दूरसंचार कंपनियों से वसूली जाने वाली समायोजित सकल राजस्व यानी एजीआर की राशि का मामला इन दिनों बहुत चर्चा में है। यह वही मामला है जिस पर दूरसंचार विभाग के एक अधिकारी के पत्र को लेकर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अरुण मिश्रा ने पिछले दिनों बहुत तल्ख टिप्पणी की थी और जिस पर इसी कॉलम में मैंने सोमवार का लिखा था।
आज थोड़ी सी बात उस मामले की जिसने सुप्रीम कोर्ट से लेकर सरकार तक और कॉरपोरेट जगत से लेकर आर्थिक जगत तक में हलचल मचा रखी है। दरअसल दूरसंचार विभाग को निजी दूरसंचार कपंनियों से लायसेंस फीस व अन्य मदों में एक लाख 33 हजार करोड़ रुपये की राशि लेनी है। यह वो राशि है जो इन कंपनियों को, निजी स्तर पर दूरसंचार सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए, लायसेंस दिए जाते समय नियमों और शर्तों के अधीन तय की गई थी।
इन दूरसंचार कपंनियों से जब इस वसूली की बात उठी तो ये कंपनियां कुछ आपत्तियां उठाते हुए दूरसंचार गतिविधियों से जुड़े नियामक संस्थानों में चली गईं। वहां अपने अनुकूल फैसला न आने पर दूरसंचार विभाग ने 2007 में सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और तभी से यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चला आ रहा है।
निजी दूरसंचार कंपनियों और दूरसंचार विभाग में यह विवाद मुख्य रूप से एजीआर की परिभाषा को लेकर है। एजीआर वह आधार है जिस पर दूरसंचार विभाग ने निजी कंपनियों से अपनी वसूली निकाली है। उस हिसाब से निजी कंपनियों को एजीआर की 3 से 5 फीसदी राशि स्पेक्ट्रम इस्तेमाल की फीस के रूप में और आठ फीसदी राशि लायसेंस फीस के रूप में दूरसंचार विभाग को अदा करनी है।
निजी कंपनियों का कहना है कि वे दूरसंचार की कोर गतिविधियों को लेकर इस तरह की फीस के देनदार हैं जबकि दूरसंचार विभाग की दलील है कि कंपनियों को कोर गतिविधियों के साथ साथ उससे जुड़ी अन्य गतिविधियों यानी नॉन कोर पर भी यह शुल्क देना होगा। इसी झगड़े में यह मामला इतने सालों से लटक रहा है।
पिछले साल यानी 2019 में 24 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में दूरसंचार विभाग की उस दलील को सही ठहराया था जिसमें कहा गया था कि सरकारी देनदारियों यानी एजीआर में दूरसंचार कंपनियों की गैर-दूरसंचार आय को भी शामिल किया जाना चाहिये। कोर्ट ने निजी दूरसंचार कंपनियों से कहा था कि वे 23 जनवरी 2020 तक दूरसंचार विभाग को बकाया राशि, जो करीब 1.33 लाख करोड़ रुपये होती है चुका दें।
इस फैसले से सकते में आई निजी कंपनियों ने 22 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की। याचिका लगाने वाली कंपनियों में भारती एयरटेल, वोडा-आइडिया और टाटा टेलीसर्विसेज शामिल थीं। उन्होंने कोर्ट से अनुरोध किया कि एजीआर में गैर-दूरसंचार गतिविधियों की आय को शामिल न किया जाए पर सुप्रीम कोर्ट ने छह जनवरी 2020 को सभी पुनर्विचार याचिकाएं खारिज करते हुए कंपनियों को जल्द भुगतान करने को कहा।
