जब श्रीनिवास तिवारी डॉ लोहिया से ही भिड़ गए..

पुण्य स्मरण

जयराम शुक्ल

श्रीनिवास तिवारी रीवा से लेकर भोपाल दिल्ली तक यथार्थ से ज्यादा किंवदंती के जरिए जाने गए। दंतकथाएं और किंवदंतियां ही साधारण आदमी को लोकनायक बनाती हैं। विंध्य के छोटे दायरे में ही सही तिवारीजी लोकनायक बनकर उभरे और रहे। मैंने अब तक दूसरे ऐसे किसी नेता को नहीं जाना जिनको लेकर इतने नारे, गीत-कविताएं गढ़ी गईं हों। सच्चे-झूठे किस्से चौपालों और चौगड्डों पर चले हों। आज उनकी पुण्यतिथि है..।

राजनीति उनके रगों में थी या यूँ कहें कि उनका राजनीतिक जुड़ाव जल व मीन की भांति रहा। वे अच्छे से जानते थे कि इसे कैसे प्रवहमान बनाए रखा जाए। वे जितने चुनाव जीते लगभग उतने ही हारे लेकिन उन्होंने खुद को हारजीत के ऊपर बनाए रखा। कविवर सुमन की ये कविता- ‘’क्या हार में क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं, संघर्ष पथपर जो मिले, यह भी सही वह भी सही।‘’ अटलबिहारी वाजपेयी की जुबान से निकलने के पहले उनकी जुबान से सन् 1985 में तब निकली थी, जब अर्जुन सिंह ने उनकी टिकट काट दी थी।

लोगों याद होगा, अमहिया में 20 से 25 हजार समर्थकों की भीड़ उन पर यह दबाव बनाने के लिए डटी थी कि वे कांग्रेस से बगावत करके न सिर्फ लड़ें अपितु विंध्य की सभी सीटों से अपने उम्मीदवार खड़ा करके कांग्रेस को सबक सिखाएं। तिवारी जी ने समर्थकों को यह कहते हुए धैर्य रखने को कहा कि कांग्रेस का मतलब अकेले अर्जुन सिंह थोड़ी न है और भी बहुत कुछ है। देखते जाइए..। और फिर 85 में अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के दूसरे दिन जब राजीव गांधी ने उनसे इस्तीफा लेकर पंजाब का राज्यपाल बनाया, तब उनके समर्थकों को तिवारी जी के कहे का मतलब समझ में आया और यह वाकया भी दंतकथाओं में चला गया।

अर्जुन सिंह से इस्तीफा लिए जाने के पीछे तिवारीजी की कोई भूमिका रही हो या न रही हो पर किसी घटनाक्रम को राजनीति में अपने हिसाब से कैसे मोड़ा जा सकता है तिवारीजी से बेहतर कोई नहीं जानता। यद्यपि प्रचंड विरोध के बाद भी अर्जुन सिंह से उनके संवाद निरंतर कायम रहे। तिवारीजी कहा करते थे- प्रतिद्वन्द्विता में संवादहीनता स्थायी दुश्मन बना देती है और राजनीति में न कोई दोस्त होता और न दुश्मन। समय के साथ भूमिका बदलती रहती है।

आगे दिग्विजय सिंह के साथ यही हुआ भी। 1993 में तिवारीजी श्यामाचरण शुक्ल को मुख्यमंत्री बनाने की मुहिम के अगुआ थे लेकिन बन गए दिग्विजय सिंह और बाद में प्रदेश ने दिग्विजय सिंह, तिवारीजी की युति को भी देखा और दोस्ती को भी। तिवारीजी को आमतौर पर समाजवादी नेता के तौर पर देखा जाता था। 72 में कांग्रेस में आने के बाद गाँधीवादी भी हो गए ऐसा लोग मानते हैं। हकीकत तो यह है कि तिवारीजी न समाजवादी थे, न गाँधीवादी। वे यथार्थवादी थे, वे अपने वाद के खुद प्रवर्तक थे उनके आदर्श का खुद का अपना पैमाना था।

कभी भी किसी भी इंटरव्यू में न तो उन्होंने लोहियाजी को अपना आदर्श माना और न ही गाँधीजी को। वे अपने आदर्श की खोज जनता के सैलाब में करते थे। उनका आदर्श कोई व्यक्ति नहीं बल्कि भाव था और वह भाव था जनता-जनार्दन। जनता जनार्दन कहने वाले तो आज भी बहुतेरे हैं, पर उसे वाकयी जनार्दन मानने वाले वे बिरले नेता थे। हाँ उन्‍होंने अपने नेता के रूप में जिंदगी में सिर्फ दो लोगों को स्वीकार किया, एक जगदीश जोशी जिनकी बदौलत वे सोशलिस्टी हुए, दूसरी इंदिरा गांधी जिनके भरोसे वे काँग्रेस में शामिल हुए।

