आज की बात मैं तीन पत्रकार साथियों की बात से शुरू करना चाहूंगा-
‘’जो बात विचलित किए हुए है वह यह कि ऐसा कितना तनाव कि लोगों का जीवन सुधारने वाला राष्ट्रसंत ही हताश होकर अपना जीवन समाप्त कर ले। फिर तो आप-हम सब गृहस्थ अच्छे जो हर दिन तनावों में जीते हैं, थक हार कर चिंता के बिछौने पर सोते हैं, सुबह उठकर फिर किसी चुनौती, समस्या, तनाव का सामना करने के लिए कमर कस लेते हैं, लेकिन आत्महत्या के लिए सोचने का वक्त नहीं निकाल पाते।‘’– कीर्ति राणा
‘’बहुत क्षमायाचना के साथ कहूँगा कि सच्चा संत कभी इस ढंग से देह त्याग नहीं कर सकता। कैसा क्रोध जो उसके नियंत्रण में न हो! उसका कलह से क्या नाता! वह तो जीवन, प्रेम और शांति की सीख समाज को देता है। न वह किसी को मार सकता, न ख़ुद को! एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व की आभा ही अलग होती है।‘’– विजयमनोहर तिवारी
‘’भय्यूजी जो परिवार, रिश्तों का पाठ दुनिया को पढ़ाते थे, असल में अपने शब्दों के अर्थ बहुत पहले खो चुके थे। उनके चरित्र में आए भटकाव से उनके अपने कष्ट में थे। जब कभी हम जीवन, मनुष्य और मनुष्यता को अनदेखा करके सपनों के पीछे दौड़ते हैं, तो हमारे जीवन के समंदर में गिरने का नहीं डूबने का खतरा होता है। ऐसी डूब जहां अच्छे से अच्छे गोताखोर हार जाते हैं।‘’– दयाशंकर मिश्र
कहने की आवश्यकता नहीं कि आज मैं किस संदर्भ में अपनी बात कहने जा रहा हूं। जी हां, बात हो रही है इंदौर के उदयसिंह देशमुख उर्फ भय्यू महाराज की, जिन्होंने 12 जून को अपनी कनपटी पर गोली मारकर जान दे दी। 13 जून को उनका अंतिम संस्कार होने के बाद तक उनके बारे में अनेक लोगों की प्रतिक्रियाएं आती रहीं।
ऐसी अधिकतर प्रतिक्रियाएं भय्यू महाराज के ‘संत’ स्वरूप से प्रभावित होकर आस्था के प्राकट्य में लिपटी हुई हैं। लेकिन समानांतर रूप से कुछ लोगों ने, स्वयंभू तौर पर ‘राष्ट्रसंत’ की उपाधि से विभूषित किए जा चुके इस व्यक्तित्व को लेकर कुछ अलग भी कहा है। इसमें उनकी निजी जिंदगी से लेकर उनके ‘अंतिम कर्म’ तक का संदर्भ शामिल है।
सबसे पहले तो मैं इस तथ्य को उजागर कर दूं कि मध्यप्रदेश में पत्रकारिता करते हुए मुझे तीन दशक से भी अधिक का समय हो चुका है लेकिन भय्यू महाराज से प्रत्यक्ष मिलने का अवसर मेरे संस्मरणों में शामिल नहीं है। बीच में ऐसे मौके जरूर आए या ऐसी स्थितियां बनीं कि मैं उनसे मिलूं, लेकिन ऐसे सभी अवसर फलित नहीं हो सके। शायद मेरे साथ साथ नियति को भी ऐसा ही होना स्वीकार्य रहा होगा।
खैर… भय्यू महाराज घटनाक्रम के संदर्भ में, ऊपर मैंने जिन पत्रकार साथियों की प्रतिक्रियाओं का जिक्र किया, उन्हें मैंने इसलिए चुना कि उनकी कही हुई बातों से एक विचार मेरे मन में आया जो किसी व्यक्ति विशेष से नहीं बल्कि समग्र समाज से जुड़ा है।
मेरा मानना है कि आज हमने समाज में जैसी परिस्थितियां निर्मित कर दी हैं उनमें सिर्फ और सिर्फ जीत की ही स्वीकार्यता है। हम बच्चों की शिक्षा से लेकर उनकी शिक्षेतर प्रतिभाओं को सामने लाने तक के हर उपक्रम में केवल यही अपेक्षा करते हैं कि वे सिर्फ जीत हासिल करें।
