प्रखर परिवारवादी और समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव निश्चित तौर पर इन दिनों अपने राजनीतिक जीवन के सबसे ज़्यादा संकट से गुज़र रहे हैं। देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार की महाभारत में उनका अपना बेटा ही उनके सामने खड़ा है। इस संकट के बीच उत्तर प्रदेश समाजवादी पार्टी में जो कुछ हो रहा है, उससे यही लगता है कि मुलायम सिंह और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के रास्ते अलग-अलग हो गए हैं। देश के सबसे बड़े सूबे में शासन करने वाली पार्टी में जो घमासान चल रहा है, उसे दो तीन महीने पुराना मामला मानना भारी भूल होगी। इसकी जड़ें महीने-दो महीने या साल दो साल नहीं बल्कि तीन दशक से ज़्यादा पुरानी हैं।
इतना ही नहीं, जो लोग समाजवादी पार्टी में मौजूदा कलह को चाचा-भतीजे यानी अखिलेश यादव और उनकी टीम में सर्वाधिक ताक़तवर मंत्री रहे शिवपाल यादव के बीच वर्चस्व की लड़ाई मानकर चल रहे हैं, वे यक़ीनन भारी ग़लतफ़हमी में हैं। दरअसल, शतरंज के इस खेल में शिवपाल तो महज़ एक मोहरा भर हैं, जिन्हें नेताजी अपने बड़े बेटे पर अंकुश रखने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। सबसे अहम बात यह कि मुलायम अपनी इच्छा से यह सब नहीं कर रहे हैं, बल्कि उनसे यह सब करवाया जा रहा है। मुलायम जैसी शख़्सियत से यह सब कराने की क्षमता किसके पास है। यह समझना भी दिलचस्प होगा।
सबसे अहम बात यह कि मुलायम के जिगरी दोस्त राज्यसभा सदस्य और पॉलिटिकल मैनेजर ठाकुर अमर सिंह इस मामले पर पूरी तरह ख़ामोश हैं, फिर भी समाजवादी पार्टी के मौजूदा संकट में उनका नाम बार-बार आ रहा है। ऐसे में आम लोगों के मन में सवाल उठना लाज़िमी है कि आख़िर अखिलेश यादव अपने पिता के अभिन्न मित्र से इतना चिढ़ते क्यों हैं? इसका उत्तर जानने के लिए अस्सी के दौर में जाना पड़ेगा, जब समाजवादी पार्टी या जनता दल का अस्तित्व नहीं था और तब मुलायम सिंह यादव लोकदल के नेता हुआ करते थे।
1967 में बतौर विधान सभा सदस्य राजनीतिक सफ़र शुरू करने वाले मुलायम सिंह अस्सी के दशक तक राज्य के बहुत प्रभावशाली और शक्तिशाली नेता बन गए। चौधरी चरणसिंह के बाद वह उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग और यादवों के सबसे कद्दावर नेता हैं। राजनीतिक सफ़र में नेताओं के जीवन में महिलाएं आती रही हैं। जब मुलायम उत्तर प्रदेश के शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे तो उनके जीवन में अचानक उनकी दूसरी पत्नी साधना गुप्ता की एंट्री हुई।
मुलायम सिंह और साधना गुप्ता की प्रेम कहानी कब शुरू हुई इस बारे में अधिकृत ब्योरा किसी के पास नहीं है। कहा जाता है कि 1982 में जब मुलायम लोकदल के अध्यक्ष बने तब एक दिन उनकी नज़र अचानक पार्टी की युवा पदाधिकारी साधना पर पड़ी। साधना ख़ूबसूरत थीं और उनमें जबरदस्त आकर्षण था। मुलायम पहली ही मुलाक़ात में अपने से उम्र में 20 साल छोटी साधना गुप्ता को दिल दे बैठे। यहीं से मुलायम-साधना की अनोखी प्रेम कहानी शुरू हुई, जो तीस-बत्तीस साल बाद अंततः देश के सबसे ताक़तवर राजनीतिक परिवार में विभाजन की वजह बन रही है।
