प्रशांत पोळ
आज ‘विश्व मूल निवासी दिवस’ (World Indigenous Day) है। सन 1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस दिवस की घोषणा की थी। इस कल्पना को लेकर सन 1982 में Working Group on Indigenous People समूह की पहली बैठक 9 अगस्त को हुई थी। इसलिए 9 अगस्त को ‘विश्व मूल निवासी दिवस’ मनाया जाता है।
इसके पीछे संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका बड़ी स्पष्ट है। उनके अनुसार विश्व के लगभग 90 देशों में 47.6 करोड़ मूल निवासी रहते हैं, जो विश्व की जनसंख्या के 5 प्रतिशत के बराबर हैं। किन्तु दुनिया भर के गरीबों में मूल निवासियों की संख्या 15 फीसदी है। ऐसे मूल निवासियों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए, उनका जीवन स्तर बढ़ाने के लिए, संयुक्त राष्ट्र संघ, यह दिवस मनाता है।
प्रश्न है, मूल निवासी कौन? हम सभी जानते हैं, कि सन 1492 में भारत जाने के प्रयास में, कोलंबस अमेरिका पहुंच गया था। पहुंचने के बाद उसे लगा, यही ‘इंडिया’ है। इसलिए वहां पहले से जो लोग रहते थे, उन्हें ‘इंडियन’ नाम दिया गया। बाद में कोलंबस की गलतफहमी दूर हुई और उसे पता चला कि यह इंडिया (भारत) नहीं है। किन्तु वहां के मूल रहवासियों को दिया गया नाम, ‘इंडियन्स’, वैसे ही चलता रहा। पहले उन्हे ‘रेड इंडियन्स’ कहा जाता था। आज ‘अमेरिकन इंडियन्स’ (या नेटिव अमेरिकन्स) कहा जाता है।
ये हैं मूल निवासी
1492 में, जब सबसे पहले कोलंबस के साथ यूरोपियन्स वहां पहुंचे, तब वहां के मूल निवासी, अर्थात अमेरिकन इंडियन्स की संख्या, हेनरी डोबीन्स (Henry F Dobyns) के अनुसार एक करोड़ 80 लाख थी। जनसंख्या वृद्धि के अनुपात के अनुसार, आज यह संख्या 15 करोड़ के लगभग होना चाहिए थी। लेकिन पिछले चार सौ/पांच सौ वर्षों में, अमेरिका में बसने आए अंग्रेज़, फ्रेंच, स्पेनिश आदि यूरोपियन्स ने इन मूल निवासियों पर जबरदस्त अत्याचार किए, उनका वंशच्छेद किया। कई फैलने वाली बीमारियां इन ‘इंडियन्स’ के बीच लायी गईं, जिनके कारण बड़ी संख्या में ये अमेरिकी इंडियन्स चल बसे। इन सबके कारण 2010 की अमेरिकी जनगणना के अनुसार, इन मूल निवासियों की संख्या है, 55 लाख, जो अमेरिकी जनसंख्या की 1.67 फीसदी मात्र है। ये हैं अमेरिका के मूल निवासी
ऑस्ट्रेलिया में सर्वप्रथम सन 1770 में जेम्स कुक, ब्रिटिश सेना का लेफ्टिनेंट, पहुंचा। तब ब्रिटिश सरकार, अपने कैदियों को रखने के लिए एक बड़ा सा द्वीप खोज रही थी। जेम्स कुक और उसके साथी जोसेफ बैंक्स के कहने पर ब्रिटिश सरकार ने ऑस्ट्रेलिया का यह द्वीप इस कार्य के लिए निश्चित किया। 13 मई 1787 को 11 जहाजों में भरकर, डेढ़ हजार से ज्यादा अंग्रेज़, इस द्वीप पर पहुंचे, इनमें 737 कैदी थे। ऑस्ट्रेलिया में उपनिवेशवाद की यह शुरुआत थी।
उस समय ऑस्ट्रेलिया में जो मूल निवासी रहते थे, वे दो प्रमुख समूहों में थे। उनके नाम भी इन अंग्रेजों ने ही रखे। वे थे- Torres Strait Islanders और Aboriginal, दोनों को मिलाकर, उन दिनों उनकी कुल संख्या थी, दस लाख से ज्यादा। जनसंख्या वृद्धि के अनुपात के अनुसार, आज वह साठ लाख से ज्यादा होना चाहिए थी। लेकिन 2016 की जनगणना के अनुसार यह मात्र सात लाख नब्बे हजार है, जो ऑस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या का 3.3 प्रतिशत है।
ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों की संख्या इतनी कम कैसे हुई..? वही, जो अमेरिका में हुआ। बर्बरता से किया गया इन मूल निवासियों का नरसंहार और बाहर के देशों से आए हुए अनेक रोगों के कारण इन मूल निवासियों की स्वाभाविक दिखने वाली मृत्यु।
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशों में मूल निवासियों की हालत अत्यंत खराब थी। इन यूरोपियन्स ने उनको कहीं का नहीं छोड़ा था। अमेरिका ने उनको ‘सिविलियन’ बनाने की ठानी। पहले राष्ट्राध्यक्ष, जॉर्ज वॉशिंगटन के जमाने से इन मूल निवासी अर्थात ‘अमेरिकन इंडियन्स’ को जबरदस्ती ‘सिविलियन’ बनाने की नीति आज तक जारी है। इन सारे मूल निवासियों को इन अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने जड़ों से तोड़ा है। वे कही के नहीं बचे हैं। अनेक अमेरिकी मूल निवासी, आज गरीबी रेखा के अंदर आते हैं।
ये ऐसे वंचित और उपेक्षित लोगों के लिए है, ‘मूल निवासी दिवस’! भला भारत में इस दिवस का क्या औचित्य? यहां तो हम सभी मूल निवासी है। हां, मुस्लिम आक्रांता जरूर आए थे बाहर से। ईरान (पर्शिया), इराक, अफगानिस्तान, तुर्कस्तान, किर्गिस्तान, उजबेकिस्तान… आदि अनेक देशों से। तो संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार चलें तो, इन आक्रांताओं को छोड़कर, भारत में सभी मूल निवासी हैं।
बाहर से आए तो अंग्रेज़ भी थे। किन्तु 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के पश्चात वे भारत छोड़कर चले गए। तो फिर भारत में इस ‘विश्व मूल निवासी दिवस’ का बहुत ज्यादा औचित्य नहीं होना चाहिए। विश्व के अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के मूल निवासियों के हक के प्रति सहानुभूति और समर्थन, इतनी सीमित भूमिका हमारी होनी चाहिए थी। किन्तु ऐसा हुआ नहीं।
आजकल अपने देश में भी यह दिवस मनाने का चलन प्रारंभ हुआ है। अनेक राज्य इसे ‘आदिवासी दिवस’ के रूप में मनाते हैं। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश जैसे राज्य तो 9 अगस्त को ऐच्छिक अवकाश घोषित करते हैं। यह सब कैसे हो गया…? इसका उत्तर है, वामपंथियों की एक बहुत सोची समझी रणनीति के कारण।
अब इसमें वामपंथ कहां से आया? दरअसल वामपंथ की मूल सोच है, समाज में वर्गसंघर्ष खड़ा करना। प्रस्थापित व्यवस्था के विरोध में संघर्ष निर्माण करना। इस संघर्ष से अराजकता फैलेगी और अराजकता में ही क्रांति के बीज होते हैं। इसलिए इसमें से सर्वहारा क्रांति होगी! अर्थात वर्गसंघर्ष के लिए ‘मूल निवासी दिवस’ एक अच्छा साधन है। इसका पूरा फायदा वामपंथी विचारकों ने उठाया।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ‘मूल निवासी दिवस’ की घोषणा होने के बाद, अपने देश में ‘आदिवासी ही इस देश के असली (मूल) नागरिक हैं, और बाकी सारे बाहर से आए है’ यह विमर्श चल पड़ा। ‘आर्य बाहर से आए’ यह सिध्दांत तो प्रस्थापित था ही, जो शालाओं में भी पढ़ाया जाता था। यह सिध्दांत अंग्रेजों ने बनाया। उन्होंने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशों में जाकर, वहाँ के मूल निवासियों को भगाकर या मारकर अपना साम्राज्य प्रस्थापित किया था। इसलिए ‘भारत में भी सारे बाहर से ही आए हैं, तो अंग्रेजों के आने से कोई फरक नहीं पड़ता’ यह उस सिध्दांत का आधार था।
