मतदाता सूची और आधार, एक जटिल खेल

राकेश दुबे

आप दोपहर में घर पर आराम कर रहें और स्कूल की एक शिक्षिका आपकी घंटी बजा कर आधार कार्ड का नंबर मांगती है। यह दृश्य भारत के हर घर में कमोबेश हर घर में हैं। सरकार के निर्देश पर चुनाव आयोग ने वोटर आईडी को ‘आधार’ से जोड़ने का काम कथित तौर पर शुरू कर दिया है। कारण बताया जा रहा है मतदाता सूची से ‘डुप्लीकेट’ वोटरों के नाम हटाना। जबकि निर्वाचन कानून (संशोधन) अधिनियम, 2021 में वोटर आईडी को आधार से जोड़ने का प्रावधान ‘स्वैच्छिक’ है, संभवतः यह मतदाताओं के हित में न हो। इन्हें जोड़ने का काम जिस तरह किया जा रहा है, उसमें स्वैच्छिक जैसा कुछ भी नहीं दिखता। इस कानून को वैसे भी न्यायालय में चुनौती दी गई है।

सरकार की अन्य संस्था भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने आधार की पूरी व्यवस्था की कड़ी आलोचना की है और उन्होंने इसमें गड़बडियों की एक लंबी फेहरिस्त तैयार की है। 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग के इस तरह के पायलट प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी थी। 2018 में आधार को मतदाता सूची से जोड़ने का प्रयास किया गया तो इसका नतीजा यह हुआ कि 55 लाख लोग वोट देने के अधिकार से ही वंचित हो गए, क्योंकि उनके नाम मतदाता सूची से हट गए थे। वैसी हालत में सरकार को वह फैसला वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। अब क्या होगा सरकार जाने?

अनेक व्यावहारिक दिक्कतों के अलावा एक और बुनियादी समस्या है। आधार निवास का प्रमाण है, जबकि मतदाता पहचान पत्र व्यावहारिक रूप से नागरिकता का प्रमाण है- दोनों को जोड़ा नहीं जा सकता। चुनावों का मूल मुद्दा यह है कि सभी नागरिकों को मतदान करने में सक्षम होना चाहिए। इसके विपरीत यह अनुभव हुआ है कि कई लोग मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज नहीं करा पाते। जबकि वर्तमान मतदाता सूची में तमाम नाम फर्जी हैं या फिर ऐसे लोगों के जिनकी मृत्यु हो चुकी है।

ऐसे भी मामले कम नहीं जिनमें एक ही व्यक्ति का नाम दो अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों की मतदाता सूची में हो। एक के बाद एक, तमाम अध्ययनों के बाद मतदाता सूची में इस तरह की गड़बड़ियों की बात सामने आई है। इन विसंगतियों को ठीक करने की प्रक्रिया लगातार चलने वाली है, फिर भी त्रुटियां मौजूद हैं।

इसके अलावा भी कई ऐसी समस्याएं हैं जिनकी वजह से एक ही व्यक्ति की जानकारी मेल नहीं खाती। अगर नाम की स्पेलिंग अलग-अलग हो, अगर पता लिखने-लिखाने में कोई मामूली-सा भी अंतर रह गया हो। जिस तरह बड़ी संख्या में लोग आधार में दी गई अपनी जानकारी को सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, उससे साफ है कि मतदाता सूची की तुलना में आधार डेटाबेस में ज्यादा गड़बड़ियां हैं। जाहिर है, ऐसे में आधार का उपयोग करके मतदाता सूची की गलतियों को ठीक नहीं किया जा सकता।

आधार को वोटर आईडी या मतदाता सूची से जोड़ने का मतलब यह भी होगा कि अगर किसी कारण से पोलिंग बूथ पर आपका आधार प्रमाणीकरण नहीं हो सका तो आप वोट नहीं दे पाएंगे और इस मामले में अपील भी नहीं हो सकेगी क्योंकि वोटिंग तो उसी दिन खत्म हो जाएगी। दूसरे देश इतने बड़े डेटाबेस को इस तरह नहीं जोड़ते।

लोगों की निजता सुनिश्चित करने के क्षेत्र में काम करने वाले जानकारों का कहना है कि इन दोनों डेटा को अलग ही रखा जाना चाहिए और उन्होंने इसके लिए बड़ी ही वाजिब वजहें गिनाई हैं। सवाल यह है कि फिर देश में ऐसा करने की कोशिश क्यों की जा रही है? यह भी याद रखना चाहिए कि भारत में अब भी व्यक्तिगत डेटा संरक्षण कानून नहीं है। स्थिति यह है कि सरकार ने हाल ही में व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक को वापस ले लिया है। इसका नतीजा यह है कि एक ओर तो सर्वोच्च न्यायालय ने निजता से समझौते की स्थिति के लिए सख्त मानदंड निर्धारित कर रखे हैं, लेकिन विधायिका के रुख के कारण यह मामला अधर में है।

क्या लोकतंत्र में ऐसी व्यवस्था नहीं होनी चाहिए जो नागरिकों पर यकीन करे, वरना तो चुनाव पर भरोसा ही नहीं किया जा सकता। मतदाता सूची की पवित्रता के लिए वास्तविक खतरा नागरिकों से नहीं बल्कि राजनीतिक दलों से है, जिन्होंने पहले इस संबंध में अपनी कुटिलता के पर्याप्त सबूत पेश किए हैं। लेकिन इन वास्तविक समस्याओं के समाधान के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव हर बार दीखता है। (मध्यमत)
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