क्या हर ‘जांगिड़’ की नियति ‘खेमका’ होना ही है?

अजय बोकिल

सरकारी ही क्यों, किसी भी नौकरी में निष्पक्षता, स्वविवेक और सचमुच ईमानदारी से काम करने की क्‍या कोई गुंजाइश होती है? व्यवस्था को चुनौती देने वाली हर आवाज का हश्र एक जैसा ही क्यों होता है? और यह भी कि जब सिस्टम की सनक और स्वार्थी तंत्र में रमकर ही काम करना है तो फिर नौकरी में आते समय संविधान या सत्यनिष्ठा की शपथ का स्वांग क्यों? मध्य प्रदेश के युवा आईएएस लोकेश जांगिड़ की साढ़े चार साल की नौकरी में आठवें तबादले के बाद उनके भीतर उभरे आक्रोश की अभिव्यक्ति एक आईएएस ग्रुप चैट में होने, उस चैट के वायरल होने के बाद जांगिड़ को नोटिस मिलने फिर उन्हें जान से मारने की धमकी देने और अब इस मामले के राजनीतिक रंग लेने से वो दबे सवाल फिर राख की मानिंद उड़ने लगे हैं कि ‘सिविल सेवा’ का वास्तविक अर्थ है क्या? यथा‍स्थितिवाद की कायमी में वंदना का एक और स्वर मिलाना, व्यवस्था से दो-दो हाथ कर उसे सुधारने का जोखिम उठाना या केवल अपनी मलाईदार पोस्टिंग और सुविधाओं का गेम खेलते रहना तथा इसके लिए राजनेताओं का मोहरा बनकर तंत्र को अपने‍ हिसाब से चलाना?

आखिर एक सफल नौकरशाह की परिभाषा क्या है? ताउम्र नौकरी में प्राइम पोस्टिंग के लिए हर संभव जोड़-तोड़ या फिर मिली जिम्मेदारी में व्यवस्था में सुधार के लिए नवाचार? ‘जाहि बिधी राखे राम’ के भाव से चाकरी करते रहना अथवा मौका मिलते ही हंटर चलाने लगना? हाशिए पर डाले जाने का जोखिम उठाकर भी ईमानदारी के मानक कायम करना या फिर कंबल ओढ़कर घी पीते रहना? आकाओं का हुक्का भरते रहना अथवा हर हुक्के में नई अंगार भरने का दुस्साहस करना? ये तमाम सवाल इसलिए क्योंकि लोकेश जांगिड़ को सोशल मीडिया में ‘मप्र का अशोक खेमका’ कहा जा रहा है। तो क्या व्यवस्था के दाग उजागर करने वाले हर अफसर की नियति ‘अशोक खेमका’ होना ही है? इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए हम कुछ बातों पर गौर करें।

आईएएस या ऐसी ही समकक्ष सेवाओं में ज्यादातर युवा इसलिए आते हैं क्योंकि कम उम्र में ही उन्हें बड़ी सत्ता और अधिकारों का उपभोग करने का अवसर मिलता है। बहुत से लोग इसे ‘देशसेवा का परम अवसर’ मानते हैं तो कुछ की निगाह में यह ‘भ्रष्टाचार के चरम अवसर’ का स्थायी परवाना होता है। गिने-चुने अफसर होते हैं, जो अंतरात्मा को जिंदा रखते हुए व्यवस्था में लगे घुन को चीन्हकर उन्हें मिटाने को अपना कर्तव्य मान बैठते हैं। ध्यान रहे कि कोई भी तंत्र उसे असुविधाजनक लगने वाले हर तत्व को खामोश करने या हाशिए पर डालने में संकोच नहीं करता। ऐसा नहीं कि अशोक खेमका के पहले सिस्टम के सताए हुए अफसर नहीं हुए, लेकिन खेमका सिस्टम में रहकर‍ सिस्टम के सितम सहते हुए उससे भिड़ते रहने के प्रतीक बन गए हैं।

