बिहार: महागठबंधन में कांग्रेस के हाथ क्या लगा?

अजय बोकिल

बिहार विधानसभा चुनाव तथा कई राज्यों में उपचुनावों के नतीजों के बाद बड़ा प्रश्न चिन्ह देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के भविष्य पर लगा है। बिहार में पार्टी ज्यादा सीटों पर लड़कर और मामूली वोट वृद्धि के बाद भी मात्र 19 सीटें ही जीत पाई। जबकि महागठबंधन के दूसरे सभी साथी फायदे में रहे। तुलनात्मक रूप से उनका वोट घटा भी हो तो सीटें बढ़ी हैं। महागठबंधन में जाने का सर्वाधिक फायदा वाम दलों को हुआ, जो अब तक अमूमन अलग ही चुनाव लड़ा करते थे और विधानमंडलों में उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व नाम मात्र का हुआ करता था।

कांग्रेस अगले साल पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव भी माकपा के साथ मिलकर लड़ने वाली है। ये देखना दिलचस्प होगा कि बिहार का पाठ कहीं वहां भी न दोहराया जाए? बिहार के चुनाव नतीजों ने वो अलार्म और तेजी से बजा दिया है, जिसे कांग्रेस सुनकर भी अनसुना करती रही है। या सुनती भी है तो एक कान से। आज आम कांग्रेस कार्यकर्ता के समक्ष यक्ष प्रश्न यही है कि पार्टी आखिर कब जागेगी और एक जुझारू तथा सुसं‍गठित दल की तरह कब चुनाव लड़ेगी?

बिहार में शुरू में यह हवा बन रही थी कि राज्य में राजग की नीतीश कुमार सरकार के खिलाफ जबर्दस्त माहौल है। इनमें बेरोजगारी, प्रवासी मजदूरों की परेशानी, कोरोना से निपटने में नीतीश सरकार की कमजोरी आदि प्रमुख थे। उस पर महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने प्रदेश के बेरोजगारों को 10 लाख सरकारी नौकरियां देने का चुनावी वादा करके भारी राजनीतिक सनसनी फैला दी थी। इसने राजग और खासकर भाजपा को और मजबूती से चुनाव लड़ने को प्रेरित किया। केन्द्रीय मंत्री अमित शाह ने तेजस्वी के नौकरी कार्ड का यह कहकर मजाक उड़ाया कि इसके लिए 58 हजार करोड़ रुपये  कहां से आएंगे?

वैसे इस वादे की व्यावहारिकता पर पहले दिन से ही सवाल थे। बिहार सरकार में वर्तमान में सरकारी कर्मचारियों की कुल संख्या 3 लाख 10 हजार है, जबकि राज्य की आबादी 12 करोड़ है। अगर मप्र से इसकी तुलना करें तो करीब 8 करोड़ की जनसंख्या वाले इस राज्य में 5 लाख सरकारी कर्मचारी हैं। मतलब बिहार में मात्र 0.25 प्रतिशत लोग ही सरकारी कर्मचारी हैं। ऐसे में 10 लाख और कर्मचारी भर्ती भी कर लिए जाएंगे तो उनको देने के लिए पैसा कहां से आएगा? और यह सब इतना आसान होता तो नीतीश कुमार ही क्यों न इतने लोगों को नौकरी देकर अपना वोट बैंक पक्का करते?

फिर भी इस चुनावी वादे को ‘गेम चेंजर’ माना गया। तेजस्वी की सभाओं में युवाओं की भीड़ जुटने लगी। इसका मुख्य फायदा महागठबंधन के मुख्य घटक राजग को हुआ, कांग्रेस को नहीं। पूरे चुनाव में कांग्रेस की रणनीति केवल राजग की पूंछ पकड़ कर चुनाव लड़ने की प्रतीत हो रही थी। कांग्रेस पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में किसानों की कर्ज माफी, गरीबों के बिजली बिल माफ, बेरोजगारी भत्ता देने, नए कृषि कानूनों को खारिज करने जैसी बातें थीं। जबकि बिहार में कृषि उपज मंडियां 14 साल पहले ही खत्म की जा चुकी हैं।

कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र को ‘बिहार बदलाव पत्र’ का नाम दिया था, लेकिन नतीजों ने साबित‍ किया कि बदलाव की असल जरूरत बिहार से ज्यादा कांग्रेस को ही है। राज्य में 2015 के चुनाव में जहां कांग्रेस ने 27 सीटें जीती थीं, वहीं इस बार यह आंकड़ा 19 ही रह गया। चुनाव में खराब परफार्मेंस के बाद अब ये खबरें भी आ रही हैं कि कांग्रेस ने सीट बंटवारे में 70 सीटें इसलिए ले लीं ताकि उन्हें ‘बेचा’ जा सके। वरना पिछले चुनाव में 27 सीटें जीतने वाली पार्टी को इस बार ढाई गुना ज्यादा सीटें देने का कोई व्यावहारिक औचित्य नहीं था।

कांग्रेस का चुनाव अभियान भी कोई खास दमदार नहीं था। पार्टी के स्टार नेता राहुल गांधी ने जिन क्षेत्रों में सभाएं कीं, पार्टी वहां भी ज्यादतर सीटें हार गईं। सभाओं में राहुल मोदी से प्रश्नवाचक की उसी मुद्रा में भाषण देते रहे, जैसे कि पहले देते रहे हैं। लेकिन राजनेता की विश्वसनीयता तब बनती है, जब सवालों के जवाब भी उसके पास हों। राहुल गांधी के भाषणों से कई बार ऐसा लगता है कि कहीं वो भारतीय राजनीति के ‘पर्मनेंट पेपर सेटर’ तो नहीं बन गए हैं?

कांग्रेस के बिखरे या फिर व्यक्ति केन्द्रित चुनाव प्रचार का दुष्परिणाम बिहार के बाहर मप्र सहित अन्य राज्यों के विधानसभा उपचुनावों में भी दिखा। मध्यप्रदेश में तो शिवराज, प्रदेश भाजपाध्यक्ष वी.डी.शर्मा और उनकी टीम ने उपचुनावों में अपनी कमजोरियों को अथक परिश्रम से ताकत में बदल दिया। इसका सबसे बढि़या उदाहरण डबरा से भाजपा प्रत्याशी इमरती देवी का है। इमरती ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़ भाजपा में आईं और मंत्री भी बनीं। चुनाव प्रचार के दौरान कमलनाथ ने मंच से उन्हें ‘आयटम’ कह दिया और इसी व्यंग्यात्मक टिप्पणी को स्त्री अपमान से जोड़कर भाजपा ने चुनाव का रंग ही बदल डाला।

विडंबना ये कि जिस ‘आयटम’ ने भाजपा की फिल्म चुनावी बॉक्‍स ऑफिस पर हिट कर दी, वही इमरती देवी खुद चुनाव में खेत रहीं। ‘आयटम’ के घमासान में मंत्री पद तो दूर उनकी विधायकी भी जाती रही। अलबत्ता इमरती देवी को हराने का जश्न कांग्रेसियों ने इमरती खाकर जरूर मनाया।

कई जानकारों का मानना है कि बिहार में कांग्रेस के पास महागठबंधन के साथ जाने के ‍अलावा कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि कभी बरसों राज्य में सत्ता में रही कांग्रेस अब बिना बैसाखी के दो कदम भी नहीं चल सकती। महागठबंधन का सबसे ज्यादा फायदा लेफ्‍ट को हुआ, जिसकी तीन पार्टियों ने कुल 16 सीटें जीत लीं। अपना राजनीतिक वजूद बचाने के लिए वाम दलों ने जातिवादी समझे जाने वाले राष्ट्रीय जनता दल से समझौता करने में कोताही नहीं की। यकीनन उन्हें फायदा भी हुआ।

इसका एक अर्थ यह है कि लेफ्‍ट ने ऊपरी तौर पर ही सही अब नई परिस्थितियों को स्वीकारते हुए वर्ग संघर्ष के साथ भारतीय और खासकर‍ हिंदू समाज के आंतरिक संघर्षों को मान्य करना शुरू कर दिया है। यह रणनीति बिहार से आगे भी बढ़ती या नहीं, देखने की बात है। लेकिन इससे कांग्रेस को क्या मिला? उलटे नई राजनीतिक जमीनों पर कब्जा करने के बजाए वह अपनी वर्तमान जमीनें भी खोती जा रही है। यह ज्यादा बड़ी चिंता का विषय कांग्रेस के लिए होना चाहिए।

बिहार के इन चुनाव नतीजों को कुछ महीने बाद होने वाले पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के संदर्भ में भी देखना चाहिए। वहां तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बैनर्जी के शासन के दस साल पूरे हो रहे हैं। भाजपा वहां दीदी के राज को लेकर उपजी एंटी इनकम्बेंसी और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को वोटों के रूप में भुनाने की कोशिश पूरी ताकत से कर रही है। बिहार के ‘जंगलराज’ की तरह ममता के कुराज को मुद्दा बनाने की रणनीति पर काम हो रहा है।

बिहार के मुस्लिम बहुल सीमांचल में भी राजग का अच्‍छा परफार्म करना इस बात का संकेत है कि ओवैसी बंगाल में भी भाजपा की परोक्ष मदद करेंगे। इसमें दोनों का फायदा है। उधर बिहार में अनुकूल स्थिति भांपकर कांग्रेस ने महीने भर पहले ही माकपा से समझौता किया है। दोनों दल राज्य में साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे। सीपीएम ने भी इसे मंजूरी दे दी है। धर्मनिरपेक्ष ताकतों के एक मंच पर आने की दृष्टि से यह ठीक है। लेकिन इस राजनीतिक संगत की बड़ी कीमत‍ किस पार्टी को चुकानी पड़ेगी, इसे समझने के लिए विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है।

कोई कितनी आलोचना करे, लेकिन यह हकीकत है कि बीते 6 साल में भाजपा ने चुनाव लड़ने का वो सिस्टम ईजाद कर लिया है, जहां अंतत: मूल मुद्दे ट्रैश में चले जाते हैं और  चुनावी कर्सर ‘मैनेजमेंट’ पर आकर ही टिक जाता है। चुनाव में मुद्दे चलते भी हैं तो वो, जिन्हें भाजपा और उसकी सोशल मीडिया सेना चलाना चाहती है। इसका अर्थ यह नहीं कि असल मुद्दों का अब कोई महत्व नहीं, लेकिन ये मुद्दे वोट में भी तब्दील हों, यह जरूरी नहीं है। यानी वोटर मुंडी किसी एक मुद्दे पर हिलाता है और ईवीएम में बटन किसी दूसरे के लिए दबा आता है। अर्थात मुद्दों का मंत्रोच्चार करने भर से कोई चुनावी यज्ञ पूरा नहीं होता।

बिहार में तो बीजेपी ने एक नया प्रयोग भी सफलता से किया। वो है प्रत्यक्ष और परोक्ष चुनावी गठबंधन का। इस अदृश्य सूत्र के दोनों में से एक सिरे पर चिराग पासवान की लोजपा थी और दूसरे सिरे पर असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम थी। एक की तोप का निशाना जद यू थी तो दूसरे का निशाना राजद और कांग्रेस थी। दोनों ने अपना काम पूरी ताकत से किया।

कहने का आशय ये कि जब तक चुनाव जीतने की बहुआयामी रणनीति, मठवाद, व्यक्तिवाद तथा परिवारवाद से मुक्ति, केवल फायर फाइटिंग तथा फौरी तौर पर चुनावी रणनीति बनाने की मानसिकता से कांग्रेस बाहर नहीं निकलती, तब तक कुछ खास बदलने वाला नहीं है। बल्कि कांग्रेस की कीमत पर दूसरी पार्टियां जरूर अपने घरौंदे पक्के करती रहेंगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here