काँग्रेस में रहते हुए भी सभी समाजवादी उन्हें अपनी बिरादरी का मानते रहे, लेकिन ये बात बहुत कम लोगों को ही मालूम होगी कि उनकी डॉक्‍टर लोहिया से कभी नहीं पटी। वजह तिवारीजी इतने दुस्साहसी थे कि लोहिया को भी तड़ से जवाब देने से नहीं चूकते थे। उन्‍होंने दो घटनाएं मुझसे साझा की थीं, पहली सन् 52 के पहले आम चुनाव की थी। लोकसभा के चुनाव में सीधी संसदीय क्षेत्र से भगवानदत्त शास्त्री को सोशलिस्ट पार्टी से उतारा गया था। शास्त्री जी को सिंबल मिला, उन्होंने पर्चा भी दाखिल कर दिया। इसी बीच लोहियाजी को क्या सूझी कि वे कानपुर के एक उद्योगपति सेठ रामरतन को लेकर आ गए, कहा सीधी से सोपा की टिकट पर अब ये लड़ेगे।

लोहिया के फैसले को चुनौती देना उन दिनों सोशलिस्टों के लिए भगवान को चुनौती देना था। साथियों की रोकटोक के बाद भी तिवारीजी ने कहा हम डॉक्‍टर साहब का फैसला नहीं मानेंगे। ये क्या बात हुई, दिन भर सेठ साहूकारों, जमीदारों के खिलाफ बोलो और रात को सेठों से समझौता? नहीं होगा ऐसा। तय हुआ कि शास्त्रीजी पर्चा वापस लें और रामरतन सोपा के उम्मीदवार बनें। सहज स्‍वभाव वाले शास्त्री तो तैयार बैठे थे। पर जिस दिन परचा वापस लेने की बात आई, तिवारीजी सीधी पहुँचे, एक सायकिल जुगाड़ी, किसी बहाने शास्त्रीजी को सायकिल के डंडे पर बैठाया और उन्हें लेकर जंगल भाग गए। जब पर्चा वापस लेने की मियाद खत्म हुई तभी लेकर लौटे।

कल्पना कर सकते हैं कि लोहियाजी का गुस्सा कैसा रहा होगा। पर राजनीति में करियर बनाने के दिनों में तिवारीजी के ये तेवर थे। किसी ने पूछा- ऐसा क्यों किया? तिवारीजी ने जवाब दिया चुनाव जनता जिताती है, लोहिया नहीं। खैर लोकसभा के पहले आम चुनाव में सीधी लोकसभा सीट से भगवानदत्त शास्त्री जीते लोहियाजी के सेठ रामरतन नहीं। जबकि लोहियाजी ने भी सभाएं की थीं व शास्त्री से रामरतन को वोट देकर विजयी बनाने की अपील भी करवाई।

दूसरा वाकया था जब मध्यप्रदेश का गठन हुआ तो विधानसभा में सोपा विधायक दल का नेता कौन हो? लोहियाजी का विचार था कि पिछड़े वर्ग से आने वाले बृजलाल वर्मा हमारे दल के नेता बनें। तिवारी यद्यपि 56 का चुनाव हार चुके थे फिर भी उन्होंने लोहियाजी से खुले मुँह कहा नेता तो जगदीश जोशी होंगे, हम जाति के सवाल पर योग्यता को बलि नहीं चढ़ने देंगे। डॉक्‍टर लोहिया तुनककर चले गए। इधर जोशीजी को ही सोपा विधायक दल का नेता चुना गया। लोहियाजी इतने खफा हुए कि तिवारीजी को सभी समितियों से निकाल बाहर किया, पर तिवारी तो तिवारी ही थे, दुस्साहसी, निश्चय के पक्के दृढ़ चट्टान की भांति अड़े रहने वाले।

