गांव ही शाश्वत हैं, शहर सबसे बड़ा पाखण्ड !

दीपक गौतम 

तारीखें वक्त के पन्नों पर दर्ज हो जाती हैं और बीता वक्त इतिहास हो जाता है। जिंदगी की किताब के हर पन्ने पर समय की स्याही जो  इबारतें लिखती है, उनमें अच्छे और बुरे दोनों तरह के किस्से बयां होते हैं। बीता हुआ साल शायद 21 वीं सदी का सबसे बुरा साल ठहराया जाएगा। कोरोना काल ने बहुत करीब से ये सिखाया और समझाया है कि जीवन से निर्मम, अप्रत्याशित और सुखद कुछ नहीं है।

कोविड-19 ने दुनिया भर में जिस तरह का कोहराम मचाया है, उसने इंसानी जिंदगियों को महज आंकड़ा बनाकर रख दिया है। कभी-कभी तो लगता है कि इंसानी जिंदगी भेड़-बकरियों से गई गुजरी हो गई है। तिल-तिल कर मरते अपनों को देखना जैसे हमारा नसीब हो गया है। शायद ही कोई हो, जो ये कह सके कि वो 2020 में अपने किसी करीबी की मौत का गवाह नहीं रहा है। मौत के इन आकंड़ों ने इससे पहले कभी इतना नहीं डराया है। ये कहर अब भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। लेकिन जिंदगी कभी रुकती नहीं है। ना ही वक्त ठहरता है। कोरोना ने बेशक कुछ वक्त के लिए जिंदगी की गाड़ी के पहिये थाम दिए थे। सारे जोखिमों के बाद आहिस्ता-आहिस्ता जिंदगी फिर रफ्तार पकड़ रही है।

हमें 2020 ने जितने पाठ पढ़ाए हैं, उनमें सबसे जरूरी सबक यही लगता है कि जड़ों से जुड़े रहना ही जीवन है। वो जो घर-बार और गांव छोड़कर शहर में कॉन्क्रीट के जंगलों को ही अपना आशियाना बना बैठे थे, उन्हें आखिरकार जड़ों की ओर लौटना ही पड़ा। क्योंकि गांव ही शाश्वत हैं और शहर छद्म हैं, छल हैं, प्रपंच हैं, सबसे बड़ा पाखण्ड हैं। असल में वो सिवाय फरेब के कुछ नहीं हैं। मैं तो यही मानकर चल रहा हूँ। भले ही वो जरूरी हो चले हों, लेकिन जड़ों से जुड़े रहना ही जीवन है।

कोरोना की आफत में ये मुये शहर इतने भी अपने न हो सके कि बिना काम के कुछ माह लोगों का पेट पाल सकें। कामकाज बन्द होते ही इनकी सारी व्यवस्था ठप पड़ गई। लोगों को खाने के लाले पड़ गए। शहरों की सारी अर्थव्यवस्था मृत हो चुकी देह की तरह सुन्न होकर ठंडी पड़ गई। मजदूरों से लेकर खासे पढ़े-लिखे नौकरीपेशा लोगों को भी अपनी जड़ों की ओर यानि गांव का ही रुख करना पड़ा।

हजारों किलोमीटर पैदल चलते मजदूर भाइयों की लंबी कतारों में शामिल गर्भवती महिलाओं को देखना हमारी बदकिस्मती नहीं तो क्या है? कोरोना काल में एक ओर शहर थे, जहां लॉकडाउन ने उन्हें पूरी तरह ठप कर दिया था। दूसरी तरफ गांव थे, जहां खुले आसमान के नीचे उम्मीद की फसलें लहलहा रही थीं। उसी लॉकडाउन में गांवों ने अपने अनूठे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे के बल पर हर शरणार्थी को न केवल पाला-पोसा बल्कि उसे सुबह का भूला समझकर शाम को प्रेम से गले भी लगा लिया।

इतनी मोहब्बत अपनी मिट्टी को छोड़कर भला और कहां मिलेगी? शहरों में उस मिट्टी की गंध कहां, जिसमें लोट-पोटकर  शरीर जिंदगी के थपेड़े सहने लायक बन सका। सच कहूं तो मिट्टी की उस सौंधी खुशबू के नथुनों में घुसते ही पूरा बचपन सामने से गुज़र जाता है। इसी कोरोना काल में जब शहरों के विकसित ढांचे ढह रहे थे, उनकी अर्थव्यवस्था चरमरा रही थी। ठीक उसी समय गांवों में इकट्ठा हो रहा मजदूरों का हुजूम जीभर खाना खाकर गांव की चौपाल में या बरगद के नीचे सुकून की नींद ले रहा था।

जब देश की जीडीपी का आंकड़ा कोरोना से मरने वाले लोगों के आंकड़ों से नजरें नहीं मिला पा रहा था, तब भी गांव का किसान पक चुकी फसल की बालियों से लाखों भूखे पेटों को भरने का पुख्ता इन्तजाम कर रहा था। इसीलिए मेरी नज़र में गांव ही शाश्वत हैं और शहर छद्म हैं, पाखण्ड हैं। मेरे लिए तो 2020 का हासिल  यही है कि गांव शाश्वत हैं। असल यही गांव हैं, प्रकृति की गोद और लहलहाती फसलें। बाकी सब माया है। बहरहाल यातनाओं से भरा ये जो साल बीत गया, उससे सबक लें, जो आया है उसका स्वागत करें। आप सभी को नया साल मुबारक।

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