आखिर इस ‘सोशल लिंचिंग’ से हम क्‍या हासिल कर रहे हैं?

आज सोशल मीडिया पर वायरल हो रही एक घटना पर आपसे बात करने जा रहा हूं। हालांकि मेरी राय में, यह बहुत सामान्‍य घटना है लेकिन यदि इसे बारीकी से देखें तो हम पाएंगे कि मीडिया हमारी मनस्थिति को किस हद तक प्रभावित कर रहा है। और उससे भी गंभीर बात यह सोचने की है कि मीडिया के बहाने हमारे मानस को किस तरह भटकाया अथवा विकृत किया जा रहा है, किस तरह उसे सहज मानवीय संवेदनाओं से अलग करके क्रूर और परपीड़क बनाया जा रहा है।

यह घटना एक अखबार से जुड़ी है। मेरे पास सोशल मीडिया मंचों के जरिये कई लोगों ने यह जानकारी भेजी। किसी ने तंज के साथ तो किसी ने गंभीरता के साथ मुझसे जानना चाहा कि आपकी इस पर क्‍या प्रतिक्रिया है। दरअसल उस अखबार के दशहरे के दिन के संस्‍करण में छपे एक वाक्‍य में विजयदशमी की शुभकामनाएं देते हुए लिखा गया- ‘’सत्‍य पर असत्‍य की विजय के महापर्व की शुभकामनाएं।‘’

मुझे नहीं मालूम कि सच में अखबार में यह लाइन इसी तरह छपी है या फिर इसे सोशल मीडिया की आधुनिक परंपरा के तहत तोड़मरोड़कर प्रस्‍तुत किया गया है। लेकिन मैं यह मानकर चलते हुए, कि जब इतने सारे ‘विद्वानों’ ने इसे अलग अलग मंचों से शेयर करते हुए उस पर टिप्‍पणियां की हैं, तो जैसा प्रचारित किया जा रहा है वैसा ही छपा होगा, अपनी बात रख रहा हूं।

मैं अपने चार दशक के अनुभव के आधार पर बहुत विनम्रतापूर्वक यह कहना चाहता हूं कि इस लाइन के प्रकाशन को लेकर जो लोग तरह तरह से अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं वे शायद अखबार की दुनिया और उसके दबावों से वाकिफ ही नहीं हैं। आपको पता ही नहीं है कि एक पत्रकार, चाहे वह अखबार में काम कर रहा हो या किसी चैनल में, इन दिनों कितने दबाव और तनाव में काम कर रहा है। और ऐसे दबाव और तनाव में किसी से भी गलती हो जाना स्‍वाभाविक है।

यह बात ठीक है कि अखबार और मीडिया के किसी भी माध्‍यम में ऐसी गलती नहीं होनी चाहिए। लेकिन इसके साथ आपको यह भी स्‍वीकार करना होगा कि कोई भी व्‍यक्ति, जब तक कोई अन्‍यथा कारण न हो, जानबूझकर ऐसी गलती कभी नहीं करेगा, जिसमें उसकी साख पर बट्टा लगने या उसकी नौकरी जाने का खतरा हो। मेरे हिसाब से जिसने भी यह लाइन लिखी है और जिसने भी उसे चेक किया है, वे निश्चित रूप से बहुत ही तनाव और दबाव के माहौल में काम कर रहे होंगे और ऐसे माहौल में किसी से भी गलती हो सकती है। लिहाजा उसे एक सामान्‍य मानवीय भूल मानकर बिसरा दिया जाना चाहिए।

लेकिन यदि आप ऐसा नहीं करते और लगातार सोशल मीडिया पर उस बात को दर्जनों बार, दर्जनों तरीके से टिप्‍पणियां करते हुए किसी को जलील करने का बीड़ा उठा लेते हैं या फिर आपको किसी को नीचा दिखाने में मजा आने लगता है, तो आपके इस ‘परपीड़क सुख’ से जो स्थिति बनती है आपको उस पर भी विचार करना चाहिए। क्‍या आप जानते भी हैं कि जब आप इस तरह एक मानवीय भूल को लेकर जख्‍मों पर लगातार नमक रगड़ते हैं तो उसका क्‍या परिणाम होता है?

