कोविड-19 की मारी संसद से क्या हासिल?

राकेश अचल

वैश्विक महामारी कोरोना यानि कोविड-19 का शिकार भारत की संसद अगले महीने बोलेगी, लेकिन क्या बोलेगी और उसके बोलने से देश को क्या मिलेगा ये कोई नहीं जानता, क्योंकि इस समय सब कुछ उलटा-पुल्टा चल रहा है। संसद का सत्र अगले महीने 14 सितंबर से लगातार 18 दिन चलेगा। गनीमत है कि देश में आज जब सब कुछ कोरोना की आड़ में टाला जा रहा है तब देर से ही सही संसद का सत्र आहूत कर लिया गया है।

कोरोना के लिए बनाये गए तमाम नियम खुद ही तोड़ने वाले हमारे नेताओं को संसद के भीतर कोरोना प्रोटोकाल का पालन करना होगा। सदस्यों को एक तय दूरी पर बैठने के लिए इस बार दर्शक दीर्घाओं में भी इंतजाम किये जायेंगे, इस नयी व्यवस्था में हो सकता है कि इस बार दर्शकों को सदन की कार्यवाही देखने का मौक़ा ही न मिले। उनके लिए दूरदर्शन का ही सहारा होगा। संसदीय इतिहास में ये सब पहली बार होगा जबकि राज्य सभा के 60 सदस्य सदन में और 51 सदस्य दर्शक दीर्घा में बैठकर सदन की कार्रवाई में हिस्सा लेंगे। इसी तरह लोकसभा के 132 सदस्य सदन में और बाक़ी के दर्शक दीर्घाओं में बैठे नजर आएंगे। सदस्यों के बीच पॉलीकार्बोनेट की सीट और बड़ी-बड़ी स्क्रीन तथा कंसोल लगाए जायेंगे।

आपको याद होगा कि कोरोना की दस्तक और लॉकडाउन की वजह से संसद का पिछला सत्र 23 मार्च को ही समाप्त कर दिया गया था, बजट का ये सत्र हड़बड़ी में समेटा गया था। कायदे से संसद के दो सत्रों के बीच छह महीने के अंतराल का प्रावधान है इसलिए मानसून सत्र को टाला नहीं जा सकता। अब इस सत्र में कोविड के चलते लम्बे लॉकडाउन के दौरान करोड़ों की संख्या में गयी नौकरियों, बेपटरी हुई अर्थव्यवस्था, पीएम केयर फंड, चीन से टकराव, नई शिक्षा नीति और कोविड -19 से हुई मौतों तथा इलाज के इंतजामों के अलावा श्रीराम मंदिर भूमि पूजन को लेकर हंगामा होना संभावित है।

संसद के इस सत्र की जरूरत कायदे से कोविड और चीन से टकराव के समय थी, उस समय सबको साथ लेकर रणनीति तय करने की जरूरत थी, अब संसद के पास सिवाय जरूरी विधायी कार्य करने और हंगामा करने के कुछ बचा नहीं है। बिखरता हुआ विपक्ष ढंग से अपनी बात भी रख पायेगा मुझे इसमें भी संदेह है। मेरी जानकारी के मुताबिक़ संसद के मानसून सत्र में विपक्ष से ज्यादा सत्ता पक्ष आक्रामक रहने  वाला है। कांग्रेस के अंतर्विरोध का फायदा सत्तापक्ष उठाने से नहीं चूकने वाला। उच्च सदन में इस बार मध्‍यप्रदेश से चुने गए कांग्रेस के दिग्विजय सिंह और कांग्रेस से भाजपा में आकर राज्य सभा के लिए चुने गए ज्योतिरादित्य सिंधिया की नोकझोंक भी देखने लायक हो सकती है।

संसद का ये मानसून सत्र देश की जनता को कुछ ख़ास देकर जाएगा ये कहना कठिन है क्योंकि इस समय सरकार के पास जनता को देने के लिए सिवाय सफाई के कुछ बचा नहीं है।  सरकार कोरोना वैक्सीन तैयार करा नहीं पायी, चीन से तमाम बैठकों के बावजूद विवाद सुलझा नहीं, उलटे अब भारत की और से सैन्य विकल्पों के इस्तेमाल के संकेत और दे दिए गए हैं। कोरोना काल के दौरान घोषित किये गए 20 लाख करोड़ के पैकेज का रिपोर्ट कार्ड भी सरकार ने अब तक जनता के सामने पेश नहीं किया है। मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन और राजस्थान में सत्ता परिवर्तन में नाकामी भी बहस का एक मुद्दा हो सकती है।

देश के दुर्दिन ऐसे चल रहे हैं कि पता नहीं कब, क्या हो जाये इसलिए कोई भी विश्वासपूर्वक ये नहीं कह सकता की संसद का ये 18 दिन का सत्र भी पूरे समय चल पायेगा, कुछ दिन हंगामे की भेंट चढ़ सकते हैं और कुछ दिन किसी आकस्मिक परिस्थिति का शिकार हो सकते हैं। कोरोना के कारण देश की जनता ही नहीं लोकतंत्र भी बीमार है, वेंटिलेटर पर है या नहीं ये कहना तनिक कठिन है, क्योंकि सब चीजें जनता के सामने आती नहीं हैं। इस समय सरकार परम स्वतंत्र है क्‍योंकि उसके सामने न कोई मजबूत विपक्ष है और न जनता में प्रतिरोध की शक्ति बची है।

मुमकिन है कि संसद के मानसून सत्र के पहले सर्वदलीय बैठक की औपचारिकता भी निभाई जाये लेकिन इसका भी कोई फायदा सदन को मिलेगा कहा नहीं जा सकता, कारण अब राजनीति में इतना जहर घुल चुका है कि लोग एकदूसरे को फूटी आँख देखने को तैयार नहीं हैं। एक-दूसरे के बारे में इस हद तक बातें हो चुकी हैं कि सर्वदलीय बैठक कुछ  हासिल नहीं कर सकती। देश की राजनीति को इस विषाक्त माहौल से बाहर निकाले बिना लोकतंत्र के बेहतर स्वास्थ्य की कल्पना करना बेकार है।

देखना ये होगा कि लोकसभा और राज्‍यसभा के अधिष्ठाता, सरकार और विपक्ष इस दिशा में कितना सहकार कर सकते हैं। लोकसभा में भाजपा का प्रतिनिधित्व 55.90 प्रतिशत और कांग्रेस का मात्र 9.59 प्रतिशत है। राज्य सभा में जरूर 243  में से भाजपा के 86 और कांग्रेस के 40 सदस्य हैं। कांग्रेस के बाद तृणमूल कांग्रेस के 13 सदस्यों को छोड़ किसी भी दल के सदस्यों की संख्या दो अंकों में नहीं है।

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