रानी पद्मावती पर पहली फिल्म 1930 में कामोनार अगुन बनी थी। फिर 1964 में महारानी पद्मिनी बनी। फिर 1964 में तमिल फ़िल्मकार सी वी श्रीधर ने चित्तौड रानी पद्मिनी फिल्म बनाई। जिसमे मुख्य भूमिकाएं शिवाजी गणेशन और वैजन्ती माला ने निभाई थी। फिर सोनी टीवी पर 2009 में रानी पद्मिनी पर एक सीरियल आया।
लेकिन संजय लीला भंसाली भारत के उन फिल्मकारों में से हैं जो जवाब देना भी ठीक नहीं समझते। यह अनुभव मुझे तब हुआ जब कुछ महीने पहले उसने बाजीराव मस्तानी फिल्म बनायी थी। जिसमे मध्यप्रदेश का कहीं जिक्र नहीं था। मैंने कई इतिहासकारों को पढ़ा लगभग सबने पेशवा की पहली पत्नी काशीबाई को कम उम्र में बीमार बताया है। भला एक बीमार इंसान नृत्य कैसे कर सकता है। पेशवा और मस्तानी की पीढ़ियां जो भोपाल, सीहोर और इंदौर मैं रहती हैं वे काफी आहत हुईं। उन्होंने कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया लेकिन तब तक फिल्म रिलीज होकर उतर भी चुकी थी।
रानी पद्मावती पर भी बहुत लिखा गया है। मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत, अमीर खुसरो के खाजा-उल-फतह से लेकर ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड की किताबAnnals and Antiquities of Rajasthan तक। जायसी से पहले छिताईचरित भी लिखा गया है। लब्दोधय का पद्मिनी चरित भी स्वतंत्र रूप से लिखा गया है जिसमे राजपूतों की वीरता का वर्णन है। रानी पद्मिनी/पद्मावती के विवाह का बहुत ही रोचक उल्लेख है।
रानी का तोता हीरामन और रानी आपस में बहुत बातें करते थे। रानी के पिता ने चिढ़कर उस तोते को मार डालने का आदेश दिया। लेकिन वह उड़ा दिया गया फिर उसे एक बहेलिये ने पकड़ कर किसी ब्राह्मण को बेच दिया उसकी बात करने की खूबी को लेकर चित्तौड़ के राजा रतन सिंह ने उसे खरीद लिया। उसी तोते ने रानी पद्मावती की सुंदरता के बारे में राजा को बताया और राजा अपने सोलह हजार सैनिकों के साथ सिंहल द्वीप जाकर रानी को ब्याह लाया।
दरअसल जायसी का लेखन, कथाएं और गाथाएं तारीखों से मेल नहीं खाते। इसी कारण रानी पद्मावती पर कई इतिहासकारों ने लिखा है, टीका टिप्पणी की है।
टॉड की किताब पर एक बंगाली नाटककार के.पी. विद्याविनोद ने एक नाटक पद्मिनी 1906 में लिखा था। टॉड ने छेड़छाड़ ये की थी कि उसने राजा रतन सिंह को राजा न बताकर लखमसी (लक्ष्मणसिंह) को राजा और रतन सिंह को उनका छोटा भाई बताया है। उसने न तो पद्मावत का कहीं जिक्र किया है न ही खुमान रासो का जो राजपूत रानियों और महिलाओं की आन बान और शान पर मर मिटने की गाथाएं हैं।
हालाँकि उसने गोरा और बादल का जिक्र किया है जिन्हे रानी ने अपने मायके श्री लंका से मदद के लिए बुलाया था। दोनों योद्धा आये और उन्होंने राजा रतन सिंह को अलाउद्दीन खिलजी की कैद से छुड़ावाया। उसके मुताबिक गोरा रानी के मामा या चाचा (उसने अंकल शब्द इस्तेमाल किया है) और बादल भतीजे थे।
