यों को दी तो उनके चेहरे पर तसल्‍ली का भाव आया कि चलो अब कुछ तो पक्‍का पता हो सकेगा…

तयशुदा दिन को डॉक्‍टर साहब आए, उन्‍होंने खुद आइसोलेशन वार्ड में जाकर ममता को देखा और नीचे आकर मुझसे कहा, लक्षण तो रेबीज के ही हैं…। मैंने पूछा- तो आप क्‍या कहते हैं? वे बोले 24 से 48 घंटे बहुत क्रूशियल हैं… बाकी उनका कहना था कि इलाज तो ठीक ही चल रहा है, कहीं और ले जाने की स्थिति नहीं है, घर पर ले जाने की तो सोचना भी मत क्‍योंकि आप पेशेंट को संभाल नहीं पाओगे…। सच कहूं,इस बार मैं भी निराशा में डूब गया। मेरे डॉक्‍टर साहब यदि कह रहे हैं कि मामला गड़बड़ है तो फिर जरूर गड़बड़ है…

मैंने उनसे कहा, अच्‍छा होगा यदि आप अपनी राय ममता के पति से भी शेयर कर लें। इस अनुरोध के पीछे मेरा मानना था कि यदि कोई अनहोनी होनी ही है तो परिवारवालों को एकदम से शॉक न लगे, खासतौर से उसके पति को तो इस बारे में विश्‍वास में लेकर बात बतानी ही होगी, भले ही घर में और किसी को यह बात न बताई जाए। मेरे अनुरोध पर डॉक्‍टर साहब ने ममता के पति से बात की और सीधे सीधे कोई राय देने के बजाय इतना हिंट किया कि अगले 24 से 48 घंटे बहुत नाजुक हैं।

पर ऐसी बातें छिपती कहां हैं, आप मुंह से न बताएं तो भी आपकी आंखें और आपका चेहरा सबकुछ कह देता है। घर के बाकी लोग कह कुछ नहीं रहे थे, लेकिन मन ही मन सब किसी अनहोनी की दस्‍तक को साफ महसूस करने लगे थे। विज्ञान और तर्क जब समाधान नहीं दे पाते तो व्‍यक्ति अंधविश्‍वास की तरफ मुड़ता है, सो वो बातें भी होने लगी थीं।

यही वह वक्‍त होता है जब व्‍यक्ति भाग्‍यवादी हो जाता है। इतने सारे कष्‍ट और उतार चढ़ाव सहने के बाद इलाज की चिंता से इतर बदकिस्‍मती की बातें होने लगी थीं। हमारे समाज की जो संरचना है उसमें भी यह बात बहुत गहरे पैठी हुई है कि आपके ठीक होने के लिए जितना डॉक्‍टर का अच्‍छा होना जरूरी है उससे कहीं अधिक जरूरी है आपकी किस्‍मत का अच्‍छा होना। यही कारण था कि ममता की कुंडली और उसकी ग्रहदशा भी खंगाली जाने लगी थी। इसके साथ ही पूजापाठ का सिलसिला भी शुरू हो गया था।

डॉक्‍टरों ने पहले हमें कहा था कि ऐसे मरीज के पास आमतौर पर मुश्किल से 7 से 10 दिन का समय होता है, बाद में यह अवधि 12 से 14 दिन हो गई थी। इधर हम समझ नहीं पा रहे थे कि ये 7-10 दिन या 12-14 दिन कब से शुरू मानें। उस दिन से जब से ममता को तकलीफ हुई या उस दिन से जब से उसे अस्‍पताल में भरती किया गया। तकलीफ शुरू होने के दिन के लिहाज से तो सारी मियादें पूरी हो चुकी थीं।

अस्‍पताल में भरती करने की तारीख को आधार माना जाता तब भी वह 12 दिन निकाल चुकी थी। जैसे जैसे दिन निकल रहे थे वैसे वैसे हमारी सांसें भी अटकती जा रही थीं लेकिन साथ ही चमत्‍कार की उम्‍मीद भी बढ़ती जा रही थी। डॉक्‍टरों द्वारा दी गई मियाद के बाद जैसे ही एक अतिरिक्‍त दिन निकलता, हमारे भीतर चमत्‍कार की आस भी उतनी ही जोर से हिलोरें लेने लगती…

कल पढ़ें- क्‍या सचमुच किसी चमत्‍कार की गुंजाइश बची थी 

 

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