खेलों के बारे में कहा जाता रहा है कि वहां हार-जीत का महत्व नहीं खेलने का महत्व है। इसी को खेल भावना भी कहा गया है। लेकिन आज चाहे खेल हों या पढ़ाई लिखाई का मामला। यह बात शैशव अवस्था से ही घुट्टी की तरह पिलाई जा रही है कि आपको केवल जीत हासिल करने के लिए ही जीना है।
जैसे जैसे बच्चा इस ‘जीत सिंड्रोम’ के साथ बड़ा होता जाता है, वह जीत की लालसा का एक तरह से ‘एडिक्ट’ हो जाता है। बड़ा होने पर जीत का यह भूत इस कदर सिर चढ़कर बोलता है कि किसी भी सूरत में व्यक्ति अपनी पराजय और असफलता को स्वीकार नहीं कर पाता।
पढ़ाई के मामले में तो बच्चे पर जीत का ही नहीं सबसे अव्वल आने का ऐसा दबाव बनाया जाता है कि वांछित उपलब्धि न मिलने पर वह टूट जाता है। अब परीक्षा को उत्तीर्ण करना सफलता का पैमाना नहीं रह गया है, सफलता के शिखर को छूना ही असली सफलता का परिचायक बन गया है।
लेकिन असल जिंदगी में तो ऐसा होता नहीं। शिखर पर तो कोई एक ही पहुंच सकता है। अव्वल तो कोई एक ही आ सकता है। ऐसे में जो अव्वल नहीं आ सके वे हताशा या निराशा में डूबकर अपने जीवन को ही निरर्थक मानने लगते हैं। और सफलता-असफलता के इस जानलेवा द्वंद्व में हम देख रहे हैं कि कई बच्चे मौत को गले लगा लेते हैं।
यह कहा जा सकता है कि हरेक व्यक्ति को जीत का सपना क्यों नहीं देखना चाहिए। उसे सफलता के शिखर पर पहुंचने का उपक्रम क्यों नहीं करना चाहिए। हार मानने वाला वीर नहीं कायर होता है और कायरों के लिए इस दुनिया में कोई जगह नहीं। उनका कोई भविष्य नहीं…
लेकिन मुझे लगता है कि जीत और सफलता को लेकर ये जो वेद-वाक्य हमने गढ़ लिए हैं और जिन्हें हम बच्चों के मानस पर शिलालेख की तरह खोदे दे रहे हैं, उनमें थोड़े संशोधन की जरूरत है। जीत का मानस तैयार करवाना बहुत अच्छी बात है, लेकिन मैं समझता हूं उससे भी ज्यादा जरूरी बच्चे को यह सिखाना है कि वह हार या असफलता को पचाना सीखे।
ये जो हमने हर मुहावरा सिर्फ जीत को सकारात्मक और हार को नकारात्मक बनाते हुए गढ़ लिया है, उसे बदलना होगा। हार और जीत सिक्के के दो पहलू हैं। किसी की विजय तभी होगी जब कोई पराजित होगा। इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि जीने का अधिकार सिर्फ जीतने वाले के पास है और हारने वाले के हिस्से में सिर्फ मौत का ही विकल्प है।
पराजय या असफलता के क्षणों में खुद को निराशा या हताशा में डालने के बजाय जरूरी है उस स्थिति को पचाना, उससे उबरना… जीत अच्छी है, लेकिन पराजय भी उतनी बुरी नहीं है यदि आप उसे पचाकर, उससे सबक लेकर या उससे उबर कर उसे विजय में परिवर्तित करने का उपक्रम करें।
शकील बदायूंनी ने क्या खूब लिखा है-
न मिलता ग़म तो बरबादी के अफ़साने कहाँ जाते
अगर दुनिया चमन होती, तो वीराने कहाँ जाते
वीराने इसलिए अहम हैं क्योंकि वे चमन की अहमियत को स्थापित करते हैं। हार, जिंदगी को हार जाने की अनिवार्य शर्त नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए…
आदरणीय गिरीश जी!
हार जीत से परे जीवन को जानने और जीने की जरूरत है। कोई भी जो आत्महत्या करता है उसकी अपेक्षाएं और जीवन के प्रति समझ पर प्रश्न उठता है,चाहे वह आध्यात्मिक संत ही क्यों न हो। समस्याओं का अंत शरीर के अंत से नहीं हो सकता। हजार परतें हैं व्यक्तित्व की… ।
धन्यवाद!
ठीक बात है रितु जी