वे दिवाली के ही दिन हुआ करते थे। एक तरफ घरों में रंगाई पुताई की अफरा-तफरी होती, तो दूसरी तरफ तरह-तरह के पकवान बनने की खुशबू से पास-पड़ोस तो क्या मोहल्ले तक महकते रहते। दीवाली आने वाली है इसका उत्साह स्कूलों में दुगुना ही हुआ करता था। कारण यह था कि उन दिनों दशहरे दिवाली के लिए करीब करीब एक महीने की छुट्टी मिला करती थी। बच्चे पढ़ाई लिखाई के टेंशन से दूर, पूरे उत्साह से त्योहार के रंग में रंगे होते। चूंकि स्कूल जाने का झंझट नहीं रहता था इसलिए वे घर की साफ सफाई और रंगाई पुताई से लेकर हर छोटे मोटे काम में यथाशक्ति हाथ बंटाते।
छुट्टी के दिनों में होमवर्क देने का चलन बहुत बाद में शुरू हुआ। पहले तो छुट्टी माने छुट्टी। जब छुट्टी के दिनों में होमवर्क देने की प्रथा शुरू हुई, बच्चे बंधने लगे, त्योहार के उल्लास में खलल पड़ा। घर के काम में हाथ बंटाने और परंपराओं को जानने समझने के बजाय छुट्टी के दिनों में होमवर्क की चिंता रहने लगी। मुझे याद है शरारत करने के नाम पर हम जब ऐसी ही छुट्टियों में मोहल्ले के बच्चों से मिलते तो यूं ही छेड़ने के लिए पूछ लेते ‘’और! होमवर्क निपट गया क्या?’’ होमवर्क का नाम सुनते ही सामने वाले का मूड खराब हो जाता, चिढ़कर वह कहता- ‘’क्या यार, तुमने भी कहां याद दिला दी।‘’
हां, जब छुट्टियों में होमवर्क नहीं हुआ करता था, तब भी एक तलवार ऐसी थी जो हमेशा सिर पर लटकती रहती। वो थी दीवाली की छुट्टियों के बाद होने वाली छह माही परीक्षा। वह समय साल में दो परीक्षाओं का था। छह माही परीक्षा और बारह माही या सालाना परीक्षा। हालांकि अगली कक्षा में जाने की पात्रता बारह माही परीक्षा से ही मिलती थी, लेकिन छह माही परीक्षा का रुतबा भी कम नहीं होता था। छह माही में रिजल्ट गड़बड़ हुआ तो उसका परिणाम भी स्कूल और घर में ‘गंभीर’ ही हुआ करता था। बाद में तिमाही परीक्षा भी होने लगी। फिर मासिक टेस्ट आए और बाद में साप्ताहिक आकलन शुरू हो गया। पीठ पर बस्ते का बोझ और सिर पर रोजमर्रा का होमवर्क चढ़कर नाचने लगा। और इस तरह पता नहीं कब, त्योहार और उत्सव में, उल्लास और उमंग से नाचने वाला बच्चा, ‘शिक्षा के मदारियों’ के इशारे पर नाचने वाला बंदर बन गया।
आप सोच रहे होंगे कि आखिर आज मुझे त्योहारों के साथ स्कूल के होमवर्क और छह माही व बारह माही परीक्षाएं क्यों याद आ गईं? तो उसकी वजह मंगलवार को हुई केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की बैठक है। मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में यह राय बनी है कि स्कूली बच्चों को आठवीं कक्षा तक फेल न करने की नीति (नो डिटेंशन पॉलिसी) के बारे में राज्य सरकारें ही फैसला करें। जहां तक 10वीं की बोर्ड परीक्षा फिर से शुरू करने का सवाल है, इस पर केंद्र सरकार जल्दी ही फैसला करेगी।
प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि ‘नो डिटेंशन पॉलिसी’ पर आमराय नहीं है। कुछ राज्य इसे जारी रखना चाहते हैं, जबकि कुछ का कहना है कि शिक्षा के गिरते स्तर को देखते हुए इस नीति को खत्म किया जाना चाहिए। परीक्षा लेने की व्यवस्था को शिक्षा के अधिकार कानून का हिस्सा बनाए जाने पर भी विचार हुआ। बोर्ड के सदस्यों का कहना था कि छठी या सातवीं कक्षा में कोई छात्र फेल हो जाए तो उसे अलग से कोचिंग देकर परीक्षा देने का एक मौका और दिया जाए। अभी कानून में यह प्रावधान है कि पहली कक्षा से लेकर आठवीं कक्षा तक न तो परीक्षा ली जा सकती है और न ही किसी छात्र को अयोग्य घोषित कर उसे अगली कक्षा में जाने से रोका जा सकता है।
दरअसल परीक्षा का यह मुद्दा हमारे नीति नियंताओं ने ही बहुत पेचीदा बना दिया है। पहले बच्चों पर परीक्षा के तनाव का हवाला देते हुए उन्हें पहली से आठवीं तक फेल न करने की नीति बनाई गई और अब इस बात का रोना रोया जा रहा है कि इस नीति के चलते शिक्षा के स्तर और उसकी गुणवत्ता में भारी गिरावट आई है। ऐसे दर्जनों उदाहरण दिए जा रहे हैं जहां पांचवीं या आठवीं के बच्चों को न तो अक्षरों या बारहखड़ी की ठीक से पहचान है और न ही वे जोड़ और घटाव के साधारण सवाल ही कर पा रहे हैं।
मेरे हिसाब से मुद्दा परीक्षा लेने या न लेने का है ही नहीं। मुद्दा शिक्षा पद्धति में सुधार का है। परीक्षा के तनाव और बस्ते के बोझ जैसी बातें तो आज हो रही हैं। वो पीढ़ी जिसका जिक्र मैंने शुरुआत में किया, वह तो बिना बोझ के आगे बढ़ी थी। रही बात परीक्षा की तो उस समय पहली से लेकर आठवीं तक साल में दो बार परीक्षाएं होती थी, छह माही और बारह माही। तब तो कोई हल्ला नहीं मचा न ही परीक्षा के तनाव के कारण बच्चों की आत्महत्या का ऐसा दौर चला।
ऐसे में अब जब देश में शिक्षा सुधार और नई शिक्षा नीति पर बहस चल ही रही है तो यह क्यों न कर लिया जाए कि शिक्षाविदों के साथ साथ राजनीतिक दलों में भी एक समग्र व सर्वमान्य शिक्षा नीति पर सहमति बने। यह देश की बुनियाद तैयार करने का मामला है। अभी तो ऐसा लगता है कि हम बुनियाद में ही मठा डालने पर तुले हैं।