कश्मीर के बाद मंदिर, मंदिर के बाद क्या?

राकेश दीवान

‘कोविड-19’ में डूबते-उतराते नामुराद दौर के बीचम-बीच, आखिरकार पांच अगस्त को, कथित पांच सौ साल बाद ‘रामलला विराजमान’ को अपने लिए एक अदद मंदिर नसीब होने का रास्ता प्रशस्त हो ही गया। पिछले साल ठीक इसी तारीख को जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाई गई थी और एक जीते-जागते राज्य को दो केन्द्र शासित प्रदेशों में तब्दील कर दिया गया था। सत्तारूढ ‘भारतीय जनता पार्टी’ ने ये दोनों बातें अपने चुनावी घोषणा-पत्र के मुताबिक ही की हैं और यदि इसी से तर्ज मिलाई जाए तो तीसरा ‘एजेंडा आइटम’ ‘समान नागरिक संहिता’ होने वाला है।

जिन भले लोगों को लगता है कि ‘रामजी के घर’ की व्यवस्था हो जाने के बाद अब ‘बैठ घोड़ा, पानी पीने’ वाला है, तो वे निश्चिंत रहें, यह राजनीति है और राजनीति का घोड़ा पानी पीने के लिए भी कभी नहीं रुकता। यानि इन या इसी तरह के मुद्दों के इर्द-गिर्द राजनीति जारी रहेगी। सत्ता पर विराजे रामभक्तों को फिलहाल छोड भी दें, तो सवाल है कि विरोध की राजनीति कैसी होगी? क्या सत्ता‍धारी भाजपा की धारा-370, मंदिर और ‘समान नागरिक संहिता’ के जबाव में उनके पास कोई भिन्न, वैकल्पिक मुद्दे होंगे? या फिर वे भी ‘वहीं’ बनते मंदिर की टक्कर में घर-घर हनुमान-चालीसा का पाठ भर करेंगे?

हालांकि लोकतंत्र में छह–साढे छह दशक गुजारने के बावजूद हमारी राजनीति को नागरिकों से पूछने की कभी, कोई जरूरत महसूस नहीं होती, लेकिन फिर भी चाहें तो यह वैकल्पिक राजनीति खुद अयोध्या से ही सीखी जा सकती है। भगवान राम की जन्मभूमि और पिछले करीब तीन दशकों से जमीन के एक टुकडे पर देशव्यापी लडाई के लिए ख्यात जुडवां शहर अयोध्या-फैजाबाद असल में वैसे नहीं हैं जैसे राजनेताओं के वक्तव्यों, भाषणों और अधिकांश मीडिया रिपोर्टों में दिखाई देते हैं।

वहां की गली-गली में बिखरी असंख्य गाथाओं में से एक है, चारों तरफ मंदिरों से घिरी जमीन पर एक मस्जिद में होने वाला सालाना तीन-दिवसीय उर्स। पिछले साल उन मंदिरों के बाकायदा तिलकधारी पंडों-पुजारियों ने चंदा करके कमजोर पड़ती मस्जिद को सुधरवाने के मंसूबे बांधे थे। ये सभी मंदिर उर्स में आने वाले करीब एक लाख जायरीनों के लिए न सिर्फ अपने-अपने दरवाजे खोल देते हैं, बल्कि वहां रहने, खाने-पीने का इंतजाम भी करते हैं। ठीक यही दोस्ती तब भी दिखाई पडती है जब भांति-भांति के धार्मिक जमावड़ों से डरकर शहर छोडकर जाते मुसलमान अपना जेवर, रुपया-पैसा और कीमती सामान अपने हिन्दू पड़ोसियों की हिफाजत में बेखौफ छोड़ जाते हैं।

एक-दूसरे से कतई भिन्न माने जाने वाले हिन्दू-मुसलमान अयोध्या-फैजाबाद में कैसे रहते हैं, इसे देखना-समझना हो तो शहर के उन करीब डेढ़ हजार मंदिरों को भी देखा जा सकता है जो कमोबेश सभी राम जन्म-भूमि होने का दावा करते हैं। इनमें से एक मझौले आकार के मंदिर में राम जन्म-भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर हुई पत्रकार-वार्ता में शामिल होने का मौका मिला तो पता चला कि महन्त जी के अधिकांश शिष्य मुसलमान थे और उनके आदेशों पर दौड़-दौड़कर काम निपटा रहे थे। लौटते हुए इन्हीं महन्त जी के एक मुसलमान शिष्य ने सभी को भोजन भी कराया।

आप चाहें और छल-प्रपंच, वितंडा से बच सकें तो आज भी, कम-से-कम अयोध्या में ऐसी ‘गंगा-जमनी’ धाराएं प्रवाहित होती दिखाई दे सकती हैं। मैंने ही अपनी पुरानी, फटती ‘रामचरित मानस’ को बदलने के लिए जिन सज्जन की दुकान से किताब खरीदी उनका नाम मुमताज अली था और मेरी जरूरत के मुताबिक उन्होंने बड़े जतन से उपयुक्त संस्करण निकालकर दिया, मानो वे किताब भर नहीं बेच रहे, उसके तिलिस्म से भी वाकिफ हैं। पास के गांव के समर अनार्य जो जेएनयू, कई जनांदोलन आदि से गुजरते हुए हाल-मुकाम हांगकांग में हैं, ने एक लंबा लेख अयोध्या में बनने वाली लकड़ी की खड़ाऊं पर लिखा है। इस लेख के मुताबिक खड़ाऊं बनाने का पूरा कारोबार मुसलमानों के हाथ में है और वे इसे साधु-महात्माओं के लिए पूरी श्रद्धा-भक्ति से बनाते हैं।

