इस समय बैंकों के निजीकरण की मांग के क्‍या मायने हैं?

पंजाब नैशनल बैंक के महाघोटाले में नीरव मोदी और मेहुल चौकसी के खिलाफ हो रही कार्रवाई और रोटोमैक के मालिक विक्रम कोठारी पर  बैंकों का हजारों करोड़ रुपया दबा लेने के मामले में शिकंजा कसने की खबरों के बीच मंगलवार को देश के दो प्रमुख अखबारों में छपी खबरों ने खासा चौंकाया है। बैंकिंग व्‍यवस्‍था में परिवर्तन को लेकर जिस तरह से ये खबरें छपी हैं उन्‍हें महज संयोग नहीं कहा जा सकता।

20 फरवरी को दैनिक भास्‍कर ने अपने संपादकीय पेज पर चर्चित पत्रकार शेखर गुप्‍ता का एक आलेख इस संबंध में प्रकाशित किया है, वहीं नईदुनिया ने अपने कारोबार पेज की लीड ही इस मुद्दे को बनाया है। शेखर गुप्‍ता और नईदुनिया की खबर दोनों ही बैंकों का राष्‍ट्रीयकरण खत्‍म करने की वकालत कर रहे हैं। शेखर गुप्‍ता के आलेख का शीर्षक है ‘’बैंकों का राष्‍ट्रीयकरण खत्‍म करें मोदी’’ और नईदुनिया की खबर का शीर्षक है ‘’सरकारी बैंकों के निजीकरण की लाबिंग तेज’’

दरअसल भारत में सरकारी बैंकों का निजीकरण जुलाई 1969 में किया गया था। तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इस साहसिक फैसले को उस समय आजाद भारत के क्रांतिकारी फैसलों में शुमार किया गया था। इंदिरा गांधी ने ऐसे 14  निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था जिन पर अधिकतर बड़े औद्योगिक घरानों का कब्ज़ा था।

राष्ट्रीयकरण का दूसरा दौर 1980 में हुआ जिसके तहत सात और बैंकों को राष्ट्रीयकृत किया गया। अब भारत में 21 बैंक राष्ट्रीयकृत हैं। निजी बैंकों के राष्‍ट्रीयकरण से पहले सिर्फ भारतीय स्टेट बैंक यानी एसबीआई ही राष्ट्रीयकृत था। उसका राष्ट्रीयकरण 1955 में ही कर दिया गया था। राष्‍ट्रीयकृत बैंकों के अलावा आज देश में करीब दो दर्जन निजी क्षेत्र के बैंक भी काम कर रहे हैं।

राष्‍ट्रीयकरण का मुख्‍य उद्देश्‍य था कुछ हाथों में केंद्रित धन के कारोबार को विकेंद्रीकृत करते हुए बैंकिग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ समाज के सभी वर्गों खासकर ग्रामीण एवं कमजोर वर्गों तक पहुंचाना। इसके अलावा इस कदम को देश का आर्थिक विकास तेज करने, आर्थिक असमानता दूर करने, बेरोजगारी की समस्‍या हल करने और औद्योगीकरण को गति देने वाला भी बताया गया था।

अब तक दावा किया जाता रहा है कि राष्ट्रीयकरण के बाद भारत के बैंकिंग क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। हालांकि भारत में अब विदेशी और निजी क्षेत्र के बैंक भी सक्रिय हैं, लेकिन बीबीसी के अनुसार बैंकों की सेवाएँ लेने वाले लगभग 90 फ़ीसदी लोग अब भी सरकारी क्षेत्र के बैंकों के पास ही जाते हैं। यानी भारतीय समाज का अधिकांश हिस्‍सा सरकारी या राष्‍ट्रीयकृत बैंकों पर ही निर्भर है।

लेकिन पहले विजय माल्‍या और अब नीरव मोदी, मेहुल चौकसी और विक्रम कोठारी  जैसे मामलों के बाद देश की बैंकिंग व्‍यवस्‍था पर ही सवाल उठने लगे हैं। और इन्‍हीं सवालों के बीच अचानक इस धारणा को बल देने की कोशिश हो रही है कि सरकारी बैंकों की इस बिगड़ती हालत का एकमात्र हल बैंकों का राष्‍ट्रीयकरण खत्‍म करना यानी परोक्ष रूप से उनका निजीकरण है।

