जो कांग्रेस में हैं, उनके ‘बेंच प्रमोशन’ का क्या?

अजय बोकिल

कांग्रेस सांसद और पार्टी के फिर से संभावित अध्यक्ष राहुल गांधी ने युवक कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में अपने पुराने साथी ज्योतिरादित्य सिंधिया के बारे में जो कुछ कहा, वो तीखा तंज है, नसीहत है, आत्मावलोकन है या फिर चि़डि़या द्वारा खेत चुग जाने के बाद हुआ राजनीतिक पछतावा है, समझना कठिन है। राहुल ने नई दिल्ली में पार्टी की युवा शाखा के पदाधिकारियों से दो बातें कहीं। पहला कटाक्ष उन ज्योतिरादित्य सिंधिया पर था, जिन्होंने मध्यप्रदेश में आज से ठीक एक साल पहले कांग्रेस में अपना भविष्य ‘अंधकारमय’ देखकर उस ‘दुश्मन’ बीजेपी का दामन थाम लिया था, जिसे वो पिछले विधानसभा चुनाव में जीभर कोसते रहे थे।

राहुल ने इस जले पर नमक छिड़कने के अंदाज में ज्योतिरादित्य को भाजपा का ‘बैकबेंचर’ कहा। उन्होंने यह भी कहा कि मप्र का सीएम बनने के लिए सिंधिया को कांग्रेस में लौटना होगा (बशर्ते कांग्रेस फिर सत्ता में लौटे) इस ताने का ज्योतिरादित्य ने अपेक्षित जवाब ही दिया कि राहुल मेरे कांग्रेस में रहते अगर मेरी इतनी चिंता कर लेते तो बेहतर होता। अर्थात उन्हें यह कटाक्ष करने की नौबत ही नहीं आती। अब ज्योतिरादित्य का भाजपा में क्या राजनीतिक भविष्य है, है भी या नहीं, है तो कितना है, इन प्रश्नों को जरा अलग रखें तो असल सवाल यह बनता है कि जो लोग आज अपने ‘दिलों में कांग्रेस’ को सहेजे पार्टी में बचे हुए हैं, उनका पार्टी में भविष्य क्या है?

दरअसल राहुल गांधी के बयानों, टिप्पणियों और कटाक्षों में कितनी गहरी मार, कितनी मासूमियत और कितना मजाकिया तत्व होता है, यह आज तक तय नहीं हो पाया है। उनके कई बयान विरोधियों को तिलमिलाने वाले होते हैं तो कई बयान बूमरेंग ही साबित होते हैं। ज्योतिरादित्य मामले में साल भर बाद उनका इस तरह मुंह खोलना कुछ इसी शैली का है। इस यक्ष प्रश्न का जवाब राहुल ने आज तक नहीं दिया कि बतौर कांग्रेस अध्यक्ष (दिसंबर 2017 से मई 2019 तक) उन्होंने ज्योतिरादित्य को कांग्रेस छोड़ने से क्यों नहीं रोका? इसके लिए हरसंभव कोशिशें क्यों नहीं की? उनकी नाराजी को क्यों दूर नहीं किया?

ज्योतिरादित्य के पराई पार्टी में जाने के बाद उन्होंने एक हास्यास्पद ट्वीट किया था-‘वो (ज्योतिरादित्य) चाहते तो मेरे घर आ सकते थे? मेरे घर के दरवाजे उनके लिए खुले थे।‘ राहुल का यह कमेंट वैसा ही था कि आग खुद बुझने के लिए दमकल का दरवाजा खटखटाए। अगर ज्योतिरादित्य नाराजी के चलते राहुल के दर पर नहीं गए तो राहुल को ज्योतिरादित्य के घर जाने से किसने रोका था? बरसों की मन्नत के बाद सत्ता में आई पार्टी की सरकार को इस तरह तिरोहित होते हुए असहाय भाव से वही देख सकता है, जो इहलोक में रहते हुए भी परलोक की भजता हो।

ज्योतिरादित्य की महत्वाकांक्षा तब पार्टी के सीनियर नेताओं को जरूरत से ज्यादा भले लगी हों, लेकिन यह भी सच है कि पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपना मुख्य चेहरा महाराज को ही बनाया था। इसी के जवाब में भाजपा और शिवराजसिंह चौहान ने ‘माफ करो महाराज’ अभियान चलाया था। ले‍किन माफी का ऐसा एंटी क्लायमेक्स होगा, यह कोई प्रतिभाशाली नाटककार ही सोच सकता है। यानी जो शिवराज पूरे चुनावी प्रचार में महाराज से ‘व्यंग्यात्मक माफी’ मांगते नजर आए थे, सिंधिया की बगावत ने उन्हें वास्तविक माफीदार बना दिया। क्या तब अध्यक्ष राहुल का हस्तक्षेप महाराज को इस ‘माफी’ से बचा नहीं सकता था?

अगर राहुल उसी वक्त ज्योतिरादित्य को ‘फ्रंट बेंच’ पर ले आते तो आज उन्हें भाजपा में ‘बैक बेंच’ पर जाने की नौबत ही नहीं आती। अगर किसी भी पार्टी का नेतृत्व आंतरिक विवादों का मान्य उपाय नहीं ढूंढ सके, अपने फैसले को मनवा न सके तथा नेताओं और कार्यकर्ताओं की आकांक्षाओं के बीच समन्वय सेतु का काम न कर सके, उसे संगठन का सूत्रधार बनने का कितना हक है?