किन्तु स्वतंत्रता मिलने के बाद भी, हमारे वामपंथी विचारकों द्वारा इस प्रकार का विमर्श खड़ा करना यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण था। आज से नौ वर्ष पहले, अर्थात 12 जनवरी, 2011 को ‘द हिन्दू’ अंग्रेजी समाचार पत्र में एक आलेख छपा, ‘India, largely a country of immigrants’ इसमें कहा गया, “If North America is predominantly made up of new immigrants, India is largely a country of old immigrants इसमें ज़ोर देकर प्रतिपादित किया गया कि इस देश के मूल निवासी तो केवल आदिवासी ही हैं, जो 8 फीसदी हैं। बाकी सारे 92 प्रतिशत लोग बाहर से आए हुए हैं। These facts lend support to the view that about 92 per cent of the people living in India are descendants of immigrants“
इस बात का आधार क्या है…? अंग्रेजों की लिखी हुई, The Cambridge History of India (Volume 1) का उध्दरण इस आलेख के लिए लिया गया है। अब इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है…? ऐसे अनेक आलेख पिछले कुछ वर्षों में माध्यमों में आए है। ‘आर्य बाहर से आए’ यह विमर्श अब गलत साबित हुआ है। सारे तथ्य, प्रमाण और DNA की जांच से यह सिध्द हुआ है, कि हम सब इसी भारत देश के मूल निवासी हैं। इसके ठीक विपरीत, OIT (Out of India Theory) की मान्यता बढ़ रही है। इस सिध्दांत के अनुसार भारत जैसे संपन्न देश से, कुछ समुदाय बाहर स्थलांतरित हुए हैं। केल्टिक समुदाय, येजीदी समुदाय इनके उदाहरण हैं। कोनराड ईस्ट जैसे विचारकों ने इसे प्रतिपादित किया है।
संयुक्त राष्ट्र लगभग पांच सौ से एक हजार वर्षों में, जिन देशों में बाहर से आए लोगों ने सत्ता और शासन प्राप्त किया, उन्हीं देशों के मूल निवासियों को यह ‘मूल निवासी’ का दर्जा दे रहा है। किन्तु अपने देश में तो वेद/उपनिषद/पुराण कई हजार वर्ष पहले के हैं। सारे उदाहरण, सारे प्रमाण, सारे तथ्य कम से कम सात/आठ हजार वर्षों तक के इतिहास तक हमें पहुचाते हैं। अर्थात मुस्लिम आक्रांताओं का अपवाद छोड़, हम सभी मूल निवासी हैं।
और जिन्हे ‘आदिवासी’ कहा जाता है, वे ‘आदिम युग’ में जीने वाले आदिवासी नहीं है, अपितु वनों में, ग्रामों में रहने वाले ‘वनवासी’ हैं। ये अत्यंत प्रगत और प्रगल्भ समाज हैं। इनका जल व्यवस्थापन, इनका समाज जीवन, इनका पर्यावरण के साथ जीना… सभी अद्भुत है। लगभग पांच सौ वर्ष पहले, हमारे गोंडवाना की वनवासी रानी दुर्गावती, बंदूक चलाने में माहिर थी। ऐसा समाज वंचित, शोषित कैसे हो सकता है? इसलिए मूल निवासियों के मामले में हमारी तुलना अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ करना गलत और अन्यायपूर्ण है।
एक गहरी साजिश के तहत, भारत में ‘मूल निवासी दिवस’ को ‘आदिवासी दिवस’ बनाया गया है। यह देश की एकता तोड़ने वाला कृत्य है। इसे पूरी ताकत लगाकर रोकना चाहिए। भारत में हम सभी मूल निवासी हैं, यही सत्य है और यही भाव होना चाहिए…!