रमेश पतंगे
प्रकाश आंबेडकर, जय भीम! वैसे जय भीम कहने की मुझे आदत नहीं है, मैं आपको नमस्कार कहता हूं। किंतु यदि मैं नमस्कार कहता हूं तो वह आप स्वीकार नहीं करेंगे, इसलिए जय भीम कहता हूं। नमस्कार आपकी दृष्टि से, शायद ब्राह्मण संस्कृति का अभिवादन का प्रकार होगा। साल में बहुत बार मुझे आंबेडकरी आंदोलन के कार्यकर्ताओं के फोन आते रहते हैं। आदत के अनुसार मैं उन्हें नमस्कार कहता हूं और फोन करने वाला जय भीम कहते रहता है और जब तक मैं जय भीम नहीं कहता, तब तक वह वार्तालाप आरंभ नहीं करता। मुझे जय भीम कहने में कोई दिक्क्त नहीं है। भारत माता के सुपुत्र को वंदन करने में मुझे न वैचारिक दिक्कत है, न भावनात्मक दिक्कत है।
भीमा कोरगांव के प्रश्न पर तीन तारीख को आपने महाराष्ट्र बंद का आह्वान किया और दस घंटे के बाद बंद वापस लेने की घोषणा की। जॉन रीड की रूसी क्रांति पर ‘टेन डेज दॅट शुक द वर्ल्ड’ नामक अत्यंत प्रसिद्ध किताब है। आपके दस घंटे के बंद के बाद एक और किताब लिखी जानी चाहिए। इसका शीर्षक ‘वे दस घंटे, जिसने महाराष्ट्र को तोड़ दिया’ हो सकता है।
बंद करने के लिए कोई न कोई मुद्दा लगता है। आपने मुद्दा चुन लिया, भीमा कोरेगांव में शौर्य दिन के अवसर पर इकट्ठा हुए नागरिकों पर हुई पत्थरबाजी, उनके जलाए गए वाहन। यह घटना निंदाजनक है। किसी को भी कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती। जो दोषी हैं, उन पर उचित कानूनी कार्रवाई होनी ही चाहिए इस बारे में दो राय नहीं हो सकती। कोरेगांव में इकट्ठे हुए नागरिकों पर हुई पत्थरबाजी की घटना का निषेध करने का लोकतंत्र में आपको अधिकार है। लेकिन उसके लिए महाराष्ट्र बंद करने की जरूरत क्या थी?
महंगाई बढ़ी कि बंद किया जाता है, मूल्यवृद्धि हुई कि बंद किया जाता है, कभी-कभी सीमा विवाद पर बंद होता है। ये सारे प्रश्न किसी न किसी कारण से महाराष्ट्र के हर परिवार को स्पर्श करने वाले होते हैं। बंद के कष्ट सब को होते हैं, परंतु लोग उसे खुशी से स्वीकार करते हैं। आपके बंद से क्या हुआ?
बंद का आह्वान करने के पूर्व आंबेडकरी जनता दो तारीख को अनेक स्थानों पर रास्ते पर उतरी थी। मैं किसी काम से ग्यारह बजे के आसपास चेंबूर के मुंबई तरुण भारत के कार्यालय में गया था। कुछ देर बाद ही रास्ते पर पत्थरबाजी शुरू हुई। एसटी बसों के कांच तोड़े गए, यात्रियों को नीचे उतारा गया, रास्ते पर खड़ी अनेक कारों के कांच चटखाए गए। तरुण भारत के कम्पाउंड में खड़ी गाड़ी पर बाहर से बड़ा पत्थर फेंक कर उसकी कांच तोड़ी गई।
इस पत्थरबाजी को देख कर हरेक के मन में पहला प्रश्न उभरा। एसटी और बेस्ट की बसों पर पत्थरबाजी किसलिए? रास्ते पर खड़े वाहनों पर पत्थरबाजी किसलिए? वाहन से उतरा यात्री पहला प्रश्न करता है कि, मुझे क्यों उतारा गया? ये नीले झंड़े लेकर लोग क्यों पत्थरबाजी कर रहे हैं? जिन्हे कोरेगांव की घटना की जानकारी थी, वह वे बताने लगे। उन्होंने क्या बताया?
