पत्रकार बनना चाहते थे मथुरा के एसपी, जिन्‍हें गुंडों ने मार दिया

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वरुण कुमार

ऑफिस पहुंचने पर मथुरा में हुए प्रकरण की जानकारी मिली। खबर देख कर होश उड़ गए। शहीद हुए एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी साल 2008-2009 में बुलंदशहर में सीओ सिटी थे। मैं उन दिनों वहां एक टीवी चैनल का पत्रकार था।

मुकुल जी का व्यवहार सभी पत्रकारों को उनसे जोड़े रखता था। खबर कोई भी हो, वक्त कुछ भी हो, वो अलर्ट रहते थे और अक्सर पत्रकारों से पहले मौके पर मौजूद मिलते थे।

औरेया के रहने वाले मुकुल द्विवेदी का रुझान पत्रकारिता में भी था। वे अक्सर कहते थे कि पुलिस में ना आता तो पत्रकार होता। यूपी पुलिस की जैसी छवि अमूमन दिखती है, वे उसके विपरीत थे। मृदुभाषी और जनता के लिए हमेशा उपलब्ध।

मुझे याद है कि पुलिस के काम करने के तरीकों को वो अक्सर बदलना चाहते थे, लेकिन वर्तमान व्यवस्था में ये मुमकिन नहीं है, इस बात से भी वाकिफ थे। वो अपनी ओर से हर ईमानदार कोशिश करते थे ताकि पीड़ित को मदद मिल सके।

पत्रकारों के साथ उनके रिश्ते अच्छे थे। बाइट और वर्जन के लिए वो सुलभ थे। कई बार खबरों पर नाराजगी तो जताते थे लेकिन फिर सामान्य हो जाते थे।

साल 2000 में ही उन्होंने पुलिस को जॉइन किया था। अपने 16 साल के कॅरियर में उन्होंने हमेशा वर्दी का मान रखा। डिप्टी एसपी से एडिशनल एसपी बने तो भी व्यवहार नहीं बदला। मेरी उनसे आखिरी बात तब हुई थी जब वो सीओ रिफाइनरी (मथुरा) थे। एक बार में ही पहचान लिया।

उनकी शहादत पुलिसिंग सिस्टम पर सवालिया निशान तो लगाती ही है। एक अतिक्रमण हटाने के लिए फोर्स गई और दो पुलिसवाले शहीद हो गए। क्या किसी तरीके से इन पुलिसकर्मियों की जान नहीं बचाई जा सकती थी? आखिर बातचीत से बात क्यों नहीं बन पाई और कार्रवाई की नौबत आई ही क्यों?

मुकुल द्विवेदी और उनके साथी संतोष यादव की शहादत के बाद मुआवजे की घोषणा, सांत्वना और नेताओं के दौरे ईमानदार पुलिस अफसरों को वापस नहीं ला सकते। सिस्टम को ऐसा बनाने की जरूरत है जहां ऐसे हादसे हों ही ना।

(साभार: युवा पत्रकार की फेसबुक वॉल से)

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