परिणाम न तो आपको भुगतना पड़ता है और न ही उस संस्‍थान को, परिणाम भुगतना पड़ता है बेचारे उस व्‍यक्ति को जिसके हाथों अनचाहे ही वह गलती हो गई होती है। खांसने और छींकने पर भी कर्मचारियों की नौकरी ले लेने वाले इस समय में, कोई भी संस्‍थान बहुत आसानी से उस कर्मचारी की नौकरी छीन लेता है। उसके पास इसका कारण भी होता है और सोशल मीडिया पर आपके ‘मजे’ को अभिव्‍यक्‍त करने वाली टिप्‍पणियां उसकी नौकरी छीन लेने के कदम को ‘जस्टिफाई’ भी कर देती हैं।

मैं दुआ करूंगा कि जिसके भी हाथ से यह गलती हुई है कम से कम इस कारण उस पत्रकार साथी की नौकरी पर कोई संकट न आए। दरअसल जो लोग बाहर से मीडिया को देखते हैं, उन्‍हें मीडिया की दुनिया के अंदरूनी हालात पता ही नहीं होते। एक संपादक होने के नाते मैं कह सकता हूं कि पत्रकार अपने जीवन में सैकड़ों बार ऐसे अनुभवों से गुजरता है, जिनमें दूसरों के लिए सामान्‍य मन:स्थिति बनाए रखना भी लगभग नामुमकिन हो।

दीवाली जैसे त्‍योहार हों या फिर चुनाव अथवा बजट के दिन, ऐसे खास मौकों पर मीडिया के साथी अकसर घर परिवार और भूख प्‍यास की चिंता किए बगैर घंटों काम में लगे रहते हैं। आप यकीन नहीं करेंगे कि काम के दबाव में वह अपने शरीर के साथ कितना अन्‍याय करते हैं। कई बार तो व्‍यक्ति घंटों दबाव झेलता रहता है, बस एक खबर और… बस एक हेडिंग और… बस एक लाइन और… के चक्‍कर में वॉशरूम जाने तक के लिए नहीं उठ पाता। कई बार मुझे इसके लिए अपने साथियों को टोकना पड़ता था। और साथ में लाया गया खाने का टिफिन बिना खाए ज्‍यों का त्‍यों घर ले जाने के किस्‍सों की तो गिनती ही नहीं होगी।

यह भी याद रखिएगा कि कोई भी पत्रकार या संपादक कभी नहीं चाहता कि उसके अखबार में कोई गलती छपे, इससे संस्‍थान पर तो बात बाद में आती है, पहला वार तो उस पत्रकार या संपादक पर ही होता है। दफ्तर में भी और बिरादरी में भी। अपनी साख को बट्टा लगाने वाला काम भला कौन करना चाहेगा? ऐसे अपवादों को छोड़ दीजिए जिन्‍होंने गलत जानकारी या भ्रम फैलाने को ही पत्रकारिता समझ लिया है, लेकिन मैं आम पत्रकारों की बात कर रहा हूं। जिस दिन किसी पत्रकार से कोई गलती हो जाती है, आप सोच नहीं सकते कि उस दिन उसकी हालत क्‍या होती है?

संपादकीय मीटिंग में जाते समय उसके चेहरे पर गुनहगार होने का भाव साफ चस्‍पा होता है। वह एक अपराधी की तरह दाखिल होता है और टॉरगेट बनकर चुपचाप सारी जली कटी बातें सुनकर, फिर से अगले दिन की खबरों के लिए जुट जाता है। इसलिए मेरा आग्रह है कि आप टिप्‍पणी करने या प्रतिक्रिया देते समय एक बार इस पहलू पर भी जरूर सोचें। वैसे हम जिस समय में रह रहे हैं, वह समय माफ करने का नहीं बल्कि सूली पर टांग देने का है। लेकिन इस बात से तो आप सहमत होंगे कि हर अपराध की सजा सूली पर टांग देना ही नहीं होती, कई गलतियां या चूक माफ करने लायक भी होती हैं। इसके बावजूद यदि हम ऐसी गलतियों को माफ न कर पाएं, तो भी कम से कम हम उस व्‍यक्ति की सोशल लिंचिंग तो न करें…

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here