राजनीतिक प्रतिबद्धता कोई तिवारीजी से सीखे। जहाँ रहो आखिरी साँस तक उसी को जियो और यदि त्याग दिया तो-तजौ चौथि के चंद की नाईं। विंध्यप्रदेश की विधानसभा में जमींदारी उन्मूलन, ऑफिस ऑफ प्राफिट तथा विलीनीकरण के खिलाफ उनके ऐतिहासिक भाषण हुए। बीबीसी तक ने उन भाषणों को कवर किया था ऐसा जोशीजी बताते थे। तिवारीजी के भाषणों में पंडित शंभूनाथ शुक्ल नहीं बल्कि पं. जवाहरलाल नेहरू निशाने पर रहते थे। यहाँ तक कि लोहिया एक बार इस बात से नाराज भी हो गए थे कि अपना स्तर देख के विरोध करना चाहिए। नेहरू पर तो लोहिया ही अँगुली उठा सकता है तिवारी को कहो कि वह अपने मुख्यमंत्री तक सीमित रहा करें।

पर तिवारी कहाँ किसी की सुना करते थे। उस पचीस साल की उमर में तिवारी जी को ‘मेयो की पार्लियामेंट्री प्रैक्टिस’ रटी थी। आफिस ऑफ प्राफिट वाली बहस में उनका भाषण लाजवाब था। आगे चलकर नजीर भी बना। कुछ साल पहले जब सोनिया गाँधी, जया बच्चन व अन्य नेताओं पर ये सवाल पार्लियामेंट में खड़ा हुआ तो विंध्यप्रदेश की ये बहस वहाँ नजीर के तौर पर पेश की गई। तिवारीजी सन् 72 में चंदौली सम्मेलन में जगदीशचंद्र जोशी के कहने पर कांग्रेस में शामिल हुए। तब वे मनगँवा से विधायक थे। इसके बाद वो कांग्रेस में साँस लेने लगे। उन्होंने बताया था कि जब वे कांग्रेसी बन के रीवा लौटे तो साथियों से कह दिया कि सोशलिस्ट पार्टी को वे गंगा में बहा आए हैं, अब कांग्रेस में जीना और यहीं मरना।

तिवारीजी कितने प्रतिबद्ध कांग्रेसी बन गए थे इससे अनूठा उदाहरण राजनीति के इतिहास में कुछ हो ही नहीं सकता जो उन्होंने विधानसभा में अपने भाषण में दिया। सन् 74 में जयप्रकाश नारायण का आंदोलन चरम पर था, तिवारीजी ने मध्यप्रदेश की विधानसभा में कांग्रेस की ओर से भाषण देते हुए यहाँ तक कह डाला- जयप्रकाश नारायण ने सेना और पुलिस को विद्रोह के लिए आह्वान किया है, यह सरासर राष्ट्रद्रोह है उन्हें तत्काल गिरफ्तार कर जेल में डाल देना चाहिए..।

ये शब्द उन तिवारीजी के थे, जो सोशलिस्ट पार्टी में रहते हुए डॉक्‍टर लोहिया से ज्यादा जयप्रकाश को मानते थे। उन्हीं जयप्रकाश ने 1950 में रीवा में हिंद किसान पंचायत के सम्मेलन में जोशी-जमुना-श्रीनिवास का नारा दिया था। तिवारीजी के लिए राजनीति के अपने नियम थे। वे जुनूनी थे राजनीति में रिश्ते और दिल निकाल कर ताक पर रख देते थे। 75 में इमरजेंसी लगी। उनके पुराने समाजवादी साथी जेल में बंद कर दिए गए, जोशीजी जो कि अब कांग्रेस में उनके नेता थे, जब कभी जेल में बंद पुराने समाजवादी साथियों के प्रति सहानुभूति दर्शाते, तो तिवारीजी कहते कि हमारी पार्टी (कांग्रेस) और नेता (इंदिरा गांधी) के विरोधी हैं इन लोगों को जेल में ही सड़ना चाहिए।

कवि ह्रदय जोशीजी ने अंततः कांग्रेस छोड़ने का मन बना लिया। तिवारीजी और अच्युतानंदजी को बुलाकर कहा चलो अब जनता पार्टी में लौट चलते हैं। तिवारी जी ने जवाब दिया- खसम किया बुरा किया, करके छोड़ दिया और बुरा किया। तब तो हम सोपा छोड़ना ही नहीं चाहते थे, आपने छुड़वा दी, अब जहाँ हूँ वहीं रहूँगा आपको जाना हो जाइए। तबके इंदिरा गांधी के अत्यंत नजदीक, परम विश्वासी जोशीजी जनता पार्टी में चले गए। तिवारीजी ने एक सभा में संभवतः जोशीजी की शोकसभा में कहा था- जोशी जी तब कांग्रेस नहीं छोड़े होते तो वे 1980 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते। कुछ समय तक इंदिराजी के यहाँ जोशीजी की वही हैसियत थी जो आज सोनिया गाँधी के यहाँ अहमद पटेल की है।