अब जांगिड़ स्वयं कितने ईमानदार हैं, कहना मुश्किल है, लेकिन बकौल उनके उन्होंने जिला कलेक्टर के आचरण पर सवाल उठाए, जिसके परिणामस्वरूप उनका तबादला कर दिया गया। इसे कांग्रेस नेता‍ दिग्विजय सिंह ने यह आरोप लगाकर हवा दे दी कि (सरकार के लिए) चंदा जुटाने में नाकाम रहने पर जांगिड़ को हटाया गया। उधर जांगिड़ ने समूची ब्यूरोक्रेसी को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है, इसलिए उन्हें कहीं से मदद मिलना नामुमकिन सा है। जाहिर है पानी में रहकर मगर से बैर करने पर दो ही विकल्प होते हैं, या तो आप आंख मूंद कर मगर के मुंह में चले जाएं या पानी से ही बाहर निकल आएं।

जांगिड़ के मुताबिक जान से मारने की धमकी मिलने के बाद उन्होंने पुलिस से सुरक्षा मांगी है। लेकिन पुलिस भी तो हस्तिनापुर से बंधी है। तात्पर्य ये कि जांगिड़ को अपनी लड़ाई खुद लड़ना है। बताया जाता है कि उन्होंने मप्र सरकार के रवैए से क्षुब्ध होकर गृह राज्य महाराष्ट्र कैडर में तीन साल के लिए प्रतिनियुक्ति पर जाने की इच्छा जताई है। लेकिन जांगिड़ शायद भूल गए कि महाराष्ट्र के ‘खेमका’ और ईमानदार अधिकारी तुकाराम मुंढे को नागपुर में स्मार्ट सिटी कंपनी के सीईओ रहते केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी से पंगा लेने की सजा भुगतनी पड़ रही है। ठाकरे सरकार ने इस आईएएस अफसर को अब महाराष्ट्र मानवाधिकार आयोग में सचिव के पद पर लूप लाइन में डाल दिया है। मुंढे भी 15 साल की नौकरी में 17 से ज्यादा तबादले झेल चुके हैं। वजह उन्होंने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी।

दुर्भाग्य से ऐसे ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अफसरों के साथ राजनेताओं का व्यवहार सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष में रहते हुए अलग- अलग तरह का होता है। उदाहरण के लिए हरियाणा में कांग्रेस के शासन काल में रॉबर्ट वाड्रा के जमीन खरीदी घोटाले को बेनकाब करने वाले अफसर अशोक खेमका तब विपक्ष में बैठी भाजपा की आंखों के तारे थे, लेकिन जैसे ही भाजपा वहां सत्ता में आई, खेमका उसकी आंखों को खटकने लगे। 30 साल की नौकरी में 53 तबादले झेलने वाला यह अफसर अब भाजपा शासन काल में महानिदेशक पुरातत्व की लूप लाइन पोस्ट पर तैनात है।

खेमका को भी जान से मारने की धमकियां मिल चुकी हैं। हालांकि खेमका से पहले चाकरी के दौरान अधिकतम तबादलों का रिकॉर्ड एक और प्रशासनिक अधिकारी प्रदीप कास्नी के नाम है, जिन्हें 35 साल की नौकरी में सरकार ने 71 बार इधर से उधर किया। बावजूद इसके कास्नी ‘तबादला हीरो’ नहीं बन पाए और यह सेहरा खेमका के सिर ही बंधा। उदाहरण और भी हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के शासनकाल में एक मस्जिद की अवैध दीवार गिराने वाली और खनन माफिया के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाली धाकड़ अफसर दुर्गाशक्ति नागपाल कभी हिंदुवादियों की ‘आदर्श’ थीं, लेकिन जब उनकी सरकार आई तो दुर्गाशक्ति को यूपी छोड़ दिल्ली केन्द्र में प्रति नियुक्ति पर जाना पड़ा। बताया जाता है कि वो आजकल वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय में उपसचिव बनकर दफ्तर में बैठी हैं। यानी दुर्गाशक्ति का भी केवल राजनीतिक इस्तेमाल कर लिया गया।

