कोई भी फैसला हमें पेड़ को केंद्र में रखकर करना होगा

पिछले एक सप्‍ताह के दौरान देश में न्‍यायपालिका से जुड़ी कुछ घटनाओं ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि न्‍याय को लकीर का फकीर होना चाहिए या फिर फकीर की किस्‍मत बदल देने वाली लकीर खींचने की कोशिश करनी चाहिए। यह सवाल सिर्फ न्‍यायपालिका से ही ताल्‍लुक नहीं रखता बल्कि देश और समाज के भविष्‍य से भी इसका गहरा नाता है।

यकीन न आए तो मुंबई के आरे प्रकरण को ही ले लीजिए। मामला यह है कि मुंबई में मीठी नदी के किनारे आरे क्षेत्र में लगे सघन पेड़ों में से 2646 पेड़ों को हटाया जा रहा है। इनमें से 2185 पेड़ों को काटा जाएगा और 461 को दूसरी जगह लगाया जाएगा। पेड़ों पर यह कुल्‍हाड़ी इसलिए चलाई जा रही है क्‍योंकि उस जगह मुंबई मेट्रो रेल कॉरपोरेशन, मेट्रो कार डिपो बनाने जा रहा है।

पेड़ कटाई की जानकारी मिलने पर स्‍थानीय लोगों और गैर सरकारी संगठनों एवं पर्यावरण संरक्षण में लगे समूहों ने इसका विरोध करते हुए बॉम्‍बे हाईकोर्ट की शरण ली। लेकिन हाईकोर्ट ने यह कहते हुए पेड़ कटाई पर रोक लगाने से इनकार कर दिया कि मामला सुप्रीम कोर्ट और राष्‍ट्रीय हरित अधिकरण में लंबित है। हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं की वह मांग भी नामंजूर कर दी कि जब तक वे इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करें तब तक तो कम से कम पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी जाए।

उधर जैसे ही हाईकोर्ट में याचिका खारिज हुई अधिकारियों ने पेड़ों की कटाई का काम शुरू कर दिया। लोग विरोध न कर सकें इसके लिए इलाके में धारा 144 लगा दी गई। विरोध करने पर 29 लोगों को हिरासत में ले लिया गया। अब स्थिति यह है कि एक तरफ मामला सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई की प्रतीक्षा कर रहा है और दूसरी तरफ पेड़ों की कटाई का काम अनवरत जारी है। पेड़ कटाई का विरोध करने वाले एक समूह की प्रतिनिधि ने रविवार को बताया कि 2185 पेड़ों में से अबतक 1500 पेड़ तो काटे भी जा चुके हैं। यानी यदि सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई हुई भी तो भी कोई नतीजा नहीं निकल पाएगा क्‍योंकि तब तक संभवत: सारे पेड़ जमींदोज किए जा चुके होंगे।

यहां प्रश्‍न अदालत पर या उसके फैसले पर उंगली उठाने का नहीं बल्कि इस बात को रेखांकित करने का है कि चाहे सरकार हो या अदालतें। उन्‍हें किसको महत्‍व देना चाहिए? कानून या नियम को या व्‍यक्ति, समाज, पर्यावरण और प्रकृति को। उन्‍हें लकीर का फकीर बनकर मामलों को देखना चाहिए या व्‍यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। यहां यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पिछले दिनों ऐसे कई उदाहरण आए हैं जब अदालतों ने कानून की किताब से ऊपर उठकर मामले के व्‍यावहारिक दृष्टिकोण को तवज्‍जो दी है और जरूरत महसूस होने पर या तो कानून की नए सिरे से, नए संदर्भों में व्‍याख्‍या की है या फिर उस कानून में संशोधन करने की सलाह भी दी है।

पर्यावरण संरक्षण सिर्फ भारत का ही नहीं पूरी दुनिया की चिंता का विषय है। हाल ही में संयुक्‍त राष्‍ट्र के सम्‍मेलन में इस बात पर जोर दिया गया कि जलवायु संरक्षण पर बातें तो बहुत हुईं लेकिन अब बातें करने का समय निकल चुका अब कुछ कर दिखाने का समय है। यदि अब भी हमने समुचित उपाय नहीं किए तो यह धरती आने वाली पीढि़यों के रहने लायक शायद न रहे।

यह भी याद रखा जाना चाहिए कि देश इस समय गांधी की 150 वीं जयंती मना रहा है। गांधी ने जिस विकास की बात की थी वह विकास प्रकृति के संरक्षण पर आधारित विकास था न कि प्रकृति के विनाश पर। गांधी का मानना था कि विकास तो होगा, उसे होना भी चाहिए, लेकिन उसमें प्रकृति के लिए भी स्‍थान रहे, उसकी अनदेखी न हो। पर आज का विकास प्रकृति की कीमत पर, उसके विनाश का कारण बनकर हो रहा है।

ऐसे समय में जरूरी हो जाता है कि प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े मामले जब भी अदालतों या अन्‍य न्‍यायिक प्रकृति की संस्‍थाओं के सम्‍मुख आएं उन पर रूटीन में कानून की किताब या नियम प्रक्रिया के तहत विचार करने के बजाय उसके केंद्र में मनुष्‍य और प्रकृति को रखकर विचार हो। आरे मामले में ही प्रसिद्ध पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ ने जो रिपोर्टिंग की है उसमें बताया गया है कि भारत में तो अभी जंगल की परिभाषा ही तय नहीं है।

अब ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है या कोई और कारण है, नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसकी आड़ में हर साल हजारों पेड़ बलि चढ़ा दिए जाते हैं। आपको जिस जमीन पर कई पेड़ दिखाई देंगे और आप जिसे सामान्‍य बोलचाल की भाषा में जंगल कह देंगे, हो सकता है सरकारी परिभाषा में वो जंगल बिलकुल न हो। और जो जंगल या वनक्षेत्र नहीं है वहां पेड़ों की कटाई में कानूनी बाधाएं उतनी नहीं आती, लिहाजा वे काट डाले जाते हैं।

आरे कटाई के विरोध में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ‘वनशक्ति’ संगठन के संस्‍थापक स्‍टालिन दयानंद के मुताबिक आरे क्षेत्र में पांच लाख पेड़ हैं, दो नदियां हैं, तीन झीलें हैं, वहां 18 प्रकार के सरिसृप, 76 प्रकार के पक्षी और उनके अनुकूल जमीनी वातावरण है। ये सारी बातें स्‍थापित करती हैं कि आरे सिर्फ एक वनक्षेत्र ही नहीं बल्कि समूचा फॉरेस्‍ट इकोसिस्‍टम है।

लेकिन दुर्भाग्‍य यह है कि सरकारी किताबों और सरकारी सिस्‍टम के मुताबिक यह वन नहीं है। अब समय आ गया है कि हम जंगल या प्रकृति के बारे में कोई भी फैसला पेड़ को केंद्र में रखकर करें, कानून या सरकारी किताब को केंद्र में रखकर नहीं। विरोध विकास का नहीं है, विरोध है उस विनाश का जो विकास के नाम पर किया जा रहा है। यह तय करना बहुत जरूरी है कि हमें सुविधाएं किस कीमत पर चाहिए।

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