आकाश शुक्ला
देश की जनता रामराज्य की परिकल्पना में राम जैसा नेतृत्व चुनने के लिए लोकतंत्र में मताधिकार का उपयोग करती है। रावण जैसा जनता नेतृत्व कभी जनता स्वीकार नहीं करती। परंतु चुनाव के समय चुने जाने वाले प्रत्याशी भगवान राम का प्रतिरूप दिखाई देते हैं और चुनाव जीतने के बाद उनमें राम भगवान की छवि और उनके नेतृत्व से रामराज्य की परिकल्पना गायब हो जाती है।
भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे, न्याय के लिए कटिबद्ध थे। बुजुर्गों का आदर करते थे, अपने पिता की आज्ञा के पालन के लिए राजगद्दी छोड़ कर सीता माता सहित 14 वर्ष के वनवास के लिए निकल गए थे। भरत के प्रति भी उन्होंने कभी बैर नहीं रखा जिनके राजतिलक के लिए उनको वनवास दिया गया था, माता कैकई को भी उन्होंने माता कौशल्या जैसा ही सम्मान दिया। वनवास के समय भी भगवान राम ने बिना भेदभाव के जहां माता शबरी के जूठे बेर खाए, वहीं वानर राज सुग्रीव एवं हनुमान जी, नल नील, अंगद को साथ में रखकर वानर सेना को युद्ध में अपना सहयोगी बनाया।
जामवंत और जटायु, रावण के भाई विभीषण भी भगवान के सहयोगी रहे। भगवान ने हर तरह के लोगों को अपने साथ ले कर सहयोगी बनाकर रावण जैसे महा पराक्रमी पर युद्ध नीति का पालन करते हुए आक्रमण कर विजय पाई। विजय के पश्चात भी रावण के ज्ञान का सम्मान करते हुए उसके पैरों के पास खड़े रहकर लक्ष्मण जी को ज्ञान प्राप्त करने का नीतिगत ज्ञान दिया।
भगवान राम ऐसे ही मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं कहलाए, उनका बुजुर्गों, गुरुओं की आज्ञा का पालन करना और उनका सम्मान करना, हर एक को, चाहे वह वानर हो, भालू हो, वनवासी हो साथ लेकर चलना और नीति विरुद्ध कुछ भी नहीं करना, अपने विरोधियों की विशेषताओं और ज्ञान का सम्मान करना, जन भावनाओं और जनता का ध्यान रखना ही उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम बनाता है। भगवान राम सर्वजन समभाव के प्रतीक थे, प्राणी मात्र के प्रति समान भाव रखते थे।
वहीं रावण पराक्रमी और विद्वान तो था परंतु अहंकारी भी था। रावण को कोई नहीं हरा पाता यदि उसमें अहंकार नहीं रहता। रावण पराक्रमी भी था, बुद्धिमान भी था परंतु रावण की सबसे बड़ी कमी थी की वह अपनी बुराई नहीं सुन पाता था। बुराई बताने वाला हर व्यक्ति उसे राष्ट्रद्रोही दिखता था। भले ही उसकी बुराइयां बताने वाले उसके अपने क्यों न हों?