हेम रतन के गोरा बादल पद्मिनी चौपाई (1589) या जवाहर लाल नेहरू के डिस्कवरी ऑफ इंडिया में भी रानी के दर्पण में दिखाए जाने का जिक्र है। सोलहवीं शताब्दी के एक फ़ारसी इतिहासकार फिरिश्ता (मुहम्मद कासिम हिन्दू शाह फिरिश्ता ) और हाजी-उद-दबीर के वृतांत जायसी से मेल नहीं खाते, यहाँ तक कि फरिश्ता ने रानी को रतन सिंह की पत्नी के बजाय बेटी बताया है। रानी पद्मावती के बारे में सोलहवीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक लिखा गया है।
कई किताबें पढ़ने के बाद आपको कुछ तथ्य एक जैसे मिलेंगे रानी सिंहल द्वीप (श्रीलंका) के राजा की बेटी थी। उसके पास हीरामन (हीरामणि) नाम का तोता था जो रानी के साथ बातें करता था यहाँ तक कि वेद पाठ करता था। या पद्मावती के पिता राजा गंधर्वसेन की पत्नी चम्पावती से जन्मी रानी पद्मावती इतनी सुन्दर थी कि अब तक इतनी सुन्दर महिला पृथ्वी पर नहीं जन्मी।
लेकिन इतिहास यह भी बताता है कि कि राजा रतन सिंह अलाउद्दीन की कैद से तो छूट गए लेकिन एक लड़ाई में पास के ही राजा देवपाल से मारे गए। अलाउद्दीन खिलजी ने दोबारा आक्रमण किया। असहाय रानी और कई अन्य साथी महिलाओं ने जौहर किया था। अलाउद्दीन को चितौड़ के किले में राख और लाशों के अलावा कुछ नहीं मिला।
इतिहास यह भी बताता है कि अलाउद्दीन खिलजी जैसे आतताइयों ने सिर्फ चित्तौड़ पर ही नहीं देवलगिरि पर भी बघेल राजपूतों पर भी जुल्म ढाये उनकी रानियों को बलात ले गया और विवाह किये। उसने पुरुषों द्वारा किये अपराध की सजा उनके बच्चों को उनकी माओं के सामने क़त्ल कर के दी। उसने गैर हिन्दुओं को घोड़े रखने, अच्छे कपडे पहिनने और अच्छा खाना खाने से वंचित किया।
दिल्ली में बना सीरी फोर्ट उसी ने बनवाया था। किवंदन्ती है की सीरी किला दरअसल 8000 मंगोल योद्धाओं के सिर काट कर नींव में डलवा कर बनवाया गया है। इसलिए इसे सिरी किला या सीरी किला कहते हैं। हमारी सरकारों ने पास ही में सीरी फोर्ट स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स और ऑडिटोरियम भी बनवा रखा है। उसका मकबरा और अलाइ मदरसा आज भी दिल्ली में हैं।
भारत में वीरों और वीरांगनाओं की गाथाएं गाने की परम्परा है। स्क्रिप्ट लिखे जाने की परम्परा नहीं है। क्योंकि वह माध्यम नयी पीढ़ी में कोई जोश पैदा नहीं करता। गाथाएँ मन में दिल में और आत्मा में समा जाती हैं। बाद में वे खून में उतर जाती हैं तभी देश वीरों का देश बनता है।
और ये गाथाएं लोक गाता है, चाहे वे अपनी मातृभूमि की शान के लिए जान लड़ा देने वाली झांसी की रानी की हों या बुंदेलखंड के विवाह गीतों में दूल्हा देव की। ये गाथाएं ही अगली पीढ़ी को वीर होने की प्रेरणा देती हैं इसीलिये वीर लोक गाथाओं से लोक में इतने समा जाते हैं कि उन्हें देवी या देवता का स्थान देकर पूजा जाने लगता है।
(शशिकांत त्रिवेदी की फेसबुक वॉल से)