राम जन्म-भूमि आंदोलन से तीखी असहमति रखने वाले, देश के अनूठे सहकारी अखबार ‘जनमोर्चा’ के संपादक शीतलाप्रसाद सिंह शहर के ऐन बीच में बैठकर अपना लोकप्रिय दैनिक निकालते हैं, लेकिन उनका भी सवाल है कि क्या हमारी मौजूदा राजनीतिक जमातें अयोध्या और ऐसे ही कई दूसरे शहरों की स्थानीय संस्कृ्तियों से कुछ सीखना चाहती हैं? पिछले साल अमेरिकी पत्रकार आतिश तासीर ने ‘टाइम’ पत्रिका की अपनी ‘कवर स्टोरी’ ‘इंडियास डिवाडर इन चीफ’ में लिखा था कि ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत में व्यापक भदेस संस्कृति वाली पार्टी सत्ता पर बैठी है और वह चाहे तो अपने विशाल जनमत के बल पर कई ऐसे बुनियादी काम कर सकती है जो अब तक किसी ने नहीं किए।

यह ‘भदेस संस्कृति’ क्या है? क्या इसे ‘अभिजात्य‘ का विरुद्धार्थी माना जा सकता है? और क्या भाजपा समेत देश की तमाम राजनीतिक पार्टियां, मीडिया और शहरी मध्यमवर्ग इस भदेसपन को फूहड़ता मानकर पसंद-नापसंद करते रहते हैं? भाजपा के इसी मैदानी भदेसपन के सामने कांग्रेस समेत अधिकांश राजनीतिक पार्टियां निस्तेज दिखाई देती हैं। इन पार्टियों में, खासकर पिछले कुछ दशकों से एक तरह का अभिजात्य घर करता गया है। नतीजे में देश के आम समाज से उनका कम ही साबका पडता है। उन्हें पता ही नहीं चलता कि साधारण, सड़क छाप नागरिक किन और कैसी तकलीफों और तरकीबों के साथ जीता है।

पचास और साठ के दशक के बाद के किसी भी बुनियादी, व्यापक प्रभाव वाले और स्थानीय से राष्ट्रीय बनते मुद्दों को देखें तो साफ देखा जा सकता है कि इन्हें पार्टियों के आभामंडल से इतर ताकतों ने उठाया और उनके तार्किक अंत तक पहुंचाया है। आम लोगों को मथने वाले ये मसले गैर-दलीय राजनीतिक ताकतों, न्यायिक व्यवस्था और मीडिया के उत्साही कार्यकर्ताओं की पहल पर उठे और नतीजे तक पहुंचे हैं। जल, जंगल, जमीन, विस्थापन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आदिवासी, महिला, मानवाधिकार, भुखमरी, गरीबी जैसे अनेक सवाल जमी-जमाई पारंपरिक राजनीतिक जमातों की नजरों से आमतौर पर दूर ही रहे हैं। उलटे सिंगूर, नंदीग्राम, कुडाकुलम, नर्मदा जैसे कई उदाहरण हैं, जहां आम लोगों को अनदेखा करके पार्टियों ने अपनी अभिजात्य समझ की सैद्धांतिकी वापरी है, भले ही ऐसा करते हुए उन्हें अपनी राजनीतिक सत्ता तक गंवानी पड़ी हो।

हालांकि भाजपा भी आम लोगों के मुद्दों के प्रति कोई खास संवेदना रखती हो, ऐसा नहीं है, लेकिन वह अपनी तरफ से कुछ ऐसे मसले फेंकती है जिनकी मौजूदगी कहीं-न-कहीं आम लोगों के मन में भी होती है। भाजपा की राजनीतिक सत्ता प्राप्ति की यात्रा को ही देखें तो पता चलता है कि उसने आम लोगों और समाज में सुगबुगा रहे सवालों पर ही उंगली रखी है और नतीजे में शून्य से शिखर तक पहुंची है। इसके विपरीत विरोधी पक्ष की राजनीतिक जमातों ने आमतौर पर, अपने अभिजात्य के चलते ऐसे मुद्दों को देखकर मुंह बिचकाया है।

मुंह बिचकाने की इस कलाबाजी में विरोधी जमातों ने समाज के वे तमाम मुद्दे भी नजरअंदाज कर दिए हैं जो दरअसल परंपरा, संस्कृति और आम जीवन के हिस्से तक थे। पिछले तीन दशकों से अयोध्या हमारी राजनीति और मीडिया में लगातार छाई रही है, लेकिन किसी ने वहां के स्थानीय समाज की जीवन-शैली, मान्यताओं और रिश्तों-नातों पर अपेक्षित गौर तक नहीं किया। क्या यह बात हमारी राजनीतिक पार्टियों को नहीं देखना चाहिए? ताकि वे अपनी समझ और उसके आधार पर किए जाने वाले कामकाज में जरूरी रद्दो-बदल कर सकें और संभव हो तो एक-दलीय शासन को बरका सकें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here