रमाशंकर सिंह
स्व० माधवराव सिंधिया कांग्रेस छोड़कर तीन चार महीना अपनी नई काग़ज़ी पार्टी चला भी नहीं पाये थे लेकिन पहली मुलाक़ात में ही तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष स्व० सीताराम केसरी के कहने पर घर वापिसी हो गई थी।
कांग्रेस में काम कर चुके नेता कहीं और नहीं खप पाते हैं और यही हालत संघ भाजपा शिविर के सदस्यों की होती है। कुंठा हताशा नेतृत्व में इस्तीफा देकर मीडिया या बटुआ की क्षणिक चमक जैसे ही ख़त्म होती है उन्हें मूल दल याद आने लगता है। कांग्रेस नेतृत्व की पिछले तीस सालों से यही कमजोरी रही है कि वह किसी भी एक गुट के पक्ष में ज़रूरत से ज़्यादा झुक जाता है और शेष की अपमानजनक स्थिति होने देता है। इसी कारण धीरे धीरे संगठन के कार्यकर्ता छितराने लगते हैं।
दरअसल कांग्रेस नेतृत्व अब गुटीय झगड़ों का समाधान नहीं करता, उनमें से किसी एक के पक्ष में होकर सक्रिय मदद करता है। सिद्धांत नीति के कारण कांग्रेस में अब कार्यकर्ता नहीं बच पा रहे हैं, वे सिर्फ़ गुटीय या नेताओं के पिछलग्गू बनकर निजी निष्ठाओं से जुड़े हैं इसलिय कहीं भी चल देना उनके लिये मुश्किल नहीं।
भाजपा में भी ग़ैर-संघी 35 फीसदी विधायक/सांसद वैचारिक आधार पर निष्ठावान नहीं है और वे कहीं भी जा सकने की मनःस्थिति में आ चुके होते हैं अन्यथा बसों में भरकर निर्जन स्थानों पर पुलिस की पहरेदारी में उन्हें क्यों रखना पड़ता? यह स्थिति किसी भी वैचारिक दल के लिये आत्महत्या करने लायक है पर सभी दल इससे ग्रसित हैं, शायद कम्युनिस्ट दलों को छोड़कर।
मप्र की कांग्रेस और भाजपा दोनों को अपने अपने विधायक टूटने का ख़तरा है इसीलिये वे बसों जहाज़ों में भरकर मवेशियों की तरह ले जाये जा रहे हैं और सशस्त्र निगरानी में रखे जा रहे हैं। कोई भी स्वाभिमानी सांसद विधायक कैसे इसे स्वीकार कर लेता है? लेकिन स्वाभिमान का स्थान अब राजनीति में बचा कहाँ है? इन विधायकों में से एक भी यह कहने का साहस नहीं कर पाया कि मैं पशुवत वाहनों में भरकर नहीं जाऊँगा क्योंकि मेरी आस्था निष्ठा अपनी पार्टी में है और रहेगी। इन विधायकों में कई ऐसे हैं जो वैचारिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि से धुर कांग्रेसी या संघी है पर न पार्टी को उनपर भरोसा है और न ही वे ऐसा नैतिक कथन करने का जोखिम उठाना चाहते हैं।
श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया बहुत दिनों तक भाजपा में नहीं चल पायेंगें। उनकी पूछ परख सिर्फ़ यह कांग्रेस सरकार गिराने तक ही है। मोदी सरकार में वैसे भी मंत्री स्वतंत्र निर्णय लेने के लिये नहीं होते है। उनके पास फ़ाइलें आयेंगी पूर्वलिखित टीप पर हस्ताक्षर करने के लिये। जैसे ही उनका उपयोग ख़त्म हो जायेगा वे पुन: कांग्रेस या वैकल्पिक अन्य दल में जाने को आतुर हो जायेंगे।
फ़र्क़ सिर्फ़ इतना आया है कि धीरे धीरे कांग्रेस अब मरणासन्न होकर विलुप्त होने के कगार पर है और नया राष्ट्रीय विकल्प बन नहीं रहा है। विकल्प अब क्षेत्रीय बन रहे हैं। भारतीय राजनीति में उहापोह की यह स्थिति कुछ समय और चलेगी जब तक कि एक नया विकल्प तैयार न हो जाये तब तक के लिये मोदी जी की बल्ले-बल्ले है।
मप्र में कांग्रेस के दोनों बचे नेता कमलनाथ और दिग्विजय अपनी अंतिम पारी खेल रहे हैं। उम्र अब उनका साथ छोड़ रही है। आदर्शवादी नई चमकदार पीढी के लिये मौक़ा है नया विकल्प बनने का और तृणमूल स्तर पर वर्ग संगठनों को खड़ा कर राज्य स्तर पर महागठबंधन तैयार करने का। राजनीति अब अच्छे युवाओं को आकर्षित नहीं कर रही। जो आ रहे हैं वे एक ही मक़सद से कि कैसे मक्खन मलाई चाटी जाये।
जब तक ठोस वैकल्पिक सिद्धांत, नीति-कार्यक्रम पर साफ़ सुथरी राजनीति की शुरुआत नहीं होगी यह देश नागनाथ-साँपनाथ में ही फंसा रहेगा। जनता अब तक ठगी गई है और अब कई पीढ़ियों को यही ठगाई देखना न नसीब हो इसकी कामना करना कितना निर्वीर्य विकल्प है!
(रमाशंकर सिंह मध्यप्रदेश के ग्वालियर चंबल संभाग में पहले लोकदल और बाद में कांग्रेस के चर्चित नेता रहे हैं। वे अर्जुनसिंह मंत्रिमंडल में मंत्री भी रहे। वे ग्वालियर की आईटीएम यूनीवर्सिटी के संस्थापक चांसलर हैं। सिंधिया प्रसंग पर यह टिप्पणी उनकी फेसबुक वॉल से साभार)