370 की बहाली से कांग्रेस को क्या फायदा?

अजय बोकिल

क्या केन्द्र शासित प्रदेश बन चुके जम्मू एवं कश्मीर राज्य की सियासी तासीर बदल रही है या फिर राज्य के पुराने नेता धारा 370 वाली पुरानी राजनीति में फिर से प्राण फूंककर अपनी राजनीतिक जमीन बचाना चाहते हैं? क्या करीब सवा साल पहले संविधान में संशोधन कर खत्म किए जा चुके जम्मू-कश्मीर राज्य के विशेष दर्जे को फिर से हासिल करना संभव है? ये सवाल देश के सियासी फिजा में इसलिए तैर रहे हैं कि हाल में राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदम्बरम ने मांग की कि जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म करने के लिए ‘गलत तरीके’ से किए गए संविधान संशोधन को रद्द किया जाए।

इस मांग के औचित्य को बिहार विधानसभा चुनाव के संदर्भ में परखा जा रहा है। इसके पहले राज्य की नेशनल कांफ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी सहित कुछ अन्य पार्टियों दवारा ‍गठित ‘पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकार डिक्लेरेशन’ ने कश्मीर में धारा 370 की बहाली की मांग की थी। इस बैठक में शामिल राज्य में पूर्ववर्ती पीडीपी-बीजेपी गठबंधन सरकार की मुख्‍यमंत्री रहीं महबूबा मुफ्‍ती ने एक कदम आगे जाकर बयान दे डाला कि वो तिरंगा तभी हाथ में लेंगी, जब पूर्व जम्मू कश्मीर का झंडा उठाने की स्वतंत्रता मिले। महबूबा के इस बयान पर उनकी पार्टी में ही फूट पड़ गई और तीन नेताओं ने इस्तीफे दे दिए। इस बीच केन्द्र सरकार ने इस केन्द्र शासित प्रदेश में जिला विकास परिषदों के गठन का अहम फैसला लिया। इसके पहले राज्य में 13 हजार पंचायतों के उपचुनाव जल्द होने की भी चर्चा है।

एक पूर्ण और भारतीय संविधान में विशेष दर्जा प्राप्त राज्य जम्मू-कश्मीर के सीमित अधिकारों वाले केन्द्र शासित प्रदेश में तब्दील होने को अब सवा साल हो चुका है। केन्द्र के इस फैसले को लेकर कश्मीरियों में नाराजी अभी कम नहीं हुई है, बावजूद इसके हालात में बदलाव जरूर होने लगा है। यह बदलाव राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तीनों स्तरों पर होता दिख रहा है। इसी के तहत मंगलवार को केन्द्र सरकार द्वारा किसी भी भारतीय को घर व औद्योगिक कार्यों के लिए जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीदने का अधिकार देना दूरगामी फैसला है और दोधारी तलवार की तरह भी है।

यह सही है कि कश्मीर में बाहरी लोगों को जमीन खरीदने का अधिकार न होने से हिमालय की गोद में बसे इस राज्य में उद्द्योग-धंधे नहीं के बराबर है। सेब और केसर की खेती, पर्यटन और छोटे मोटे स्थानीय उद्योग ही अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार हैं। नए संशोधन के बाद उद्योगपति व व्यवसायी कश्मीर में जमीने खरीद सकेंगे। इससे जहां जमीनों के भाव तेजी से बढेंगे, लोगों को रोजगार मिलेगा, वहीं कश्मीर के पर्यावरण का चीरहरण भी तेजी से होने का खतरा भी है।

लेकिन इस राज्य में सबसे अहम बदलाव राजनीतिक और सामाजिक है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार जम्मू-कश्मीर में जातीय व महिला आरक्षण की व्यवस्था लागू की जा रही है। इसके लिए केन्द्र सरकार ने जम्मू एवं कश्मीर पंचायती राज अधिनियम 1989 में संशोधन कर दिया है। साथ ही राज्य में जिला विकास परिषदों (डीडीसी) का गठन किया जा रहा है। राज्य में 20 जिले हैं। नई व्यवस्था के तहत हर जिले को 14 क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्र में विभाजित किया जाएगा। हर क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्र से एक सदस्य डीडीसी के लिए सीधा चुना जाएगा। एमएलए, एमपी भी इस परिषद के सदस्य होंगे। लेकिन उनके अधिकार सीमित होंगे।

डीडीसी के चुनाव इस साल के आखिर में संभावित हैं। बताया जाता है कि यह राज्य में 73 वें संविधान संशोधन को लागू करने की तैयारी है, जिसके तहत तीन स्तरीय पंचायती राज को लागू करना है। इसके अंतर्गत ग्राम सभा को पंचायती राज प्रणाली का आधार बनाया जाएगा। नवगठित जिला विकास परिषदों (डीडीसी) को जिले में (नगरीय निकायों को छोड़कर) व्यापक अधिकार होंगे। इतना तय है कि नई व्यवस्था में आरक्षण व्यवस्था लागू होने तथा अभी तक हाशिए पर पड़ी कश्मीर की कई जातियों को आगे आने का अवसर मिलेगा। इससे नए राजनीतिक समीकरण बनेंगे और सियासी दलों पर कुछ परिवारों का एकाधिकार सीमित होगा।

इसी के समांतर आंतकियों को आत्म समर्पण के लिए भी प्रेरित किया जा रहा है। कश्मीर में एक बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार रहा है। कुछ साल पहले जब मप्र विधानसभा प्रेस दीर्घा सलाहकार समिति के दल के सदस्य के रूप में मैंने जम्मू कश्मीर की यात्रा की थी, तब स्थानीय पुलिस सहित कई लोगों ने ‍खुलकर कहा था कि केन्द्र सरकार तो बहुत पैसा भेजती है, लेकिन आम कश्मीरियों की जेब तक वह नहीं पहुंचता। इस भ्रष्टाचार पर नई व्यवस्था में कितना अंकुश लगा है, कहना मुश्किल है, क्योंकि सरकारी मशीनरी तो वही है, जो 5 अगस्त 2019 के पहले भी थी।

