राकेश अचल
देश में जब से झंडा है तभी से झंडाबरदार भी हैं। झंडा लेकर चलने वाले को झंडाबरदार कहते हैं। झंडाबरदार की ड्यूटी होती है की वो झंडा कभी झुकने न दे। झंडाबरदारों की अपनी हैसियत होती थी। ‘थी’ इसलिए कि अब न झंडे रहे और न झंडाबरदार। अब झंडा भी ध्वज हो गया है। मुगल इसे ‘परचम’ और अंग्रेज ‘फ्लैग’ कहते थे। देश में जब तक झंडा रहा, तब तक झंडाबरदार ही नहीं झंडा गीत लिखने वाले भी हुए। झंडा दिवस तो संयोग से आज भी मनाया जाता है। इस दिन झंडे के नाम पर शहीद सैनिकों के लिए जनधन जुटाया जाता है वो भी टारगेट देकर।
बात झंडाबरदारों की हो रही थी। दरअसल झंडाबरदारों के बारे में जानने से पहले आपको झंडा क्या है? ये जान लेना चाहिए। झंडा कपड़े का बना होता है। हर देश का अपना झंडा होता है। झंडा एक डंडे में लगाया जाता है। देश के अलावा राजनीतिक दलों, संगठनों के अपने झंडे होते हैं। हमारे राजनीतिक दलों के झंडे तो विविध प्रकार के होते हैं। किसी में हाथ का पंजा होता है, तो किसी में कमल का फूल। कोई साइकल छपवाता है, तो कोई तृण मूल। किसी झंडे पर झाड़ू होती है, तो किसी पर लालटेन।
झंडों का ये वैविध्य ही हमारे देश में विविधता में एकता का असली प्रतीक है। इतने सारे झंडे होते हुए भी हम सब केवल तिरंगा झंडा फहराने का सपना देखते हैं। कई देशों में तो देश के साथ सूबों के भी झंडे होते हैं। हमारे यहां झंडे देश के अलावा अब केवल मंदिरों के होते हैं। झंडा पुल्लिंग है, इसलिए उसके स्त्री लिंग स्वरूप को झंडी कहते हैं। झंडा फहराना जहाँ एक राष्ट्रीय कर्तव्य है वहीं झंडी सतर करना एक मुहावरा भी है।
भारत में झंडे के अनेक प्रकार होते हैं, मंदिरों पर चढ़ाये जाने वाले झंडे को धर्म ध्वजा कहते हैं, देवी के मंदिर पर लगाया जाने वाला झंडा नेजा कहा जाता है। हमारे यहां झंडे फहराना व्यक्ति की मनोकामनाओं से भी जुड़ा है। जब मन्नत पूरी होती है तो झंडा चढ़ाया जाता है। हमारे शंकराचार्य तो अपना झंडा और डंडा साथ में लेकर ही चलते हैं। जिसका झंडा जितना ऊंचा होता है समाज में उसकी हैसियत उतनी ज्यादा होती है। झंडे के लिए डंडे का होना बहुत जरूरी है। बिना डंडे के झंडा हो ही नहीं सकता। आधुनिक युग में झंडे लोहे के पाइप में भी लगाए जाने लगे हैं। झंडे कागज और पॉलीथिन के भी बनाये जाने लगे हैं लेकिन असल झंडा तो कपड़े का ही बनता है।
एक जमाने में झंडे की लोकप्रियता इतनी ज्यादा थी कि लोग अपने बच्चों का नाम तक झंडा रखने लगे थे। वो जमाना और था। तब नाम रखने के लिए डिक्शनरी नहीं खोली जाती थी। बस जिसका किरदार पसंद आ गया उसी का नाम अपना लिया। उस जमाने में कलेक्टर, बालट्टर, तहसीलदार, हवलदार, थानेदार, किलेदार तक नाम रखे जाते थे। हमरे चबंल में तो ऐसे नाम आसानी से मिल जाते हैं। तहसीलदार सिंह का नाम तो आपने भी शायद सुना हो! वे अपने जमाने के कुख्यात डाकू मानसिंह के बेटे थे। क्या झब्बेदार मूंछें थी उनकी।
बात झंडे की हो रही थी। हमारे यहां एक हैं झंडा सिंह। आजकल बहुत दुखी हैं। कल चक्की पर मिल गए। मुंह कुछ उतरा हुआ था। हमने उन्हें देखा तो अदब से राम-राम कर ली। झण्डा सिंह हों या झंडा, हमारे मन में दोनों के प्रति समान सम्मान रहता है। हमने पूछा-
‘दादा क्या बात है, कुछ नाराज से लग रहे हो?’
‘अरे नहीं’
‘कुछ तो है, वरना आप तो झंडे की तरह लहराते, फड़फड़ाते रहते हैं!’
झंडा सिंह जी मेरी बात सुनकर जरा से मुस्करा दिए। उनका मुस्कराना हमारे लिए उंगली पकड़कर कलाई पकड़ने जैसा है। हमने आगे बढ़कर कहा-
‘क्या हो गया दद्दा झंडा सिंह जी’
‘अब का बताएं लला, सब दिनन के फेर हैं। कोऊ न हमें पूछ रहो है और न झंडा खों?’
