गिरीश उपाध्याय
हमारे साथ एक बड़ी मुश्किल यह है कि हम जितना जबानी जमाखर्च करते हैं उतना काम नहीं करते। आम जिंदगी में होने वाला अपासी संवाद हो या फिर इन दिनों ज्यादातर मामलों में होने वाला सोशल मीडिया का कथित संप्रेषण। आदर्शों की, मूल्यों की, सिद्धांतों की, नैतिकता की, राष्ट्रप्रेम की, स्वधर्म की दुहाई तो बहुत दी जाती है, लेकिन वास्तविक धरातल पर जब इन बातों पर अमल करने की बारी आती है तो वह जोश पता नहीं कहां गुम हो जाता है।
कथनी और करनी में अंतर की यह बात पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पुण्य तिथि पर भाजपा सांसदों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उद्बोधन से उठी है। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में पार्टी सांसदों के साथ साथ देशवासियों का भी आह्वान किया कि वे एक डायरी में अपने दिन भर के क्रियाकलापों का ब्योरा दर्ज करते हुए ऐसे सामानों की सूची बनाएं जिनका वे उपयोग करते हैं और फिर देखें कि उनमें से कितना सामान स्वदेशी है और कितना विदेशी।
उन्होंने कहा कि यह काम सुनने में आपको सरल लगेगा लेकिन करने में जरा कठिन हो सकता है। फिर भी आप परिवार के सभी सदस्यों के साथ बैठें, जिनमें बच्चे, बूढ़े, नौजवान, बेटे-बेटी सभी हों। फिर एक डायरी लेकर उसमें लिखें कि सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक हम जिन-जिन चीजों का उपयोग करते हैं, उनमें से कितनी हिन्दुस्तान की हैं और कितनी बाहर की हैं। मेरा दावा है कि जब आप सूची बनाएंगे तो खुद ही चौंक जाएंगे, डर जाएंगे… क्योंकि हमें पता ही नहीं है कि जो चीज हमारे देश में उपलब्ध है, जो चीज हमारे देश के मेहनतकश लोग बनाते हैं, वे चीजें भी हम जाने अनजाने में विदेशी उत्पादकों की इस्तेमाल कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने पूछा कि देश की मिट्टी की सुगंध जिसमें न हो, देश के मजदूर का पसीना जिसमें न हो, ऐसी चीजों से मुक्ति पानी चाहिए कि नहीं पानी चाहिए? ये जिम्मा हमें लेना चाहिए कि नहीं लेना चाहिए? बिना कारण कई छोटी-मोटी विदेशी चीजें हमारे जीवन में घुस गई हैं। जब आप लिखने बैठेंगे तो पाएंगे कि 80 प्रतिशत चीजें ऐसी हैं जो आप स्वदेशी नहीं बाहर की इस्तेमाल कर रहे हैं। तब आपको अपनी गलती का अहसास होगा और जिस दिन यह गलती सुधर गई उस दिन सोचिये देश को इसका कितना लाभ होगा। ‘वोकल फॉर लोकल’ की बात करते समय ज्यादातर लोग कहते हैं देखिये हम तो लोकल दिये ही इस्तेमाल कर रहे हैं। अरे नहीं भाई… बात दिवाली के दिये से ही पूरी नहीं हो जाती… वो तो हमारे मन के अंधेरे को दूर करने के लिए छोटी सी शुरुआत है। हमें जरा व्यापक रूप से सोचना चाहिए।
इन दिनों एक चलन सा चल पड़ा है कि जब भी शीर्ष स्तर से इस तरह की कोई बात आती है तो या तो उसकी खिल्ली उड़ाई जाती है या फिर उसे राजनीतिक के अखाड़े में घसीट लिया जाता है। पर राजनीतिक या अन्यथा प्रतिबद्धताओं के बावजूद यह जरूरी है कि कोई भी बात यदि वह देश और देशवासियों के भले की हो, तो उस पर राजनीतिक और व्यक्तिगत रागद्वेश अथवा पूर्वग्रह से हटकर सोचा और अमल किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री का ताजा सुझाव गंभीरता से सोचने और उतनी ही सक्रियता से क्रियान्वयन की मांग करता है।
आपको याद होगा कि कोरोना काल में आत्मनिर्भर भारत का नारा आने से पूर्व, जब भारत और चीन के बीच विवाद बढ़ा था और गलवान घाटी में हमारे कई सैनिक हताहत हुए थे तब चीनी माल के बहिष्कार का नारा दिया गया था। लेकिन जमीन पर उस मुहिम का क्या हुआ और जो हुआ उसकी सचाई व प्रामाणिकता क्या है, उस बारे में ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता। उस समय सोशल मीडिया पर जो हल्ला मचा था उससे तो ऐसा लगने लगा था कि बस अब भारत के बहिष्कार के चलते चीन के आर्थिक साम्राज्य का अंत होने ही वाला है। लेकिन चीनी माल के बहिष्कार और स्वदेशी के इस्तेमाल के उस फुग्गे की असलियत उन खबरों में ढूंढी जा सकती है जो कहती हैं कि बॉयकाट की तमाम अपीलों और अभियानों के बावजूद भारत में चीनी मोबाइल की बिक्री में कोरोना काल (वर्ष 2020) की अंतिम तिमाही में इजाफा हुआ। आज भी भारत के मोबाइल बाजार पर 75 प्रतिशत कब्जा चीनी माल का ही है।
दरअसल हमारे यहां उंगली कटाकर खुद को शहीद घोषित करने का चलन कुछ ज्यादा ही है। चीन विवाद के चलते दीवाली के मौके पर चीनी झालर का बहिष्कार कर हमने मान लिया था हमने अपने दुश्मन को बहुत बड़ा झटका दे दिया है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में इसी मनोवृत्ति पर चोट करते हुए दिये का उदाहरण दिया है। दरअसल दिया तो एक प्रतीक है। यदि सचमुच हमें भारत को आत्मनिर्भर बनाना है और स्वदेशी को अपनाना है तो दो चार दिये खरीदकर, सोशल मीडिया पर उसके दस-बीस फोटो डालकर, देशप्रेम का या स्वदेशी को बढ़ावा देने का दिखावा करने के बजाय, स्वदेशी को समग्रता में अपनाना होगा। सवाल सिर्फ दो चार स्वदेशी चीजें खरीद लेने का ही नहीं है, सवाल इस बात का है कि स्वदेशी के भाव को हम अपने जीवन का हिस्सा बना पाते हैं या नहीं। स्वदेशी को अपनाने में गर्व अनुभव करते हैं या नहीं। यदि ऐसा नहीं है तो सिर्फ बातों और नारों से न तो भारत आत्मनिर्भर होने वाला है और न ही स्वदेशी का कुछ भला होने वाला है…(मध्यमत)