जब से कर्नाटक चुनाव के परिणाम आए हैं, मुझे तरह तरह की प्रतिक्रियाएं और विश्लेषण पढ़ने को मिल रहे हैं। ऐसे ज्यादातर विश्लेषणों में सामान्य या रूटीन बातों के अलावा मुझे वैचारिक या गंभीर तथ्यपरक सामग्री बहुत कम देखने को मिली। सारे आलेख इस बात पर सिमटे रहे कि बहुमत का आंकड़ा रखने वाले कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन को सरकार बनानी चाहिए या सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भाजपा को।
सहज जिज्ञासावश विश्लेषण की कुछ और दिशाएं जानने के लिए मैं यूं ही फेसबुक पर आई पोस्ट टटोलने लगा। इसी दौरान मुझे अपने ही पेशे से जुड़े दो नौजवानों के कमेंट्स ने सोचने पर मजबूर किया। उन्हें पढ़कर लगा कि हम लोग जिस परंपरागत तरीके से चीजों को सोच रहे हैं, उन्हें हमारी युवा पीढ़ी या नेक्स्ट जनरेशन बहुत अलग तरीके से ले रही है।
ऐसा पहला कमेंट मनोज जोशी की फेसबुक वॉल पर मिला। उन्होंने परीक्षा में पूछे जाने वाले सवालों की तर्ज पर पूछा- ‘’कौन सी ‘अनैतिकता’ को आप उचित मानते हैं-
(1) जनता दल (एस) कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाए।
(2) भाजपा इन दोनों दलों के विधायकों को तोड़ कर सरकार बनाए।
कृपया कारण भी बताएं।
मनोज के ये दोनों सवाल हमारे समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था और चुनाव प्रणाली के वर्तमान चरित्र को उजागर करने वाले हैं। यह बात महत्वपूर्ण है कि कर्नाटक में चाहे कोई भी विकलप चुना जाए वह अंतत: अनैतिक ही होगा। यानी आप चुनाव लड़ने से लेकर सरकार बनाने तक, सारा अनुष्ठान अनैतिकता के धरातल पर ही संपन्न कर रहे हैं। ऐसी प्रक्रिया से जो सरकार बनेगी उससे नैतिकता, शुचिता और सदाचरण की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
असली दिक्कत यह है कि लोकतंत्र की बुनियाद से जुड़े ऐसे सवालों के जवाब भी राजनीतिक चश्मे चढ़ाकर ढूंढे जा रहे हैं। दोनों ओर के उन्मादी समर्थकों की फौज सिर्फ और सिर्फ इतना ही देख पा रही है कि उसके पसंदीदा दल को ही सरकार बनानी चाहिए। उनके मन में यह सवाल या विचार कहीं दिख ही नहीं रहा कि वे जिस तरीके से सरकार बना लेने का समर्थन कर रहे हैं वह तरीका ही मूल रूप से दूषित है।
मनोज जोशी की फेसबुक वॉल पर मैंने बहुत सारे कमेंट देखे और करीब करीब सभी कमेंट में या तो भाजपा का अंधभक्त होकर बात की गई या फिर कांग्रेस का। यह चिंता मुझे कहीं नहीं दिखी कि अंतत: ऐसी सरकार बनने के बाद कैसे तो चलेगी और क्या क्या धतकरम नहीं करेगी? सरकार बनाने की जोड़-तोड़ में खरीद घोड़ों की हो, गधों की या खच्चरों की, बड़ा सवाल यह है कि क्या हम अपने संविधान और पूरे लोकतंत्र को इन्हीं की पीठ पर लादकर आगे ले जाने वाले हैं?