ऐसे ही एक आईएएस अफसर हैं केरल कैडर के राजू नारायण सामी। अच्छे काम का सिला उन्हें 20 साल में 22 तबादलों के रूप में ‍मिला। भ्रष्ट राजनेताओं का मोहरा बनने से इंकार करने पर सामी के खिलाफ जांच बैठाई गई। मोदी सरकार ने उन्हें नारियल बोर्ड के चेयरमैन पद से हटाया तो राज्य की वामंपथी सरकार ने भी उन्हें संसदीय कार्य विभाग का प्रमुख सचिव बनाकर बिठा रखा है। हालांकि सामी ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी और न ही कोई शिकायत की। इसी तरह तमिलनाडु कैडर के 1991 बैच के आईएएस अधिकारी रहे यू. सागयन ने भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने पर 27 साल में 25 तबादले झेले और दो साल पहले ही नौकरी से रिटायरमेंट ले लिया। कर्नाटक कैडर के 2009 बैच के आईएएस अधिकारी डी.के.रवि ने तो कोलार जिले में रेत माफिया के खिलाफ अभियान चलाने की कीमत आत्महत्या कर चुकाई।

व्यवस्था के खिलाफ बगावत की बड़ी कीमत हर सिस्टम में चुकानी पड़ती है, फिर चाहे वह राजनीति में हो या नौकरी में हो। फर्क इतना है ‍कि राजनेता बगावत के बाद यू-टर्न भी बड़ी बेशरमी से ले लेते हैं, लेकिन नौकरी में उतनी गुंजाइश नहीं होती। यह फर्क अंतरात्मा का भी हो सकता है। यहां एक व्यवस्थावादी तर्क हो सकता है कि नौकरी करने का मतलब ही आका के हुक्म का पालन है। आदेश की अवहेलना या उसे अपनी सुविधानुसार पारिभाषित करने का विकल्प आपके पास नहीं होता। यह आपको नौकरी में आने से पहले सोचना चाहिए। मनमर्जी से जीना है तो चाकरी न करें। दूसरे शब्दों में कहें तो आप होते अंतत: व्यवस्था के गुलाम ही हैं, चाहे अधिकारों से कितने ही विभूषित क्यों न हों। जो इस मर्यादा को नियति मानकर नौकरी करता जाता है, वह न सिर्फ सुरक्षित पार लग जाता है बल्कि रिटायरमेंट के बाद भी मनसबदारी पा सकता है। फिर शिकायत क्यों?

दरअसल सरकार और प्रशासन में ‘अनुकूल’ और ‘प्रतिकूल’ अफसर का रेखांकन इसी से तय होता है कि आप नियम-कानून का पालन सरकार और राजनेता के हितों के अनुकूल कराते हैं या प्रतिकूल करते हैं। यूं सार्वजनिक रूप से अफसरों को निष्पक्ष, समदर्शी और पुण्यात्मा की माफिक काम करने, संविधान की रक्षा और कानून का पालन कराने की नसीहतें दी जाती हैं। जबकि हकीकत इससे उलट होती है, जहां ईमानदारी और मूकदर्शिता में फर्क लगभग समाप्त हो जाता है। जांगिड़ जैसे अफसरों की यही परेशानी है कि वो पुण्यात्मा होने के चक्कर में अंतरात्मा को प्रशासित करने में नाकाम रहते हैं। यही अंतर्द्वंद्व उन्हें उस राह पर ढकेलता है, जिसे आम बोलचाल और व्यवस्था की भाषा में बगावत कहते हैं। इसका अंजाम व्यवस्था से खुद को अलग करने, उसे कोसते रहकर उसमें बने रहने, खुदकुशी कर लेने या फिर खुद तंत्र में विलीन हो जाने में हो सकता है। अब जांगिड़ आगे क्या करते हैं, यह देखने की जिज्ञासा चुप्पी साधे जितने बाकी आईएएस और दूसरे अफसरों में है, उससे ज्यादा उस आम पब्लिक में है, जो यदा-कदा ही ऐसे लोगों के पक्ष में सड़क पर उतरती है। (मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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