दो सौ वर्ष पूर्व भीमा नदी के तट पर, कोरेगांव में अंग्रेज सेना और पेशवाओं की सेना में युद्ध हुआ। उसमें पेशवा पराजित हुए और 1818 में मराठी राज्य का अंत हुआ। इस मराठी राज्य के अंत का दिन शौर्य दिन के रूप में आंबेडकरी जनता अनेक वर्षों से मना रही है। अंग्रेजों की सेना में महार टुकड़ी थी। वह वीरता से लड़ी और उसमें अनेक लोग वीरगति को प्राप्त हुए। युद्ध में मरने वाला फौजी वीर ही होता है और वह किसकी ओर से लड़ रहा है यह जितना महत्वपूर्ण होता है, उतनी ही उसकी वीरता भी महत्वपूर्ण होती है। इस शौर्य दिन को मनाने के लिए प्रति वर्ष हजारों की संख्या में आंबेडकरी अनुयायी कोरेगांव में एकत्रित होते हैं। यह इतिहास अन्यथा सामान्य लोगों को मालूम नहीं होता, वह दो तारीख की पत्थरबाजी और तीन तारीख के बंद के कारण घर-घर पहुंच गया।
महार जमात वैसे वीर जमात है। शिवाजी महाराज की सेना में उनका पराक्रम इसी तरह देदिप्यमान है। 1947 में पाकिस्तान ने जब कश्मीर पर आक्रमण किया, तब डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के सुझाव पर वहां महार बटालियन भेजी गई। महार बटालियन ने कश्मीर को बचाने के लिए जो पराक्रम किया, वह सुवर्णाक्षरों में लिखा गया है। इस महार बटालियन के वीर सैनिकों ने कश्मीर मुक्ति के लिए जो पराक्रम दिखाया, वह तो देशभक्ति का प्रेरणादायी इतिहास है। उन्होंने (महार बटालियन) ने कश्मीर के युद्ध में इतनी वीरता दिखाई कि, सेना अधिकारियों और स्वयं सर्वोच्च सेनापति ने भी ‘महार सैनिक, हिंदी सेना के श्रेष्ठ लड़ाकू सैनिक हैं’ यह सार्वजनिक रूप से बार-बार कहा। (खैरमोडे खंड 9, पृष्ठ 276)। 24 दिसम्बर 1947 को झांगर में भीषण लड़ाई हुई। बंदूक की गोलियां खत्म होने के बाद भी वीर महार सैनिकों ने पाकिस्तान सैनिकों को मुष्टियुद्ध से रोक लिया। अतः उन्हें एक महावीर चक्र और पांच वीरचक्र प्राप्त हुए। चूंकि मैं वामपंथी विचारधारा का नहीं हूं इसलिए मेरी दृष्टि से 24 दिसम्बर सच्चा शौर्य दिन है।
प्रकाशजी, आप यह शौर्य दिन नहीं मनाएंगे यह मुझे पता है। उसका कारण यह कि, इस शौर्य दिन में ब्राह्मण द्वेष का गोलाबारुद नहीं है। आपने संघ को ब्राह्मणवादी घोषित कर रखा है, इसलिए संघ द्वेष का गोलाबारुद भी नहीं है। पेशवा जन्म से ब्राह्मण हैं। अंग्रेजों ने पेशवाओं को हराया। आपके इतिहासकार उसकी मीमांसा ‘ब्राह्मण परास्त हुए’ के रूप में करते हैं। एक अर्थ में वह सच भी है। क्योंकि उत्तर पेशवाई ब्राह्मणशाही में ही परिवर्तित हो गई थी। लेकिन पेशवा सार्वभौम राजा नहीं थे। सार्वभौम थे छत्रपति। उनके प्रतिनिधि के रूप में पेशवा लड़े, इसलिए उनकी पराजय से मराठी साम्राज्य का अंत हो गया। हम तो केवल सीधा-सादा इतिहास जानने वाले हैं। वामपंथियों की ऐतिहासिक उठापटक हमारे सिर पर से गुजरती है और मेरे जैसे ही सामान्य लोग भी सोचते हैं, ऐसा मुझे लगता है।
इस बंद की अवधि में जो बेमतलब और अनावश्यक हिंसाचार हुआ, उसे कौन जिम्मेदार है? आप तो जिम्मेदारी लेंगे नहीं। आप कहेंगे- कोरेगांव में जिन्होंने हमले किए, वे जिम्मेदार हैं। उन जिम्मेदार लोगों पर मुकदमे दायर कर उन्हें सजा दी जानी चाहिए। वैसे इस मांग को लेकर जिले-जिले के कलेक्टर कार्यालयों पर धरना और मोर्चा के कार्यक्रम किए जा सकते थे, मंत्रालय पर मोर्चा ले जाया जा सकता था, सरकार को ज्ञापन दिया जा सकता था। कोरेगांव की घटना से जिनका तिनके भर का भी सम्बंध नहीं है ऐसे सामान्य लोगों को, रेल्वे से यात्रा करने वाले कर्मचारी वर्ग को, ट्रेन से सफर करने वाली मां-बहनों को, स्कूल जाने वाले छोटे बच्चों को क्यों बंधक बनाया गया? उससे क्या मिला?