दूसरा कमेंट एक और युवा पत्रकार शैलेंद्र तिवारी की फेसबुक वॉल पर दिखा। उन्होंने लिखा- ‘’हमारी पीढ़ी ने भाजपा का नंगपन नहीं देखा था, लेकिन इन 4 साल ने धन्य कर दिया। शुक्रिया भाजपा…’’
शैलेंद्र की इस पोस्ट पर प्रवीण नाहटा ने टिप्पणी की- ‘’कांग्रेस का नंगापन देखने के बाद भाजपा के नंगेपन में वो मज़ा कहां।‘’
और इसका जवाब शैलेंद्र ने दिया- ‘’सर, हमने कांग्रेस का वो दौर नहीं देखा, जो आपने देखा है। जो कांग्रेस का दौर देखा था, उसमें भाजपा पसंद आई। अटलजी के दौर के बाद जब यह भाजपा देखी तो इससे कोफ्त होने लगी है। हमने ऐसे दल की कल्पना नहीं की थी। अगर दोनों ही एक दूसरे की आड़ लेकर वही करेंगे, जिसे नहीं करने के लिए हम दूसरे को चुनते हैं… तो फिर बदलाव की जरूरत ही क्या है। कोई भी सरकार बनाए, कोई भी चलाए क्या फर्क पड़ता है।‘’
हमारे राजनीतिक कर्ताधर्ताओं को शैलेंद्र की यह पीड़ा भरी टिप्पणी जरूर गौर से पढ़नी और गुननी चाहिए। यह सिर्फ एक शैलेंद्र की ही टिप्पणी नहीं है, इसे आप उस पूरी युवा पीढ़ी की टिप्पणी/प्रतिक्रिया या पीड़ा मान सकते हैं जो राजनीति को जानना और समझना तो चाहती है लेकिन जानने और समझने की इस प्रक्रिया में उसे सिर्फ और सिर्फ छल-कपट और अनैतिकता के रोज नए मानदंड देखने को मिल रहे हैं।
राजनीति के कुरुक्षेत्र में इन दिनों जो युद्ध लड़ा जा रहा है उसमें दोनों तरफ कौरव ही हैं। दोनों ही तरफ ऐसे दुशासन मौजूद हैं जो लोकतंत्र की गरिमा को बलात अपनी जांघ पर बैठाने की हवस लिए हुए हैं। ऐसे में आप क्या तो किसी की विजय की उम्मीद करें और क्या किसी की पराजय की… इस युद्ध की आदर्श परिणति तो यह है कि दोनों ही पक्ष पराजित हों…
जरा ध्यान दीजिए आज की जनरेशन क्या कह रही है… वह कहती है ‘’हमने तो कांग्रेस का वो दौर नहीं देखा जो आपने देखा है, जो कांग्रेस का दौर देखा उसमें भाजपा पसंद आई’’ यह स्वयं भाजपा के लिए चिंता का विषय होना चाहिए कि वह खुद को कांग्रेस से जोड़कर उसके जैसे ही काम करके कहीं खुद से जुड़े युवाओं में खिन्न या विरक्त होने का भाव तो नहीं जगा रही…
जब भाजपा के नेता अपने अनैतिक कदमों को न्यायोचित ठहराने के लिए यह तर्क देते हैं कि कांग्रेस के जमाने में तो इससे भी ज्यादा हुआ था तो कहीं न कहीं वे उस जनरेशन को हतोत्साहित कर रहे होते हैं जो अभी अभी उनसे जुड़ी है। इस जनरेशन ने कांग्रेस का न वो कार्यकाल देखा है और न ही वो कारनामा। इसलिए आपके लिए ऐसा कहना एक तुलनात्मक तर्क हो सकता है, लेकिन उनके लिए यह चौंकाने वाला है कि अरे, हम तो इस पार्टी को क्या समझते थे और यह क्या निकली…
मोदी और अमित शाह की भाजपा से जो जनरेशन जुड़ी है उसमें अंधभक्तों को अलग करने के बाद, कई युवा ऐसे भी हैं जो मानते थे कि यह पार्टी कांग्रेस की तुलना में बेहतर, नैतिक और कम करप्ट है। लेकिन जब आप ऐसा आचरण करते हैं तो वह न सिर्फ चौंकती है बल्कि उसे धक्का लगता है। अब आप उस दिन के बारे में सोचिए जिस दिन ऐसे धक्के खा-खाकर वह आपसे छिटकने लगेगी और उसी मनोदशा में सोचेगी कि क्या कांग्रेस इससे भी बुरी थी?
चूंकि उसने कांग्रेस का जमाना देखा ही नहीं इसलिए आज आप कांग्रेस की जैसी छवि परोक्ष रूप से बता रहे हैं, उसके सामने भाजपा की वही छवि प्रत्यक्ष होगी और कोई आश्चर्य नहीं कि आज नहीं तो एक दो चुनाव बाद वह यह सोचने लगे कि चलो एक बार कांग्रेस को आजमा कर देखा जाए… ठीक उसी तरह जिस तरह देश ने 2014 में सोचा था कि चलो एक बार मोदी और भाजपा को आजमा कर देखें…
आप इसे दूर की कौड़ी कह सकते हैं, लेकिन इस बात की अहमियत का मोल कौडि़यों में आंकने की गलती मत करिएगा…
अब इसके आगे की बात यह है कि सरकार कैसे बना रहे हैं यह उतना मायने नही रखता जितना सरकार बना कर चला कैसे रहे हैं। मैं इस मामले में भाजपा को ज्यादा नंबर देता हूँ कि वे कांग्रेस से बेहतर सरकार चला रही है जनता के लिए परिणामों की दृष्टि से। शेर के मुंह से निवाला छीनने के लिए शेर ही बनना पड़ता है और वो भाजपा कर के दिखा रही है। शेर दोनों ही नंगे होते हैं।
👌😜👌