अपने आलेख में दलील देते हुए शेखर गुप्‍ता कहते हैं कि बैंकों का राष्‍ट्रीयकरण इंदिरा गांधी का ‘सबसे साहसी और विनाशकारी कदम’ था। ‘’इंदिरा गांधी का इरादा चाहे जो रहा हो पर बैंकों के राष्ट्रीयकरण से गरीबों को फायदा नहीं हुआ लेकिन, कई फलते-फूलते कॉर्पोरेट घरानों के लिए यह शानदार रहा। यदि सरकारी बैंकों का बाजार पूंजीकरण निजी बैंकों से आधा भी होता तो भारत सरकार और करदाता कम से कम 10 लाख करोड़ रुपए से अमीर होते।‘’

शेखर गुप्‍ता के अनुसार ‘’यह कहना गरीबों के साथ अन्याय है कि राष्ट्रीयकृत बैंक गरीबों अथवा प्राथमिक क्षेत्रों को लोन देते हैं इसलिए उनकी हालत खराब है, क्योंकि वे ज्यादातर लोन लौटाते हैं और मध्यवर्ग तो हमेशा लौटाता है। गरीब खासतौर पर किसान न भी लौटाए तो सरकार बैंकों को लौटाती है…।‘’ कुल मिलाकर शेखर गुप्‍ता अपने इस आलेख के जरिये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपेक्षा कर रहे हैं कि वे इंदिरा गांधी के कदम को उलटते हुए सारे बैंकों को ‘अराष्‍ट्रीयकृत’ कर दें।

हैरत की बात यह है कि जो बात शेखर गुप्‍ता कह रहे हैं वही भाषा देश का औद्योगिक संगठन फिक्‍की भी बोल रहा है। नईदुनिया की खबर के मुताबिक ‘’फिक्की ने सीधे तौर पर सरकार से कहा है कि सरकारी बैंकों के निजीकरण के अलावा और कोई बेहतर रास्ता नहीं है। देश को एक मजबूत बैंकिंग सेक्टर की जरूरत है। हमें देखना होगा कि सरकारी नियंत्रण के जरिये इस उद्देश्य को हम पूरा कर सकते हैं या नहीं।‘’

फिक्की अध्यक्ष राशेष शाह ने कहा है कि ‘’पिछले 11 वर्षों में सरकारी बैंकों को 2.6 लाख करोड़ रुपये की मदद के बावजूद हालात नहीं सुधरे हैं। यह कोई स्थाई समाधान भी नहीं है। 70 फीसद बैंकिंग कारोबार पर कब्‍जा रखने वाले ये सरकारी बैंक बढ़ते एनपीए से त्रस्त हैं। ऐसे में सरकार जिस तरह का आर्थिक समाजिक विकास चाहती है वह कमजोर बैंकिंग क्षेत्र की वजह से संभव नहीं हो पा रहा है।‘’

यह पहला मौका नहीं है जब उद्योग चैंबरों की तरफ से सरकारी बैंकों के निजीकरण की मांग हो रही है। जब भी एनपीए की समस्या बढ़ी है ऐसी मांग सामने आई है। वर्ष 2000 में सीआईआई द्वारा उद्योगपति राहुल बजाज की अध्यक्षता में गठित समिति ने भी बैंकों के निजीकरण की मांग की थी। हाल ही में एसोचैम ने इन बैंकों में सरकार की न्यूनतम हिस्सेदारी 52 फीसद से घटाकर 33 फीसद से नीचे ले जाने का सुझाव दिया था।

यानी अब एनपीए और बैंक धोखाधड़ी की गलियों से होता हुआ यह पूरा मामला सरकारी बैंकों के निजीकरण की ओर मुड़ रहा है। इस खेल के खतरे को समझना बहुत जरूरी है। यह तय है कि बढ़ते राजनीतिक हस्‍तक्षेप और बैंकों के राजनीतिक दुरुपयोग ने बैंकिंग ढांचे की रीढ़ तोड़ दी है। लेकिन हमें ध्‍यान रखना होगा कि निजीकरण की मांग के अपने अलग खतरे हैं।

निजी क्षेत्र को लेकर भी देश का अनुभव अच्‍छा नहीं रहा है। ऐसे में क्‍या हम धन का पूरा कारोबार उसके हाथ में देने का जोखिम ले सकते हैं? क्‍या हम हाथ में लगी चोट का बेहतर इलाज करने के बजाय हाथ को ही कटवा डालने का विकल्‍प चुनना चाहते हैं?

 

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