तिवारीजी राजनीति में बड़ी लकीर खींचने के बजाय उस लकीर को मिटाकर अपनी खींचने पर यकीन करते थे। अल्पकाल के लिए मंत्री और दस वर्ष तक विधानसभाध्यक्ष रहते हुए यही किया। अस्सी की शुरुआत में उनकी अर्जुनसिंह से गाढ़ी छनती थी। वजह 77 में नेता प्रतिपक्ष बनाने में तिवारीजी ने अर्जुनसिंह के लाए लॉबिंग की थी। तेजलाल टेंभरे इस पद के बड़े दावेदार थे। समाजवादी पृष्टभूमि होने के नाते वे मानकर चल रहे थे कि तिवारीजी और उनका गुट सपोर्ट करेगा पर तिवरीजी ने कृष्णपाल सिंह व अन्य को अर्जुनसिंह के लिए तैयार किया।

80 में मुख्यमंत्री बनने के बाद हाल यह था कि अर्जुनसिंह तिवारीजी के बंगले में रायमशवरा करने जाते थे। तिवारीजी की कई टिप्स उनके काम भी आई। जैसे अर्जुनसिंह मुख्य सचिव को बरखास्‍त करने का साहस ही नहीं जुटा पा रहे थे। तिवारीजी ने अर्जुन सिंह से कहा कि ये पुण्य काम कल करना चाहते हैं तो आज अभी करें तभी प्रदेश चला पाएंगे। फिर जो हुआ प्रदेश जानता है। समस्त नियमों को शिथिल करते हुए की भाषा तिवारीजी ने ही दी।

तिवारीजी की तार्किकता का कोई जवाब नहीं। एक बार उन्होंने शिक्षा विभाग की फाइल में टीप लिख दी। हंगामा मच गया। कैबिनेट में तिवारीजी ने कहा कि मैंने मंत्री पद की शपथ ली है विभाग की नहीं। हर फैसले की जब सामूहिक जिम्मेदारी होती है तो मेरे विभाग में भी शिक्षामंत्री का उतना ही अधिकार है जितना मेरा उनके विभाग में। विभाग वितरण तो एक व्यवस्था है। कैबिनेट में मुख्यमंत्री की हैसियत को लेकर ‘फर्स्‍ट एमंग इक्वल’ का सवाल उन्होंने तभी उठा दिया था जो आज सुप्रीम कोर्ट के जज लोग उठा रहे हैं। स्वास्थ्य मंत्री पद से उनका इस्तीफा नितांत वैयक्तिक व पारिवारिक कारणों से हुआ था।

अर्जुनसिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए भी तिवारी जी की दहशत का आलम यह था कि कांग्रेस में रहते हुए ही सहकारिता मंत्री राजेन्द्र जैन का ऐसा मसला उठा दिया कि लगा कि सरकार ही गिर जाएगी। उनके हरावल दस्ते में मोतीलाल वोरा, केपी सिंह, शिवकुमार श्रीवास्तव, हजारीलाल रघुवंशी, राणा नटवर सिंह, राजेन्द्रसिंह ग्वालियर जैसे दिग्गज हुआ करते थे। 85 में इन सबकी टिकट कटी।

विधानसभाध्यक्ष रहते हुए उन्होंने देश को बताया कि स्पीकर क्या होता है। उनका फार्मूला था- मोटी चमड़ी खुली जुबान। स्पीकर रहते हुए उन्होंने सबसे ज्यादा संरक्षण विपक्ष के विधायकों दिया। वे जिग्यासु विधायकों के सच्चे मायनों में गुरू थे। भाजपा की दूसरी लाइन के जो नेता आज मप्र, छग में राज कर रहे हैं प्रायः संसदीयज्ञान के मामले में तिवारीजी के ही तराशे हुए हैं, चाहे वे नरोत्तम मिश्र हों या छग के रमन सिंह अथवा ब्रजमोहन अग्रवाल। विधानसभा में उन्होंने कई प्रतिमान गढ़े, और संसदीय इतिहास को अविस्मरणीय बनाया।

तिवारीजी को महज एक लेख में नहीं समेटा जा सकता, वे जिंदगी भर एक खुली किताब रहे। वक्त ने उसपर मोटी जिल्द चढ़ाकर सदा के लिए बंद कर दिया। उनकी स्मृतियों को नमन! बस आज इतना ही, बाकी फिर कभी।(मध्यमत)
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