वेबसीरीज से लगता अश्‍लीलता का चस्‍का

हेमंत पाल

महामारी के इस काल में समाज में जो क्रांतिकारी बदलाव आए हैं, उनमें निश्चित रूप से एक मनोरंजन की दुनिया भी है। सिनेमाघरों के बंद होने और टीवी पर नए कार्यक्रमों के थम जाने का असर ये हुआ कि लोगों ने अपने मोबाइल फोन में ही मनोरंजन का मसाला ढूंढ लिया। क्योंकि, लॉक डाउन की वजह से घरों में बंद दर्शकों के पास ओटीटी प्लेटफॉर्म के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। उन्हें वेबसीरीज देखने का ऐसा चस्का लगा कि अधिकांश लोग इसके मुरीद हो गए।

संवाद का सशक्त माध्यम बनकर लोगों की जिंदगी में आया मोबाइल फोन मनोरंजन का विकल्प बन गया। इस माध्यम की सबसे बड़ी खासियत ये रही कि इसमें सबको अपनी पसंद का मसाला अपने समय पर और अपनी भाषा में मिलने लगा। अभी तक इक्का-दुक्का लोगों को ही इसकी लत लगी थी, पर लम्बे लॉक डाउन ने सभी को इस घेरे में ले लिया।

सेक्रेड गेम्स, मिर्जापुर, काफिर और ‘अपहरण’ से शुरू हुआ दर्शकों का वेबसीरीज शौक पाताल लोक, ब्रीद-सीरीज़, बुलबुल और ‘आर्या’ तक पहुँच गया। लेकिन, इस प्लेटफॉर्म पर वेबसीरीज और फिल्मों का सबसे नकारात्मक पक्ष है अश्लीलता, हिंसा और असंसदीय भाषा। खुलेआम गालियाँ, बात-बात पर गोलियाँ चलना और हद दर्जे की अश्लीलता वाले दृश्य।

एक सीमा तक तो ये सब इसलिए सहन किया जा सकता है कि ये समाज में बदलाव का नतीजा है। लेकिन, अभी संस्कारों में इतना प्रदूषण भी नहीं फैला कि बात-बात पर गालियाँ बकी जाएं या खुलेआम अश्लीलता दिखाई दे। निश्चित रूप से इस वर्ग के दर्शक भी समाज में हैं और ऐसा कंटेंट उनकी डिमांड पर ही बनता होगा। पर, इसे सबकी थाली में नहीं परोसा जा सकता।

सिनेमा के दर्शकों ने वो समय भी देखा है, जब हीरो और हीरोइन की नजदीकी की एक मर्यादित सीमा तय थी। टीवी में तो ऐसा कुछ पूरी तरह वर्जित ही था। यहाँ तक कि जब गर्भ निरोधकों के विज्ञापन टीवी पर आना शुरू हुए, तब भी दर्शकों ने आपत्ति उठाई थी। इसके बाद ऐसे विज्ञापन रात 10 बजे के बाद दिखाए जाने लगे। लेकिन, अब सिनेमा ने थोड़ी रियायत ले ली और मर्यादा की सीमा रेखा भी थोड़ी आगे खिसक गई।

सेंसर बोर्ड को कहानी की डिमांड बताकर हीरो-हीरोइन को ज्यादा नजदीक लाया जाने आने लगा। पर, टीवी पर अभी ये प्रतिबंध नहीं टूटा, अलबत्ता वर्जित विज्ञापनों पर से रोक जरूर हट गई। लेकिन, टीवी अपनी छद्म प्रगतिशीलता के कारण आज भी वहीं खड़ा है, जहां 10-15 साल पहले था। क्योंकि कंटेंट में सुधार के बजाए टीवी सीरियल बनाने वालों ने कहानी में झटके देकर दर्शकों को भरमाना शुरू कर दिया है।

मनोरंजन के नए माध्यम ओटीटी प्लेटफॉर्म ने सिनेमा और टीवी सबको पीछे छोड़ते हुए सारी सीमाएं लांघ दी हैं। इस बात से इंकार नहीं कि ऐसे सीन समाज में सामान्य नहीं हैं, पर जो दिखाया जा रहा है, वो मनोरंजन के नजरिए से कुछ ज्यादा तो है। कुछ लोग इसे मनोरंजन में क्रांति भी कहते हैं, पर वास्तव में ये कोई क्रांति नहीं, बेवजह की अश्लीलता जरूर है।

सेक्रेड गेम्स, मिर्जापुर, जमतारा और ‘पाताल लोक’ में जो हिंसा और अश्लील सीन दिखाए गए, उनमें बहुत से कहानी का हिस्सा नहीं लगते। बेडरूम सीन दिखाने के कई संकेत हैं, जरूरी नहीं कि उसके लिए कैमरे को अंदर घुसाया जाए। ये न तो मनोरंजन है और न कहानी की डिमांड। वेबसीरीज का सबसे सकारात्मक पक्ष ये है, कि इसे दर्शक अकेला या अपने साथी के साथ देखता है। टीवी की तरह इन्हें न तो परिवार के साथ देखा जाता है न सिनेमाघरों में इसका सार्वजनिक प्रदर्शन होता है। इसलिए निहायत व्यक्तिगत स्तर पर इसे देखने पर कोई आपत्ति तो नहीं, पर नासमझ नई पीढ़ी, इससे विचलित हो सकती है।

यह दर्शकों को भरमाकर, अश्लीलता दिखाकर अपनी प्रसिद्धि बढ़ाने की यह कोशिश अनैतिक है। क्योंकि, अनसेंसर्ड कंटेंट का मतलब ये नहीं कि बोल्ड कहानियों की आड़ में सॉफ्ट पोर्न दिखाया जाने लगे। कुछ ओटीटी प्लेटफॉर्म पर तो खुलेआम सी-ग्रेड की न्यूडिटी दिखाई जा रही है। एकता कपूर का प्लेटफॉर्म अल्ट-बालाजी भी मनोरंजन की आड़ में अश्लीलता बांटने में पीछे नहीं है। सच कहा जाए तो ये ‘मस्तराम’ सीरीज का वेब संस्करण ही है।

टीवी पर कभी सास-बहू के सीरियल के जरिए अपनी पहचान बनाने वाली एकता कपूर अब गंदी बातें, ट्रिपल एक्स, रागिनी एमएसएस और ‘बेकाबू’ जैसी सीरीज तक सीमित हो गई। विक्रम भट्ट के वेब कंटेंट को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है, जिनमें बेवजह ऐसे सीन भरे जाते हैं। माया, फ से फैंटसी जैसी कई इरोटिका सीरीज से साफ समझ आता है कि इसका मकसद अश्लीलता परोसकर दर्शक बटोरना ही है।

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