अरे हुआ क्या, जरा खुल के बताइये न महाराज’ मैंने उन्हें कुरेदा। आदमी के मन में उतरने के लिए उसे कुरेदना बहुत जरूरी है, बिना कुरेदे बात आगे ही नहीं बढ़ती। आप जितना ज्यादा कुरेदेंगे उतना अधिक जान पाएंगे। कुरेदना भी एक कला है। इसके बारे में फिर कभी। हमारा कुरेदना काम कर गया। झंडा सिंह जी नॉनस्टॉप बोलने लगे।
‘अब देखो न पंडित जी, कितनी मन्नतों के बाद मौड़ा (लड़का) मंत्री बनो है, अकेले सरकार ने ऊ के हाथ से झंडा फैरावे को मौक़ा ही छीन लओ।’ झंड सिंह ठेठ बुंदेली में बोले। वैसे वे खड़ी हिन्दी का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन गुस्से में अपनी मातृभाषा पर आ जाते हैं। मातृ भाषा में उन्हें बात कहने में आसानी होती है।
झंडा सिंह का चेहरा तमतमा रहा था, उन्हें कुरेदने के लिए ये स्वर्ण अवसर था, मैंने लपक कर कहा-
‘महाराज आखिर किस्सा क्या है?’
ख़ाक किस्सा है? केवल कोरोना है, मुख्यमंत्री ने कोरोना की आड़ लेकर स्वतंत्रता दिवस पर सार्वजनिक रूप से होने वाले समारोह को ही रद्द कर दिया है। अब कहीं कोई मंत्री झंडा नहीं फहराएगा। केवल मुख्यमंत्री जी झंडा फहराएंगे, मंत्रियों के बजाय कलेक्टरों से कह दिया है कि वे अपने दफ्तरों में सांकेतिक रूप से झंडा फहरा लें।‘ अब, जब सब कलेक्टर ही कर लेंगे तो मंत्री क्या घुइंयाँ छीनेंगे… झंडा सिंह ने उदिग्न होकर खुद ही प्रश्न कर लिया।
जैसा कि मैंने आपको पहले ही बताया कि देश में आजादी के बाद से मंत्री और कोई काम करें या न करें लेकिन पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को झंडा जरूर फहराते हैं। झंडा फहराने के लिए मंत्रीगण स्पेशल ड्रेस सिलवाते हैं। साफे, पगड़ियां और टोपियां लगाते हैं। झंडा फहराने से मंत्रियों के स्वास्थ्य में उत्तरोत्तर इजाफा होता है। डाक्टर भी मानते हैं कि झंडा फहराने से मंत्रियों का रक्तचाप और मधुमेह नियंत्रण में रहता है। नींद और ख्वाब अच्छे आते हैं।
अपने शहर में हमने जब से होश सम्हाला है झंडावंदन का कार्यक्रम कभी स्थगित होते नहीं देखा, यहां तक कि बरसात में भी झंडा फहराया गया। हमने पिछले पचास साल में ऐसे-ऐसे और न जाने कैसे-कैसे लोगों को झंडा फहराते देखा है, लेकिन इस बार नहीं देख पाएंगे। हमारा कीर्तिमान भंग हो जाएगा। हमारे सूबे में तो इस बार 14 ऐसे महानुभाव मंत्री बनाये गए थे जो विधानसभा के सदस्य ही नहीं हैं। सबकी हसरत झंडा फहराने की थी, लेकिन बुरा हो इस कोरोना का जो उसने सबके वर्षों पुराने सपनों पर पानी फेर दिया।
हमें याद है, बचपन में हम स्कूली बच्चे पंद्रह अगस्त के दिन अपने गांव में झंडा लेकर प्रभातफेरी निकालते थे। गाँधी टोपी लगाते थे और साथ ही श्यामलाल गुप्ता ‘पार्षद’ का लिखा गीत – ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ गाते थे। अब जब झंडा ही सार्वजनिक रूप से नहीं फहराया जाएगा तो ये गीत भी कैसे गाया जाएगा?
‘जब मंदिर का भूमि पूजन हो सकता है तो झंडावंदन क्यों नहीं हो सकता?’ झण्डा सिंह ने प्रश्न किया।
‘क्यों नहीं हो सकता’, मैंने उनकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाते हुए कहा। हमें पता था कि हमने रत्ती भर भी इधर-उधर बोला और झण्डा सिंह जी बमके। बमकना लगभग बम फटने जैसा ही होता है। बमकने की उत्पत्ति भी शायद बम से ही हुई होगी। झंडा प्रसंग पर हम अपनी बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाते तभी चक्की वाले ने आकर हमें सचेत किया-
‘पंडित जी आपका आटा पिस गया है’
‘आटा पीस गया है? हम तो गेहूं ले के आये थे!’ हमने हैरानी से पूछा तो बेचारा चक्की वाला लजा गया। बोला- ‘ सरकार हम चक्की चलाने वाले हैं, कोई भाषा विज्ञानी या व्याकरणाचार्य थोड़े ही हैं।’
आपको पता ही है कि हमारे देश में गेहूं कम, आटा ज्यादा पिसता है। जब गेहूं पिसता था तब घुन भी पिस जाता था। अब तो जैसे झंडावंदन के अवसर कम हो रहे हैं वैसे-वैसे गेहूं पिसने के अवसर भी कम होते जा रहे हैं, अब तो आटा पैकेटों में आने लगा है। बड़े-बड़े अभिनेता आटे का प्रचार करने लगे हैं। किसी राजनीतिक दल को चिंता नहीं हैं कि देश में जैसे रोजगार का संकट है वैसे ही चक्कियों का भी संकट है। झंडे का तो है ही। कम से कम झंडावंदन को तो कोरोना से बचा लेना चाहिए था रामजी। झंडे के लिए तो हमारे जवानों, किसानों और युवाओं ने अपनी जान तक न्योछावर कर दी थी।