राम की लीला में ‘लीला’ क्या अर्थ है?

साकेत दुबे

राम की लीला में ‘लीला’ क्या अर्थ है? इस लीला का गवाह कौन है? लीला का अर्थ तभी समझा जा सकता है जब राम और रावण दोनों में ‘राम’ को देख, समझ और अनुभव कर सकें। साथ ही यह भी देख सकें कि ‘राम’ जो नट की तरह विविध रूपों में दिखाई दे रहा है, वह अंततः अपने मूल में राम है, वह धरे गए रूप में लीला करते वक्त वैसा अपने आप को दिखाता अवश्य है लेकिन वह वही नहीं हो जाता है। वह राम; ‘राम’ ही रहते हैं। गरुड़ से संवाद में कागभुशुण्डि कहते हैं,
जथा अनेक वेष धरि नृत्य करइ नट कोई।
सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ।।
तुलसी ने यह सब जान और अनुभव कर लिया है। इसीलिए श्रीरामचरितमानस में आरंभ में ही वे कहते हैं, ‘सीय राममय सब जग जानी करउँ प्रनाम जोर जुग पानी। मानस में तुलसी इस अनुभव और अपनी दृष्टि को प्रमाणित भी करते हैं। साथ ही कागभुशुण्डि से गवाही भी दिलवाते हैं,
कहेउँ न कछु करि जुगति बिसेषी।
यह सब मैं निज नयनन्हि देखी।।
मैंने कोई बात युक्ति से बढ़ाकर नहीं कही है। कागभुशुण्डि स्वयं के नेत्रों से देखी लीला को गरुड़ को अपनी बुद्धि के अनुसार सुनाते हैं, “निज मति सरिस नाथ मैं गाई।” आगे वे यह भी कहते हैं, “निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं’’ तुलसी ने भी बार बार कहा है कि मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कथा का वर्णन कर रहा हूँ। लेकिन वे एक दावा अवश्य करते हैं, “सार अंस संमत सबही की” सब ग्रंथों में वर्णित रामकथा के इस सारांश में सबकी सहमति है। आजतक किसी ने ऐसी सबकी सहमति का दावा नहीं किया है, जैसा तुलसी कर रहे हैं।

बहरहाल हम राम की लीला के वास्तविक अर्थ को ग्रहण करें। उसमें केवल राम अकेले नहीं हो सकते, रावण भी होगा। भले ही कोई जय सियाराम कहे, रघुपति राघव राजा राम कहे, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम कहे या जय जय श्रीराम कहे,  या फिर कोई यह भी कहे कि दशरथनंदन राम मेरे राम नहीं हैं, क्या फर्क पड़ता है? अंततः मूल में राम ही हैं।

महाभारत में भी अंत में बरबरीक से पूछा गया कि उसने क्या देखा? तब उसने कहा कि पूरे युद्ध में एक ही दिखाई दे रहा था, वही लड़ रहा था, वही मार और मर रहा था। सब उसमें ही समा रहे थे। अंततः वही शेष रहा। वह कृष्ण ही था। बहुत बड़ा अंतर है बरबरीक और संजय के महाभारत के घटनाक्रम को देखने में।

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