सीता हरण का पाप करने के बाद मंदोदरी ने रावण को गलती सुधारने को कहा तो वह भी रावण के कोप का भाजन बनी। विभीषण ने जब रावण को उसकी गलती का एहसास कराया तो वह भी रावण के कोप का भाजन बने और उन्हें राष्ट्रद्रोही कहा गया और लंका से निकाल दिया गया। रावण के भाई कुंभकरण और पुत्र इंद्रजीत की बात भी रावण ने नहीं मानी जो उसके अंत का कारण बना। राजा रावण अपने आराध्य भगवान शंकर से भी अहंकार में डूब कर युद्ध करने पहुंच गया था और कैलाश पर्वत उठा लिया था। जब कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर ने वजन रखा जिससे रावण का हाथ दबने लगा तब शिव भगवान की स्तुति कर उसने कष्ट से मुक्ति पाई थी। अर्थात रावण अहंकार में अपने आराध्य तक से युद्ध करने में नहीं हिचकता था।
राजा रावण में एक ही कमी थी कि प्रश्न करने वाला उसे अपना विरोधी दिखाई देता था और उसकी बुराइयां बताने वाला हर व्यक्ति अपना दुश्मन और देशद्रोही दिखने लगता था भले ही वह बुराइयां और प्रश्न देशहित में क्यों ना हों! हमारा नेतृत्व ऐसा होना चाहिए जो खुद की गलतियों पर भी बातचीत करे, उनका उत्तर दे और यदि स्वयं की गलती पाता है तो उन गलतियों को सुधारे, यह नहीं कि गलती बताने वाले को राष्ट्रद्रोही बताए। हमें ऐसे लोकतंत्र की आवश्यकता है, जिसमें सत्ताधीशों की गलतियों पर खुलकर चर्चा हो, उन्हें सुधारने पर भी विचार हो ना कि गलतियां बताने पर राष्ट्रद्रोह का तमगा और विभीषण जैसा देश निकाला मिले। ऐसी परिस्थितियों में देश का नुकसान तो होता ही है साथ ही सत्ताधीशों का अंत भी उसी तरह होता है जैसे विद्वान और पराक्रमी परंतु अहंकारी राजा रावण का हुआ था।
हम उम्मीद करते हैं कि राम मंदिर के निर्माण की शुरुआत हमें राम राज्य की ओर ले जाए। हमें हमेशा भगवान राम के आदर्शों को मानने वाला नेतृत्व मिले, जो केवल चुनाव जीतने के लिए धर्म की बातें ना करे, बल्कि अपने वचनों पर चुनाव के बाद भी कायम रहे। अपने स्वयं के हितों के विपरीत जाकर भी राज धर्म निभाये। जिसके लिए व्यक्तिगत लाभ हानि से बढ़कर राजधर्म हो, जैसे भगवान राम ने माता सीता का त्याग एक आम धोबी के कहने पर कर दिया था। जिस के राज में एक साधारण व्यक्ति को भी राजा के बारे में बोलने की आजादी हो।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में रामराज्य पर पर्याप्त प्रकाश डालते हुए लिखा है कि- मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया, सारे भय–शोक दूर हो गए एवं दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिल गई। कोई भी अल्पमृत्यु, रोग–पीड़ा से ग्रस्त नहीं था, सभी स्वस्थ, बुद्धिमान, साक्षर, गुणज्ञ, ज्ञानी तथा कृतज्ञ थे।
राम राज बैठे त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका।।
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।।
राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं।
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं।।
राजा को तो भगवान राम जैसा मर्यादा पुरुषोत्तम ही होना चाहिए और शासन रामराज्य जैसा ही होना चाहिए। परंतु वास्तविकता राम राज्य से कोसों दूर है, रामराज्य की बातें चुनावी भाषणों तक सीमित हो गई है। सत्ता प्राप्ति के बाद सत्ताधीश जनता के दुख दर्द और तकलीफ भूल कर स्वार्थ सिद्धि में लग जाते हैं। स्वार्थ से वशीभूत होकर नीति विरुद्ध आचरण करते हैं। जनता के जीने के लिए आवश्यक बुनियादी सुविधाएं जैसे निशुल्क शिक्षा, निशुल्क स्वास्थ्य सुविधाएं, शुद्ध पेयजल, रोजगार आदि हमारे देश की अधिकांश जनता को आज भी मुहैया नहीं है।
रामराज्य की अवधारणा जनता की दैहिक, दैविक और भौतिक तकलीफ को दूर करने की है, साथ ही सभी जनता के स्वस्थ्य, बुद्धिमान, साक्षर,ज्ञानी, गुणी और कृतज्ञ होने की है। परंतु जब तक नेतृत्व में भगवान राम के गुण नहीं आएंगे एक एक व्यक्ति की तकलीफ दूर करने पर नेतृत्व का ध्यान नहीं रहेगा, तब तक जनता राम राज्य से कोसों दूर रहेगी।