अस्सी के दशक में साधना गुप्ता और मुलायम सिंह के बीच क्या चल रहा है, इसकी भनक लंबे समय तक किसी को नहीं लगी। मुलायम के क़रीब आते ही साधना गुप्ता का, फर्रुखाबाद के अपने पहले पति चंद्रप्रकाश गुप्ता से अलगाव हो गया। इसी दौरान 1988 में साधना ने एक पुत्र प्रतीक गुप्ता (अब प्रतीक यादव) को जन्म दिया। कहते हैं कि साधना गुप्ता के साथ प्रेम संबंध की भनक मुलायम की पहली पत्नी और अखिलेश की मां मालती देवी को लग गई। वह बहुत ही कुलीन और दान-धर्म में यक़ीन करने वाली महिला थीं। यहां यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि मुलायम का पूरा परिवार अगर एकजुट बना रहा है तो इसका सारा श्रेय मालती देवी को ही जाता है। मुलायम राजनीति में सक्रिय थे। उस दौरान वे एक दूसरे को शायद ही कभी-कभार देख पाते थे, लेकिन मालती देवी अपने परिवार और 1973 में जन्मे बेटे अखिलेश यादव का पूरा ख़्याल रख रही थीं।
नब्बे के दशक (दिसंबर 1989) में जब मुलायम मुख्यमंत्री बने तो धीरे-धीरे बात फैलने लगी कि उनकी दो पत्नियां हैं, लेकिन वह इतने ताक़तवर नेता थे कि किसी की मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। बहरहाल, नब्बे के दशक के अंतिम दौर में अखिलेश को साधना गुप्ता और प्रतीक गुप्ता के बारे में पता चला। उन्हें यकीन नहीं हुआ, लेकिन बात सच थी। उस समय मुलायम साधना गुप्ता की कमोबेश हर बात मानने लगे थे। 2003 में अखिलेश की मां मालती देवी का बीमारी से निधन हो गया और मुलायम का सारा ध्यान साधना गुप्ता पर आ गया। हालांकि वह इस रिश्ते को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थे।
मुलायम और साधना के संबंध की जानकारी मुलायम परिवार के अलावा अमर सिंह को थी। मालती देवी के निधन के बाद साधना चाहने लगी कि मुलायम उन्हें अपनी आधिकारिक पत्नी मान लें, लेकिन पारिवारिक दबाव, ख़ासकर अखिलेश यादव के चलते मुलायम इस रिश्ते को कोई नाम नहीं देना चहते थे। इस बीच साधना 2006में अमर सिंह से मिलने लगीं और उनसे आग्रह करने लगीं कि वह नेताजी को मनाएं। लिहाज़ा, अमर सिंह इस काम में लग गए।2007 में अमर सिंह ने सार्वजनिक मंच से मुलायम से साधना को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने का आग्रह किया और इस बार मुलायम उनकी बात मानने के लिए तैयार हो गए।
अमर सिंह के बयान से मुलायम परिवार में फिर खलबली मच गई। लोग साधना को अपनाने के लिए तैयार ही नहीं थे। अखिलेश के विरोध को नज़रअंदाज़ करते हुए मुलायम ने अपने ख़िलाफ़ चल रहे आय से अधिक संपत्ति से संबंधित मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट में एक शपथ पत्र दिया, जिसमें उन्होंने साधना गुप्ता को पत्नी और प्रतीक को पुत्र के रूप में स्वीकार कर लिया। उसके बाद साधना गुप्ता साधना यादव और प्रतीक गुप्ता प्रतीक यादव हो गए। अखिलेश ने साधना गुप्ता की अपने परिवार में एंट्री के लिए अमर सिंह को ज़िम्मेदार माना। तब से वह अमर सिंह से चिढ़ने लगे। वह मानते हैं कि साधना गुप्ता और अमर सिंह के चलते उनके पिताजी ने उनकी मां के साथ न्याय नहीं किया।
मार्च 2012 में मुख्यमंत्री बनने पर अखिलेश यादव शुरू में साधना गुप्ता को कतई घास नहीं डालते थे। इससे मुलायम नाराज़ हो गए और अखिलेश को झुकना पड़ा। इस तरह साधना गुप्ता ने मुलायम के ज़रिए मुख्यमंत्री पर शिकंजा कस दिया। ‘द संडे गार्डियन’ ने सितंबर 2012 में साधना गुप्ता की सिफारिश पर मलाईदार पोस्टिंग पाने वाले अधिकारियों की पूरी फेहरिस्त छाप दी, तब साधना गुप्ता पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आईं।