ज्योतिरादित्य भाजपा में रहकर मध्‍यप्रदेश के मुख्‍यमंत्री बन पाएंगे या नहीं, इसकी भविष्यवाणी शायद ही कोई कर सकता है। लेकिन दीवार पर लिखी इबारत यही है कि भाजपा अपनी ताकत के विस्तार के लिए दूसरी पार्टियों से नेता ले तो लेती है, लेकिन उन पर पूरा भरोसा शायद ही करती है। भाजपा के लिए सौ फीसदी खरा नेता वही है, जो भाजपा और संघ की विचारधारा में दीक्षित हो या फिर उसने भाजपा के लिए जिंदगी खपा दी हो। इस लिहाज से ज्योतिरादित्य का रिपोर्ट कार्ड अभी प्राथमिक स्तर का है। वो नए भगवा माहौल को पढ़ने और उसमें जज्ब होने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन आगे का रास्ता बहुत साफ नहीं है। अलबत्ता उन्हें दिया एक वादा भाजपा ने पूरा कर दिया और सिंधिया राज्यसभा में पहुंच गए। मंत्री बनेंगे या नहीं, अभी साफ नहीं है।

राहुल के कमेंट पर मप्र के गृह मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा का यह पलटवार सटीक है कि जो गलती ज्योतिरादित्य के बारे में हुई, उसे राहुल राजस्थान में सचिन पायलट को सीएम बनाकर सुधार सकते हैं। क्योंकि ज्योतिरादित्य की बगावत की आंशिक रिहर्सल राजस्थान में हो चुकी है, और भी हो सकती है। युवक कांग्रेस की बैठक में राहुल गांधी ने एक और स्वीकारोक्ति दी कि पार्टी में अनुभवहीन चेहरों पर दांव लगाना सही नहीं था। सही है, क्योंकि इससे संगठन का ढांचा ही गड़बड़ा गया। किसी भी राजनीतिक दल या फिर सामाजिक संगठन का तानाबाना युवाओं और अनुभवी लोगों का एक समुचित मिश्रण होता है। युवाओं की ऊर्जा और उत्साह तथा पुरानों के तजुर्बे की पूंजी मिलकर संगठन को दिशा और त्वरण देते हैं। एक पहिए की साइकल तो केवल सर्कस में ही चल सकती है।

विरोधाभास यह भी है कि जब वो पार्टी में युवाओं को आगे लाने की कोशिश में थे तो ज्योतिरादित्य को दरकिनार क्यों किया? राहुल ने यह भी कहा कि हमें उन लोगों को महत्व देना चाहिए जिनके ‘दिल में कांग्रेस’ हो। ज्योतिरादित्य ने तो अपनी पहली राजनीतिक सांस ही कांग्रेस में ली थी। उधर पार्टी में बगावत का झंडा खड़ा करने वाले जी-23 कांग्रेस नेताओं में से अधिकांश की जिंदगी तो कांग्रेस में ही खप गई है। लेकिन उनके दिलों में भी ‘सियासी इन्फेक्शन’ होने लगा है तो इसके इलाज की जिम्मेदारी किसकी है?

राहुल ने यह भी कहा कि ज्योतिरादित्य कांग्रेस में ही रहते तो सीएम जरूर बनते। लेकिन कब? आज अगर राहुल पार्टी में इतने शक्तिमान होने के बाद भी दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बन पा रहे हैं तो इस महासागर में सिंधिया की नैया किनारे कब लगती? इतना सब कुछ होने के बाद भी युवक कांग्रेस राहुल गांधी को फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की मांग कर रही है। यानी कुल मिलाकर बदलाव की सुई वहीं घूमनी है। जाहिर है कि स्वयं राहुल गांधी और उनके सलाहकारों के सामने संगठन को बूस्ट करने का कोई स्पष्ट रोडमैप या रणनीति नहीं है। पार्टी में खुली बगावत का दौर जारी है, लेकिन उसे थामने के लिए सर्वमान्य अध्यक्ष के रूप में एक हाथ सामने नहीं आ पा रहा।

कहते हैं कि सरकारी तंत्र में फैसले देरी से होते हैं, लेकिन कांग्रेस तो इस मामले में सरकारी तंत्र को भी पीछे छो़ड़ चुकी है। आत्मावलोकन अच्छी बात है, लेकिन तभी कि जब उससे कोई सबक लिया जाए। कांग्रेस को जिंदा रहना है तो उसे ज्योतिरादित्य के बजाए अपने लोगों के ‍’बेंच प्रमोशन’ के बारे में ज्यादा सोचना चाहिए। न सिर्फ सोचना बल्कि कुछ ठोस करना भी चाहिए। राहुल गांधी अभी अतीत पर इतना चिंतन भी कर पा रहे हैं, यदि केरल में इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूडीएफ गठबंधन की सरकार न बनी तो राहुल के कटाक्षों पर लोग जवाब देना भी शायद जरूरी न समझें।(मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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