प्रकाशजी, उससे दो बातें आपको मिलीं- पहली बात, महाराष्ट्र में आपने अपनी स्पेस निर्माण की। स्पेस निर्माण करना राजनीतिक शब्दावली है। आंबेडकरी जनता में आपके प्रतिद्वंद्वी हैं रामदास आठवले। वे कभी राष्ट्रवादी में होते हैं, कभी शिवसेना-भाजपा के साथ। अब वे केंद्र में मंत्री हैं। सत्ता पर काबिज व्यक्ति विपक्ष की भूमिका नहीं ले सकता। जनता के प्रश्नों को लेकर वे रास्ते पर उतर कर आवाज नहीं लगा सकते। कोरेगांव के बहाने आपको रामदास आठवले को चुनौती देने का अवसर मिल गया, जिसका आपने उपयोग किया। राजनीति इसी तरह चलती है। इसलिए वैसे उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। यदि आप सत्ता में होते और आठवले बाहर होते तो, क्या होता?
लेकिन इस स्पेस को प्राप्त करने के लिए आपने जो मूल्य चुकाया है, वह बहुत जबरदस्त है। दो और तीन तारीख को अघोषित और घोषित बंद में समाज जिस तरह पिस गया है, वह निकट भविष्य में आपका मित्र होना लगभग असंभव है। कोरेगांव के संघर्ष को मराठा विरुद्ध दलित जैसा रंग देने का जो प्रयास हुआ, वह महाराष्ट्र का सामाजिक संतुलन ध्वस्त करने वाला है। केवल जाति की राजनीति की, तो इससे अधिक कुछ नहीं होगा। आज आंबेडकरी जनता शेष जनता से इतने बड़े पैमाने पर कभी अलग-थलग नहीं हुई थी और यही दुखदायी है। आप कह सकते हैं कि हमें अन्य समाज की आवश्यकता नहीं है, हम समर्थ हैं, हमें संविधान से सुरक्षा प्राप्त है, कानून का संरक्षण है, हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। आत्मगौरव के लिए यह भाषा अच्छी है, लेकिन सामाजिक बंधुभाव निर्माण करने की दृष्टि से यह भावना अत्यंत घातक है।
डॉ. बाबासाहब ने अपने जीवन में बंधुभाव को सर्वाधिक महत्व दिया था। वे कहते थे, ‘बंधुभाव याने मानवता और यही धर्म का दूसरा नाम है।’ संविधान सभ्ळा में बोलते हुए उन्होंने कहा, ‘बंधुभाव का अर्थ क्या होता है? बंधुभाव का अर्थ होता है. सभी नागरिकों में बंधुत्व की भावना की अनुभूति- भारतीय याने हम सभी एक हैं यह भावना। यह तत्व हमें सामाजिक जीवन में एकता और एकत्व की भावना को बल देता है। उसे प्रत्यक्ष रूप से लाना पीड़ादायी काम है।’ सार्वत्रिक बंधुत्व की भावना निर्माण होना और वह भी जाति-पांति में विभाजित जनता में कितना कठिन है, इसकी अनुभूति मैं समरसता का काम करते हुए पिछले तीस वर्षों से कर रहा हूं। दो और तीन के बंद से बंधुत्व की भावना में, समरसता के भावना में दरारें उत्पन्न हुई हैं। रास्ते पर टूटे कांच के ढेर देखते समय टूटे मन का विदारक चित्र मेरी आंखों के समक्ष खड़ा हो गया और फिर पंचतंत्र की एक कथा याद आ गई।
प्रकाशजी, आपकी राजनीति हो गई, ब्राह्मण द्वेष की छौंक हो गई, फडणवीस, मोदी और भागवत को गालियां देने की होली हो गई, लेकिन आपको क्या मिला? जवाब तो आप ही को खोजना है।
(हिन्दी विवेक से साभार)