अब यह साफ़ हो गया है कि मुलायम की विरासत को लेकर चल रहे मौजूदा संघर्ष में अखिलेश की लड़ाई सीधे लीड्स यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने वाले अपने सौतेले भाई प्रतीक यादव से है। लखनऊ में रियल इस्टेट के बेताज बादशाह प्रतीक को अपनी मां साधना गुप्ता का समर्थन मिल रहा है। चूंकि साधना नेताजी के साथ रहती हैं इसलिए बाहर वाली से घरवाली बनी साधना गुप्ता की बात टालना फ़िलहाल मुलायम सिंह के वश में नहीं है।
लखनऊ के गलियारे में साधना गुप्ता को कैकेयी कहा जा रहा है। आमतौर पर परदे के पीछे रहने वाली साधना अखिलेश से तब बहुत ज़्यादा नाराज़ हो गईं, जब अखिलेश ने उनके आदमी गायत्री प्रजापति को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया। दरअसल, प्रतीक के बहुत ख़ासमख़ास गायत्री प्रजापति को मुलायम के कहने पर खनन जैसा मलाईदार महकमा दिया गया था। यह विभाग हुक्मरानों को हर महीने कई करोड़ की अवैध उगाही करवाता है। जब इसकी भनक अखिलेश को लगी तो वह प्रतीक के रसूख और कमाई के स्रोतों पर हथौड़ा चलाने लगे। यह बात साधना को बहुत बुरी लगी। नाराज़ साधना गुप्ता को मनाने के लिए ही मुलायम ने पार्टी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी अखिलेश से छीनकर साधना खेमे के शिवपाल यादव को दे दी। अब उसी के चलते बाप-बेटे यानी अखिलेश और मुलायम आमने-सामने आ गए हैं।
इटावा जिले के सैफई में 22 नवंबर, 1939 को स्व. सुघर सिंह यादव और स्व. मूर्ति देवी के यहां जन्मे और पांच भाइयों में तीसरे नंबर के मुलायम सिंह यादव तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने उत्तर प्रदेश के लिए कुछ किया हो या नहीं पर अपने परिवार के लिए बहुत कुछ किया। परिवार को उन्होंने राजनीतिक और आर्थिक रूप से इतना ताक़तवर बना दिया है कि आने वाले समय में उनके कुटुंब के कई लोग सांसद या विधायक होंगे। फ़िलहाल मुलायम परिवार में छह सांसद और तीन विधायक समेत 21 लोग महत्वपूर्ण पदों पर क़ाबिज़ हैं। भारतीय राजनीति में वंशवाद का तोहमत कांग्रेस पर लगता है, लेकिन यूपी में मुलायम परिवार ने कांग्रेस को मीलों पीछे छोड़ दिया है।
जहां तक मुलायम परिवार में ताजा घमासान का सवाल है, राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि इस मुद्दे पर मुलायम सिंह को बड़ा जन समर्थन नहीं मिलने वाला, क्योंकि उन्होंने मुलसमानों को ख़ुश करने और अपने परिवार के ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को राजनीति में प्रमोट करने के अलावा कुछ नहीं किया। समाजवादी पार्टी के संस्थापक वे भले ही हों, लेकिन इस पार्टी का भविष्य अखिलेश यादव ही हैं। 2012 के विधान सभा चुनाव में पार्टी को जो जनादेश मिला था, वह मायावती की स्टैट्यू पॉलिटिक्स से नाराज़गी और अखिलेश की ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं में जान फूंकने से संभव हुआ था। मुलायम के लिए बेहतर विकल्प अखिलेश के साथ रहना ही है। क्योंकि शिवपाल-साधना की इमेज राज्य में अच्छी नहीं है। आम धारणा भी यही है, शिवपाल-साधना-अमरसिंह का नैक्सस अखिलेश को स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने दे रहा।
(यह जानकारी हमें एक पाठक ने वाट्सएप पर प्रेषित की है। मध्यमत इसके तथ्यों की पुष्टि नहीं करता है।)