जयराम शुक्ल
अभी कुछ दिन पहले एक कवि सम्मेलन में जाना हुआ। कभी कविताई भी कर लेता था सो पुराना कवि मानते हुए आयोजकों ने अध्यक्ष बना दिया। संगोष्ठी और कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करना बड़ा दुश्कर काम है। सबकी सुनो, आखिरी तक बैठो और सुनाओ तब जब दरी-जाजम समेटने वाले भर बचें। किसी की सुनने में भी अब धैर्य धकधकाने लगता है। लोग सिर्फ अपनी-अपनी सुनाना चाहते हैं, दूसरे की सुनना नहीं। परिणाम यह निकला कि आज की तारीख में श्रोता से ज्यादा कवि हैं। मंचों में भी वे कवि ज्यादा सुने जाते हैं जो अभिनय के साथ अच्छा गा लेते हैं। उनकी रचना की पंक्तियों पर जाएंगे तो अपना सिर पीट लेंगे लेकिन सुनाने का हुनर वो कि आप रात भर ताली पीटते हुए भी न थकें। वीर रस के कवियों का कहना ही क्या? इनकी तो एक अलग बटालियन बनाकर सरहद पर तैनात कर देनी चाहिए।
बहरहाल उस कवि सम्मेलन में सामने की जाजम पर बच्चे बैठे थे, शायद यह मानकर आए होंगे कि कोई तमाशा या जादू देखने को मिलेगा। मंचीय कवि बच्चों से बहुत छरकते हैं क्योंकि उनकी चहचहाहट कविजी का सुर-लय-ताल बिगाड़ देती है। आयोजक ने मेरे पूरे समय मौजूद न रह पाने की मजबूरी पर कृपा करते हुए शुरू में ही दो शब्द बोलने का मौका दे दिया। मैं बोलने को खड़ा हुआ तो बच्चों ने जमकर तालियां बजाईं शायद यह जानकर कि मैं पहला तमाशाई हूं जो मजा लगाऊंगा। लेख लिखते-लिखते और खबरें बनाते हुए जिंदगी के तीस साल घिस गए पर मेरे पास बच्चों के लिए कुछ नहीं था। जिंदगी में पहली बार अपराध बोध हुआ अपनी लिख्खाड़ी और अखबारनवीसी पर।
हाँ मैंने कवियों से यह जरूर विनती की कि दो लाइनें ही सही बच्चों के लिए कोई कविता जरूर सुनाएं। मंच में कुछ नामी-गिरामी समेत स्थानीय कवि थे। सबके सब अच्छे पारिश्रमिक अनुबंध में आए थे, लेकिन सबके सब बाल साहित्य, कविताओं की दृष्टि से कंगाल। बच्चे क्या सुनें, क्या समझें, क्या गाएं। वो सीधे सयानी में प्रवेश कर रहे हैं। टीवी शो देखिए पाँच-छः साल के बच्चे ..नन्हा मुन्ना राही हूँ.. गाने के बजाय फिल्मों के क्लासिकल गाते हैं। कल ही सुन रहा था-मन तड़पत हरि दर्शन को आज- उसका प्रतिद्वंदी जवाब में- मधुबन में राधिका नाचे रे- का आलाप ले रहा था। बचपन पर लादा जा रहा है सयानापन।
छोटा बच्चा रोता है तो मम्मी-डैडी उसे फोन में गेम चालू करके दे देते हैं। उसे अब काठी का घोड़ा नहीं मिलता। ज्यादा समझने लायक हुआ तो टीवी में पोगो या कार्टूनी चैनल शुरू करके बैठा दिया। पंद्रह-सोलह साल पहले एक नेत्रहीन कवयित्री आरिफा शबनम से सुने एक गीत की पंक्तियां बच्चों की त्रासदी को लेकर अक्सर गूंजा करती हैं-
विदेशी चैनलों में खो गया है आज का बचपन,
न गुड़िया की कहीं शादी न नानी की कहानी है।
संयुक्त परिवार के बिखरने के साथ सबकुछ बिखर गया। किस्सागोई भी, लोरी भी और टीपरेस, लुकाछिपी का खेल भी। मेरी दादी ने सैकड़ों कहानियां सुनाई होंगी। अइसे…अइसे एक राजा रहा.. से शुरू होने वाली किस्सागोई बालमन में ऐसा तिलस्म रचती थी जिससे कच्ची उम्र में ही कल्पनाओं का वृस्तित वितान मिल जाता था। यह एक मानसिक अभ्यास भी होता था जो बालपन के मस्तिष्क के कोरे स्लेट पर लिखा जाता था। फिर घुटनों में झूला झुलाने वाला गीत- खंती खोरिया खनत मनैय्या, खनत खनत एक कौड़ी पाएन..आदि सैकडों बालगीत जो सदियों से परंपरा के प्रवाह के साथ चलते चले आ रहे थे।