इससे भी बड़ा सवाल यह है कि कश्मीर की परंपरागंत राजनीति का क्या भविष्य है? बीते 70 सालों में कश्मीर की राजनीति धारा 370 के तहत ‍कश्मीर की विशेष‍ संवैधानिक स्थिति बनाए रखने, कश्मीरियत की पहचान कायम रखने तथा भारत का हिस्सा होते हुए भी भारत से अलग दिखने के आग्रह के आसपास केन्द्रित रही है। किसी भी गैर कश्मीरी भारतीय को वहां ‘इंडिया से आया है’, सुनना मन को आहत करता था। नई परिस्थिति में यह जुमला खत्म हुआ है या नहीं, अभी कहना मुश्किल है।

इस बात में संदेह नहीं कि कश्मीर से धारा 370 हटाने के तरीके पर विवाद हो सकता है (उसे चुनौती देने वाली ऐसी 23 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं), लेकिन धारा 370 को फिर से लागू करके राष्ट्रीय अखंडता के पुलिंदे को फिर से खोलना शायद ही कोई पसंद करे। कश्मीरियत का सम्मान हो, उन्हें पूरे अधिकार मिलें, इसमें दो राय नहीं, लेकिन देश में दो व्यवस्थाएं अंनत काल तक चलें, इसे अब देश और झेलने की स्थिति में नहीं है।

ऐसे में कश्मीर के राजनीतिक दलों की सियासी रणनीति क्या होनी चाहिए? क्या उन्हें मुद्दों की खोई जमीन वापस पाने के लिए लड़ना चाहिए या फिर बदले हालात में कश्मीर का खोया हुआ पूर्ण राज्य का दर्जा ‍फिर से पाने के लिए लड़ना चाहिए? फिलहाल ‘गुपकार घोषणा’ के तहत प्रदेश के दो मुख्‍य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी फारुक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्‍ती भी एक झंडे तले खड़े नजर आ रहे हैं। लेकिन ये संकटकालीन संधि ज्यादा है। क्योंकि राज्य में विधानसभा के चुनाव कब होंगे, कहना मुश्किल है। इसके पहले डीडीसी के चुनाव नए जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक तासीर का बैरोमीटर साबित होंगे।

कश्मीरियों में ‍अलगाव की भावना कितनी भी क्यों न हो, जैसे-जैसे अन्य भारतीयों के समान अधिकार उन्हें मिलते जाएंगे, स्थिति में बदलाव निश्चित आएगा। यही बदलाव कश्मीर की नई राजनीतिक इबारत भी लिखेगा। ऐसे में महबूबा मुफ्‍ती का यह बयान कि वो देश का तिरंगा झंडा तभी उठाएंगी, जब कश्मीर का अलग झंडा हाथ में आएगा, निहायत बेतुका और हताशा से भरा लगता है। फिर भी कश्मीरी नेताओं की मजबूरी इसलिए समझी जा सकती है कि उन्हें राजनीति केवल कश्मीर में और कश्मीरियों के बीच करनी है।

लेकिन कांग्रेस का यह ताजा बयान कि जम्मू- कश्मीर में धारा 370 फिर से लागू की जाए, सवाल खड़े करता है कि क्या उसे अब केवल कश्मीर में ही चुनाव जीतना है? कश्मीरियों के प्रति इस राजनीतिक हमदर्दी का कांग्रेस को देश के बाकी‍ हिस्‍सों में क्या सियासी लाभ मिलने वाला है? अगर उसने गैर कश्मीरी मुसलमानों को खुश करने के लिए यह बयान‍ दिया है तो धारा 370 का बाकी राज्यों के मुसलमानों से क्या सम्बन्ध है? उनकी समस्याएं और मुद्दे बिल्कुल अलग हैं। यही वजह है ‍कि‍ विधानसभा चुनावों के दौरान बिहार में प्रदेश कांग्रेस के कार्यवाहक अध्यक्ष समीर कुमार सिंह को स्पष्ट करना पड़ा‍ कि चिदम्बरम की इस मांग का बिहार से कोई सम्बन्ध नहीं है।

बिहार में धारा 370 कोई मुददा नहीं है। उलटे इससे भाजपा को कांग्रेस पर हमला करने का नया मुद्दा जरूर मिल गया। कुछ राजनीतिक प्रेक्षक इसे कांग्रेस का उदार वामपंथी और मुसलमानों की गोलबंदी का मूव मान रहे हैं। अगर कांग्रेस धारा 370 खत्म करने संबंधी संशोधन को ‘रद्द’ करने की मांग करके देश में ‘मुस्लिम अल्पसंख्‍यकों’ को अलग-थलग किए जाने की भाजपा की रणनीति को उजागर करना चाहती है तो उसे देश के बाकी हिस्सों में धारा 370 के बजाए उन मुद्दों को उठाना चाहिए, जो मुसलमानों को सीधे प्रभावित करते हैं। यूं भी कश्मीरी मुसलमान शेष भारत के मुसलमानों के साथ खुद को आईडेंटीफाय नहीं करते। खुद कांग्रेस में भी धारा 370 हटाने को लेकर एक राय नहीं रही है। ऐसे में चिदम्बरम द्वारा इस मसले को ट्वीट दर ट्वीट उठाना कांग्रेस की ताकत बढ़ाएगा या भाजपा को और ताकतवर बनाएगा? समझना मुश्किल है।

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