यहां तक मामला कानूनी है। अब इसका आर्थिक पक्ष सुन लीजिये। निजी कंपनियों पर जो राशि बकाया है उनमें से वोडाफोन-आइडिया पर 53038 करोड़ रुपये, भारती एयरटेल पर 35586 करोड़ रुपये और टाटा टेलीसर्विसेज पर 13823 रुपये का बकाया शामिल हैं। जिस समय देश में भारी मंदी का माहौल है और कई बड़े बड़े सेक्टर खुद को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं उस समय इतनी बड़ी राशि चुकाना आज इन कंपनियों के लिए अपने वजूद को दांव पर लगाने के समान है।
यह बात सही है कि दूरसंचार विभाग यानी एक तरह से सरकार ही इस वसूली को लेकर सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर गई थी और उसी की याचिका पर कोर्ट ने उसके पक्ष में फैसला देते हुए निजी कंपनियों को तत्काल यह राशि जमा करने का सख्त फैसला सुनाया है। लेकिन सरकार पर दूसरी तरफ इन कंपनियों का और इनके जरिये कॉरपोरेट सेक्टर का भारी दबाव भी है। दबाव इस बात का, कि यदि एकमुश्त इतनी बड़ी राशि वसूली गई तो उनके अस्तित्व को खतरा पैदा हो जाएगा और यदि वे डूबीं तो बाजार के साथ साथ लाखों लोगों का रोजगार भी ले डूबेंगीं।
अब एक तरफ सरकार कोर्ट में अपनी बकाया राशि वसूलने के लिए लड़ रही है वहीं दूसरी तरफ वह आर्थिक मंदी के इस कठिन दौर में बाजार को कोई ऐसा संदेश भी नहीं देना चाहती जिससे लगे कि वह खुद बाजार को डुबाने पर तुली है। शायद यही कारण रहा होगा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद दूरसंचार विभाग के एक निदेशक स्तर के अधिकारी ने वसूली एजेंसियों को पत्र लिखकर कहा कि वे फिलहाल निजी दूरसंचार कंपनियों से बकाया राशि वसूलने के मामले में सख्ती न बरतें…
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने दूरसंचार विभाग के जिस डेस्क ऑफिसर की चिट्ठी पर सरकार को लताड़ लगाई है उनका नाम मंदार देशपांडे है और वे विभाग में निदेशक के पद पर हैं। उन्होंने अपनी चिट्ठी में कहा था कि अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक कंपनियां बकाए की रकम नहीं चुका पाती हैं तो अगले आदेश तक उनके खिलाफ कोई कार्रवाई न की जाए।
पर क्या यह बात किसी के गले उतरेगी कि विभाग में निदेशक स्तर का एक अधिकारी सरकार के आला अफसरों या राजनीतिक नेतृत्व की जानकारी में लाए बिना या बगैर उनकी अनुमति/सहमति के कोई ऐसा पत्र जारी कर देगा जिससे सुप्रीम कोर्ट के आदेश की सीधी अवहेलना होती हो। निश्चित ही ऐसा नहीं हुआ होगा।
पूरी संभावना इस बात की है कि उस अधिकारी को ‘ऊपर’ से ही ऐसा करने को कहा गया हो। और ऐसा करने के पीछे एक उद्देश्य यह भी हो कि अभी यदि इस वसूली से निजी दूरसंचार कंपनियों का भट्ठा बैठा तो वह अकेले उनका ही नुकसान नहीं होगा बल्कि देश की अर्थव्यवस्था की छवि का भी होगा, जो पहले से ही बहुत दयनीय हालत में चल रही है।
लेकिन दूसरी तरफ यह भी तो सच है कि खुद सरकार की माली हालत इन दिनों बहुत पतली चल रही है। उसे खुद पैसों की सख्त जरूरत है। वह खुद पाई पाई जुटाने के लिए इन दिनों हाथ पैर मार रही है। विनिवेश पर जोर देते हुए एलआईसी जैसी सुदृढ़ आर्थिक स्थिति वाली संस्था में भी विनिवेश का ऐलान कर दिया गया है। ऐसे में यदि सरकार के खजाने में एक लाख 33 हजार करोड़ से अधिक की राशि आती है तो यह डूबते को तिनके का नहीं बल्कि अच्छे खासे मजबूत तख्ते का सहारा होगा।
तो फिर मामला कहां उलझा है। बात क्या सिर्फ इतनी सी है जो दिखाई दे रही है या फिर इसके पीछे कई सारे खेल छिपे हुए है…?