संयुक्त परिवार एक पाठशाला होते थे। सहकार और नेतृत्व की सीख यहीं से शुरू होती है। ये कालगति के नियम हैं चलते चलेंगे महीना, साल, वर्ष, सदी गुजरती जाएगी। यहां कोई रिवर्स गियर नहीं लगता। सिर्फ़ गाकर स्मृतियों में लौट सकते हैं- कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन। गुड्डा गुडिया के खेल और लोरियां गुजरे जमाने की बात है। नागपंचमी के दिन हम बच्चे नदी तालाब में पुतरी पीटने जाते थे। गर्मी की छुट्टियों में दो महीने जिज्जी लोग पुतरा-पुतरी बनाती थीं। उनकी शादी भी होती थी। नागपंचमी के आसपास स्कूल शुरू होते थे तो पुतरी-पुतरे समारोह पूर्वक विसर्जित किए जाते थे। हम लोग बेशरम के डंडों से उन पुतरों को पीटपीट कर लड़कियों को चिढ़ाते थे।
समय के साथ सब बदलता है। बदलना भी चाहिए पर यह बदलाव की दिशा और दशा क्या हो यह विमर्श का विषय है। आज इस बदलाव ने ही गुड्डे-गुड़ियों की जगह फुल्ली लोडेड एंड्रायड थमा दिया है। मोबाइल अब बच्चों के लिए एडिक्शन है। रेयान इंटरनेशनल की प्रदुम्न हत्याकांड वाली घटना बताती है कि बच्चे सैडिस्ट होते जा रहे हैं और अपनी लालसा पूरी करने के लिए कत्ल तक पहुंचने लगे हैं।
बचपन में पहली कविता जो मुझे याद हुई वो थी रामनरेश त्रिपाठीजी की रचित प्रार्थना- हे प्रभो आनंददाता ग्यान हमको दीजिए, शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए। ये पूरी प्रार्थना आज भी वैसी ही याद है जैसी कि छः साल की उम्र में थी। इसके बाद जो याद हुआ वो तुलसी कृत हनुमान चालीसा थी। हमारे समय में ही ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार ने भी दस्तक दे दी थी। पर हिंदी में बाल साहित्य इतना सम्पन्न था कि कोर्स के अलावा अंग्रेजी पढने का कभी मन नहीं हुआ। रामायण, महाभारत, पंचतंत्र, हितोपदेश की चित्रकथाएं पढ़ने को मिलती थीं। आज भी कई प्रसंग उनसे ही लेते हैं जो स्मृति में दर्ज हैं। जितने भी महान लेखक हुए हैं उन्होंने बच्चों का पूरा ध्यान रखा।
रवीन्द्र नाथ टैगोर की ‘काबुलीवाला’ कितनी मर्मस्पर्शी कहानी है। हरिऔध जैसे धुरंधर कवि ने बच्चों के लिए लिखा। प्रेमचंद की ईदगाह किसे याद नहीं। बाद के दिनों के ऐसे साहित्यकार, जो पत्रिकाओं के संपादक हुए वे भी बच्चों के लिए लिखते रहे। रघुवीर सहाय ने तो लिखा ही, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने ..इब्नबतूता पहन के जूता.. वाली कविता उस दिन लिखी जब उनकी बेटी पहली बार स्कूल गई। गुलजार साहब को तो मैं उनकी अनूठी और अद्भुत बाल रचनाओं के लिए नमन करता हूँ..जंगल जंगल बात चली है पता चला है, अरे चड्ढी पहनके फूल खिला है फूल खिला है..। यह एक दो बरस के बच्चों की मानसिकता को ध्यान में रखकर लिखा गया गीत है। मोगली की प्रसिद्ध कथा इससे जुड़ी है।
किताबी साहित्य के समानांतर फिल्मों में भी बालगीत, लोरियां खूब लिखी गईं, लोकप्रिय हुईं। शैलेन्द्र जैसे महान गीतकार ने बच्चों के लिए गीत, लोरियां लिखीं। शकील बदायूनीजी, जावेद अख़्तर, भरत व्यास, शेवान रिजवी, बशर नवाज जैसे गीतकारों ने फिल्मों के लिए कालजयी गीत लिखे। इनके दौर को हटा दें तो बच्चों के गीत की दृष्टि से फिल्मी दुनिया भी कंगाल हो जाए।
मुद्दतों बाद आमिर खान की फिल्म-तारे जमीं पर- आई। फिल्मों से बच्चे खारिज, टीवी चैनलों में जो हैं सो उन पर सयानापन लाद दिया गया। अखबार, पत्रिकाओं में भी बचपन के लिए स्पेस लगभग गायब सा। बाल पत्रिकाओं का भी समापन सा हो गया है। कामिक्स के नाम पर बंदूक थामे फैंटम। और अब तो आत्महंती ब्लू ह्वेल। पश्चिम की खिड़की खुली तो वहां की समूची सांस्कृतिक सड़ांध यहाँ गमगमाने लगी। बच्चे वहीं बिंधे हैं। माँ-बाप खुश, बेबी माडर्न हो रहा है। हम अखबार वाले ब्रेकिंग की तोप चला रहे हैं। मंचीय कवियों को पाकिस्तान से फुर्सत नहीं या उनके गीत अभी भी हरसिंगार में अटके हैं। हम सचमुच कितने बड़े अपराधी हैं कि बच्चों को देने के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं।