रमेश शर्मा
पिछले दिनों मध्यप्रदेश के विदिशा जिले के मुरवास कस्बे में एक घटना हुई। विश्व हिन्दू परिषद के पदाधिकारी एक बैठक करके निकल रहे थे कि अचानक भीड़ ने हमला बोल दिया। हमला केवल पदाधिकारियों तक ही सीमित न रहा बल्कि उन घरों को भी निशाना बनाया गया जिन घरों से संबंधित लोग इस बैठक से जुड़े थे। हमले का कोई तात्कालिक कारण नहीं था। विश्व हिन्दू परिषद की यह बैठक अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिये निधि संग्रह की समीक्षा के लिये थी। अयोध्या में मंदिर निर्माण जुड़े लोगों पर यह पहला हमला नहीं है। निधि संग्रह की टोलियों पर यहाँ वहाँ अनेक हमले की खबरें आईं, लगभग हर प्रदेश से।
1993 में मुंबई की हिंसा और 2002 का गोधरा कांड भी इसी से जुड़ा था। उन घटनाओं में हुई हिंसा रोंगटे खड़े करने वाली है। इन सभी घटनाओं में अचानक हमले बोले गये। इनमें से किसी भी घटना का तात्कालिक कारण नहीं था, योजना बनाकर हमले बोले गये। यदि हम मंदिर निर्माण के प्रसंग से अलग बात करें तो पिछले साल दिल्ली में सीएए कानून के विरुद्ध आंदोलन को भी योजनापूर्वक दंगे में बदला गया। वह कानून केवल भारत में आने वाले शरणार्थियों तक सीमित था लेकिन एक भ्रम फैलाया गया और मुस्लिम समाज को उकसा कर धरने पर बिठाया गया, इससे मन न भरा तो हिंसा आरंभ हो गयी।
हालाँकि तब उसे सरकार और मीडिया ने दंगा लिखा था। लेकिन वह दंगा नहीं था। वह सीधा सीधा एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर हमला था। दंगा वह होता है जब दोनों ओर से भीड़ हिंसक हो, आमने सामने हो, लेकिन इन तमाम घटनाओं में भीड़ केवल एकतरफा थी। दूसरे तरफ की भीड़ बाद में जुटी जो हमले के लिये नहीं बल्कि हमले से बचाव के लिये थी। हमले के लिये तो केवल एक पक्ष के लोग थे सशस्त्र, पूरी तैयारी के साथ, तैयारी उनके हाथ में मौजूद हथियारों तक ही सीमित नहीं थी बल्कि उनकी छतों पर लंबी लड़ाई के लिये सामग्री जमा थी।
देश में हर साल ऐसी वारदातें होती हैं। साम्प्रदायिकता के आधार पर हिंसा होती है। 1990 के बाद देश में ऐसी घटनाओं का औसत प्रतिवर्ष लगभग चार सौ के आसपास आता है। जिसमें उकसा कर हिंसा कराई जाती है। हिंसा के लिये समय-समय पर कारण खोज लिये जाते हैं। अयोध्या में मंदिर के निर्माण या सीएए कानून का मुद्दा न मिले तो प्रेम प्रसंग पर भी हिंसा। ऐसी घटना हाल ही देश की राजधानी दिल्ली में घटी है। इसी महीने दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में उन्मादी भीड़ ने एक घर और बस्ती को टारगेट करके हमला बोला था। कारण यह था कि हमलावरों के धर्म की लड़की दूसरे धर्म के लड़के से प्रेम करने लगी थी।
कारण अलग हो सकता है स्थान और परिस्थिति अलग हो सकती है पर हर हमले में मानसिकता केवल एक होती है वह है अपने अतिरिक्त किसी अन्य के अस्तित्व के प्रति असहिष्णुता। ये सारी घटनाएं एक ऐसी असहिष्णु मानसिकता का परिचायक हैं जो केवल अपना अस्तित्व ही पसंद करती है और पूरी दुनिया को अपने रंग रूप में ढालना चाहती है। बाहर से आई सेनाओं और भीतर से संगठित भीड़ द्वारा किये हमलों में यही एक मानसिकता समान रही है। यदि यह मानसिकता न होती तो बाह्य हमले केवल लूट और सत्ता प्राप्ति तक सीमित रहते, धर्मांतरण का अभियान न चलता।
भारत की धरती पर ऐसे हजारों हमले हुये हैं। लाशों से बस्तियाँ पट गयी हैं और नरमुंडों के ढेर लगाकर आक्रांताओं ने अपने ध्वज फहराये हैं। लोगों को बंदी धर्मांतरण के लिये प्रताड़ित किया गया है। न मानने पर क्रूरतापूर्वक प्राण हरण किये गये हैं। गुरु तेग बहादुर और संभाजी महाराज इसके उदाहरण हैं। बंदी बनाकर रिहाई के लिये धर्मांतरण ही शर्त हुआ करती थी। यदि हम मध्य कालीन इतिहास की बातों को छोड़ भी दें और केवल आधुनिक भारत की ही चर्चा करें तो अल्प कालखंड में ही ऐसी हजारों घटनायें घटीं हैं। कारण कोई रहा हो, आरंभ कोई भी हो लेकिन उसका समापन सदैव हिन्दू समाज पर हमले और हिंसा के साथ हुआ है।
कितना दर्दनाक मंजर रहा होगा मालावार के उस मोपला कांड में जब खिलाफत आन्दोलन का समर्थन कर रहे हिन्दुओं पर सशस्त्र भीड़ टूट पड़ी थी। यह घटना आज से ठीक सौ साल पहले वर्ष 1921 की है। तब देश में अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन चल रहा था। गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन का आव्हान किया और इसमें खिलाफत आंदोलन भी जुड़ा। दरअसल तब अंग्रेजों ने तुर्की में खलीफा की सत्ता समाप्त कर दी थी। हालाँकि इसका भारत से कोई ताल्लुक न था, लेकिन सभी वर्गों को साथ लेने की दृष्टि से गाँधी जी ने असहयोग आंदोलन में खिलाफत आंदोलन भी जोड़ लिया।
मुस्लिम समाज को हिन्दू समाज का इस बात के लिये आभारी होना चाहिए था कि मुसलमानों के धार्मिक हित रक्षा के लिये हिन्दू सहयोग कर रहे हैं। लेकिन इसके परिणाम उलटे हुये। मुस्लिम समाज में आई एकजुटता हिन्दू समाज के विरुद्ध संगठित हो गयी। इस हिंसा का वीभत्स रूप ही था मोपला कांड। ताल्लुका अरनद के जमींदार हाजी कुन्नालु अहमद ने अपने सशस्त्र सिपाहियों को बस्ती के हिन्दुओं पर हमले की छूट दे दी थी। यह हिंसा कोई चार माह तक चली थी। बाद में अंग्रेजों ने इसे नियंत्रित किया था। इस हिंसा के व्यवस्थित आकड़े नहीं मिलते, फिर भी यहाँ-वहाँ दस हजार हत्याओं और एक लाख के पलायन करने अथवा धर्मांतरण कर लेने का जिक्र मिलता हैं।
यह हिंसा कितनी भीषण होगी इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस हिंसा पर स्वातंत्र्य वीर दामोदर सावरकर जी ने पूरा उपन्यास लिखा। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान आर्गेनाइज आफ इंडिया’ में मोपलाओं द्वारा किये गये अत्याचारों को अवर्णनीय बताया। तो एनी बेसेन्ट ने लिखा “मालावार ने हमें सिखाया है कि इस्लामिक दर्शन का क्या मतलब है, हम भारत में खिलाफत का एक और नमूना नहीं देखना चाहते।”
इसमें कोई संदेह नहीं कि सामान्य मुस्लिम समाज भी सहिष्णुता के साथ रहना चाहता है। सुकून से जीवन जीना चाहता है, लेकिन उनके बीच कोई है जो उन्हे कबीलाई मानसिकता में बनाये रखना चाहता है। मुस्लिम समाज की कमजोरी यह है कि वह अपने समाज के जन प्रतिनिधि और धर्मगुरु पर भरोसा करके चलता है और भीड़ में बदल जाता है। जैसे मोपला के भीषण नर संहार के पीछे केवल एक दिमाग था, गोधरा कांड सूत्रधार भी केवल तीन लोग थे और पिछले साल दिल्ली के दंगो का मास्टर माइंड भी एक व्यक्ति ही था।
ठीक इसी तरह इस माह दिल्ली के निजामुद्दीन की घटना के पीछे भी एक व्यक्ति और विदिशा के मुरवास की घटना के पीछे भी एक व्यक्ति ही सामने आया। यह अलग बात है कि हर घटना का मास्टर माइंड अपने आसपास भीड़ जुटा लेता है। ऐसी ही जुटी हुई भीड़ मालावार में थी और ऐसी ही भीड़ मुरवास में। भीड़ जुटाने और भीड़ को आक्रामक बनाने की इस मानसिकता को चिन्हित करने की आवश्यकता है। यह काम बाहर से कम और मुस्लिम समाज के भीतर से ही होना चाहिए।
भारत की भूमि सहिष्णु है। भारतीय दर्शन में पूरे विश्व को एक कुटुम्ब मानने का दर्शन है लेकिन केवल दर्शन का गुणगान करने से दर्शन श्रेष्ठ नहीं होगा। उसकी सुरक्षा भी आवश्यक है। उसके उपाय क्या हों इसपर भी चिंतन आवश्यक है। हिन्दुओं ने अपनी सहिष्णुता का परिचय सदैव दिया है अब बारी अन्य लोगों की है। वे अपने बीच उकसाने वाले तत्वों से दूर हों और अपनी उपासना पूजा पद्धति में आस्था रखते हुये घर के बाहर एक राष्ट्रभाव की माला में गुंथने का प्रयत्न करें।(मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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