आपदा से निपटने की अपनी रणनीति

राकेश अचल

कोरोना विश्वव्यापी आपदा है लेकिन इससे निबटने के सबके  तौर-तरीके एकदम अलग-अलग हैं। लॉकडाउन इनमें से एक कॉमन तरीका है, लेकिन भारत में लॉकडाउन की भी अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं और इस पर इन्हीं गढ़ी हुई परिभाषाओं के अनुरूप काम हो रहा है। मजाक इसी का दूसरा नाम है।

दक्षिण में एक पूर्व मुख्यमंत्री के बच्चों की शादी में लॉकडाउन के बावजूद कथित रूप से 120 कारों को विचरने और सैकड़ों लोगों को एक स्थान पर जमा होने की इजाजत दे दी जाती है तो वहीं एक प्राचीन मंदिर पर एक पारम्परिक मेले में जनसमुदाय उमड़ पड़ता है और सरकार मूक दर्शक बनी रहती है। दूसरी तरफ देश के अनेक हिस्सों में प्रवासी मजदूर लॉकडाउन में फंसकर न घर के रहते हैं, न घाट के लेकिन सरकार कुछ नहीं करती, कुछ नहीं कहती।

देश के हिंदी भाषी क्षेत्र के सबसे बड़े कोचिंग सेंटर कोटा में फंसे बच्चों को निकालने के लिए यूपी सरकार लॉकडाउन के बावजूद सैकड़ों बसें उपलब्ध करा देती है लेकिन मजदूरों के लिए उसके पास ऐसी कोई सहूलियत नहीं होती। बिहार के मुख्यमंत्री  नितीश कुमार इसका विरोध करते हैं लेकिन उन्हें सुनता कौन है? क्योंकि सबकी अपनी-अपनी ढपली है और अपना-अपना राग। लोकतंत्र में बदहाली की यही मूल जड़ है और इस पर कोई प्रहार नहीं करना चाहता। मैंने सबसे पहले कहा था कि लॉकडाउन लागू  करने में हड़बड़ी की गयी है और इसके दुष्परिणाम पूरे देश को भुगतना पड़ेंगे, चित्र आपके सामने है।

कोरोना से बचने के लिए लागू किये गए लॉकडाउन पर कोई विवाद नहीं है और होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि जो हो गया, सो हो गया लेकिन इस बात पर तो विवाद होना चाहिए कि लॉकडाउन की धज्जियां उड़ाने के लायसेंस राज्य सरकारों को कौन दे रहा है? पूरे देश के लिए लॉकडाउन की धज्जियां उड़ाने की समेकित नीति क्यों नहीं बना पा रही केंद्र सरकार? लॉक डाउन में क्या लॉक्ड रहेगा और क्या नहीं, ये तो पहले दिन ही तय कर लिया जाना चाहिए था। ये भी हम लॉकडाउन के दूसरे चरण के एक हफ्ते बाद तय कर पाएंगे।

दुनिया ने किसी भी बीमारी के खिलाफ जंग कोकून में बंद रहकर नहीं जीती लेकिन कोरोना के खिलाफ ऐसी जंग लड़ी जा रही है। पूरी दुनिया में लड़ी जा रही है। इसके पीछे विज्ञान भी है और सियासत भी, समझदारी तथा दूरदृष्टि भी है और मोह-माया भी, सफलता हासिल करने का संकल्प भी है और असफलताएं छिपाने की कोशिश भी। यदि ये सब न होता तो भारत अपनी तमाम दैनंदिन सेवाओं को स्थगित कर कोरोना-कोरोना का जाप नहीं कर रहा होता।

लॉकडाउन से जो हासिल हुआ उससे ज्यादा हमने गंवा भी दिया किन्तु, उसका कोई हिसाब-किताब नहीं, कोई अगर ऐसा करे तो उसे देशद्रोही घोषित कर दिया जाये। हम सबका मकसद जिंदगी की जंग जीतना है लेकिन यदि इस जंग में लोग बीमारी पर विजय हासिल कर लें और भूख से मरने लगें तो इसे उपलब्धि तो  नहीं माना जा सकता।

आप देखेंगे कि जब लाकडाउन-2 की सीमा समाप्त होगी तब तक कोरोना से बचने और भूख से मरने की खबरें भी आने लगेंगीं। ये नकारात्मकता नहीं है बल्कि एक सच्चाई है। रिजर्व बैंक चाहे जितना पैसा बाजार में डाल दे, हालात सुधरने वाले नहीं हैं क्योंकि रिजर्व बैंक का पैसा रोटी पैदा नहीं कर सकता, रोजगार पैदा नहीं कर सकता। रोटी खेत से और रोजी उद्योग-धंधों से आती है जिनकी कमर टूट चुकी है। इस टूटी कमर को सीधा करने में अकेली सरकार के ही नहीं अपितु जनता के भी स्नायु ढीले पड़ जायेंगे।

भारत इस समय 132 करोड़ की आबादी का देश है, इसे लगातार 42 दिन बंद रखकर आप एक कीर्तिमान तो स्थापित कर सकते हैं किन्तु देश को बर्बाद होने से नहीं रोक सकते। वैज्ञानिक कहते हैं कि कोरोना की दवा सितंबर तक आने की उम्मीद है, सवाल ये है कि भारत समेत दुनिया के किसी भी देश में क्‍या सितंबर तक लॉकडाउन करने की क्षमता है? शायद नहीं, इसलिए हमें लॉकडाउन से यथाशीघ्र मुक्ति हासिल कर मौजूदा जंग को जारी रखने के उपाय सोचना होंगे। मुमकिन है कि ऐसा किया भी जा रहा हो किन्तु इस नए प्रकल्प में जनता की भागीदारी बहुत जरूरी है।

आपदा का ये समय जहां जनता के लिए तकलीफें साथ लेकर आया है वहीं दूसरी तरफ सियासत और बाजार अपना काम करने में लगे हैं। कहीं ध्रुवीकरण हो रहा है तो कहीं मुनाफाखोरी। मध्यप्रदेश में तो जरूरतमंदों के लिए आटा वितरण में घोटाले ही शुरू हो गए। इसे आखिर कौन रोकेगा? हमारा ईमान और इकबाल तो पहले ही बाजार की भेंट चढ़ चुका है। हमारे पास एक ईमानदार प्रधानमंत्री है तो पूरी व्यवस्था ईमानदार हो गयी ऐसा मानना ठीक नहीं है।

पिछले छह साल में बहुत कुछ नहीं बदला है। राजनीति की जो मौजूदा सूरत है उससे बहुत ज्यादा बदलाव की उम्मीद भी नहीं है। इसलिए आइये कोरोना के साथ-साथ उन तमाम मोर्चों पर भी अपनी स्थगित लड़ाई को दोबारा शुरू किया जाये जो मौत के डर से हमने छोड़ दी थीं। आप इस मसले पर असहमत हो सकते हैं। आपको असहमत होना भी चाहिए किन्तु ये मेरा मत है, आप इससे सहमत न भी हों तो कृपा कर गालियां न दें, सुझाएँ और उठाये गए सवालों के सार्थक और व्यावहारिक उत्तर खोजने में देश की मदद करें।

(ये लेखक के अपने विचार हैं। इससे वेबसाइट का सहमत होना आवश्‍यक नहीं है। यह सामग्री अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के तहत विभिन्‍न विचारों को स्‍थान देने के लिए लेखक की फेसबुक पोस्‍ट से साभार ली गई है।)

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